बिना बोए ही उग आता है हर साल अपने सीजन में बथुआ
गेहूँ, जौ, सरसों, अरहर, आलू, मटर, उड़द के साथ ही
इसके बीज को सुरक्षित नहीं रखा कभी किसी किसान ने
खाद-पानी और निगरानी के दायरे से दूर रहने के बावजूद
लुप्त नहीं हुई इनकी प्रजाति
अकाल भी ख़त्म नहीं कर पाए इसे
पइया नहीं पड़ा कभी इसका बीज
और ज़िद का आलम तो देखिए
अब भी जब मौसम थोड़ा ठंडाता है
आत्मीय गर्मी लिए हमेशा हाज़िर हो जाता है बथुआ
लहलहाने लगता हैं बराबर अपने सीजन में
बिना नागा किए हरदम अपने खेतों की मिट्टी में लौटता है
पता नहीं कब से बने हुए नाते को निभाने के लिए
बराबर तत्पर रहता है बथुआ
घर-परिवार और समाज में ही जीने की प्रतिज्ञा निभाता रहा हमेशा
इसीलिए कभी अलग खेत नहीं माँगा अपने लिए
बार-बार उखाड़ कर फेंके जाने के बावजूद
इसकी पैदावार पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा कभी
जमता रहा हमेशा अपने ही अंदाज़ में
हमें प्रतीक्षा रहती है हर साल की ठंडी में
साईबेरियन क्रेन की तरह इस बथुए की भी
हमें प्रतीक्षा रहती है बथुए के उस खटतूरस स्वाद की
जिसकी तासीर सिर्फ़ उसी के पास है
हमें प्रतीक्षा रहती है अप्रवासी बथुए के उस खिलखिलाहट की
जिसे सुनने के लिए न जाने क्यों हमेशा बेचैन रहा करता हूँ
बथुआ चला आता है बिन बुलाए ही
हमसे बात करने, हमारी बात सुनने
खेतों की बयार वाली मस्ती में झूमने
किसी न्यौते की प्रतीक्षा किए बग़ैर ही
बथुआ आ धमकता है साग खोटने वाली स्त्रियों के साथ के लिए
बिना नाकुर-नुकुर किए चुपके से चला जाता है उनकी फाड़ में बथुआ घर तक
अब यह प्यार ही कुछ इस किसिम का होता है कि वह
कट जाता है भुजूड़ी-भूजूड़ी पंहसुल से ख़ुशी-ख़ुशी
कड़ाही में चढ़ जाता है सीझने ख़ातिर आग तक पर
कभी साग बन जाता है
कभी दाल में ही एडजस्ट हो जाता है
तो कभी पराठे में मिल कर गुल खिलाता है
इन सारी मलामतों के बावजूद आता है तो आता है
बथुआ जब भी आता है
हमारे छूंछे पड़ गए भात में एक स्वाद लाता है
हमारी रोटियाँ गुनगुनाने लगती हैं गीत
जीवन को इस तरह भी जिया जा सकता है
बथुआ हमें यह बेतकल्लुफ़ी से बतलाता है
बिन माँगे ही अपना प्यार जतलाता है
अपनी फकीरी पर ही जी भर इतराता है
फिर एक रोज़ न जाने कहाँ चला जाता है चुपके से
इंतज़ार करा कर आने के लिए
वह जानता है कि
प्यार में इस इंतज़ार का भी अपना एक मतलब हुआ करता है
इसलिए वह हर सीजन में
घर लौट आता है अपने साथ स्वाद की कमाई लेकर
उसकी आस में बैठा घर झूम उठता है उसे पाकर
घास-पात वाली प्रजाति माने जाने के बावजूद हताश नहीं हुआ कभी
सागों में भी पालक जैसी अहमियत नहीं मिल पाई इसे कभी
फिर भी बथुआ की रंगत तो बस बथुआ के पास ही है
इसीलिए हमें तो बस वह अपना बथुआ ही चाहिए
बिन बोयी सुवास वाला
स्वाद में बिल्कुल ख़ास वाला
प्यार अनायास वाला
- रचनाकार : संतोष कुमार चतुर्वेदी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.