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बनारस

banaras

ब्रह्मबेला में शृंगार करते

देखा है मैंने

अपने अघोरी को।

मणिकर्णिका एवं हरिश्चंद्र घाट पर

घी की नदी में नहाकर,

चंदन और धूप की शैय्या पर

चित्त होकर निर्विकार लेटे,

जलती लाशों की ठंडी राख से।

रामरती से बस दस रुपए में हमनें

सखुआ के पत्तें में सीक लगी कटोरी लेकर

माटी के दीये को गंगा में दहवा दिया।

धारा पर चुपचाप सुगबुगाते किनारे लगें नाव

मानों जैसे पास बुलाकर मुझसे कुछ कहना चाहते हों।

चेत सिंह घाट के विस्तृत चबूतरे पर

घुँघरुओं की खनक के साथ परमेलू का रियाज़

और अंतरावधि में सुनाई देती गंगा की मंद्र ध्वनि

जड़ देते हैं मुझे उसी स्थान पर जहाँ मैं होता हूँ।

हरिश्चंद्र पर अवचेतन मन में कंपित होती

कापालिकों के विचित्र ध्वनि का घर्घर नाद

और अस्सी की गलियों से लेकर गंगा उस पार तक

सुनाई देता बिसमिल्लाह के शहनाई का पहाड़ी धुन

कभी मुझे वैराग्य की ओर धकेलता है

तो कभी विरक्ति से घर वापस भी लौटा देता है।

स्रोत :
  • रचनाकार : उद्भव सिंह शांडिल्य
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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