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बनारस में ठंड

banaras mein thanD

विमलेश त्रिपाठी

विमलेश त्रिपाठी

बनारस में ठंड

विमलेश त्रिपाठी

और अधिकविमलेश त्रिपाठी

    वह दशाश्वमेघ घाट की शाम थी

    नदी ने धुएँ की चादर ओढ़ रखी थी

    मणिकर्णिका घाट से लाशों के जलने की गंध रही थी

    कोई एक सुबक रहा था बहुत धीमे

    कोई एक गा रहा था—टूटती थीं स्वर लहरियाँ

    मैंने एक बूढ़े के हाथ से ले ली थी चिलम

    साँस भर खींच रहा था धुआँ

    बाहर धुँध की लपटें थीं

    मेरे फेफड़ों में भी धुँध पहुँच रही थी अबाध

    वह दिसंबर महीने के आख़िरी दिनों की शाम थी

    और तुम थीं

    हम एक दूसरे को गरम ऊन की तरह बुन रहे थे

    फ़िलहाल शीतलहरी से बचने का

    कोई तरीक़ा हमारी समझ में नहीं था

    एक चट्टान खिसक रही थी

    उस पर गड़े त्रिसूल की नोंक हल्की टेढ़ी हो रही थी

    हिल रहा था बनारस धीमे-धीमे

    उस ठंडे समय में भी प्रेम था

    हमारी बेरोज़गारी के सवाल थे

    हमारी अजनबीयत के क़िस्से उड़-उड़ जा रहे थे हवा में

    हम आश्वस्त नहीं थे कि हम प्रेम के कारण परेशान थे

    या बेरोज़गारी के कारण

    कि अपनी अजनबीयत के कारण

    हमारी बातों में एक लड़की का ज़िक्र ज़रूर था

    जिसे हम दोनों प्रेम करते थे बेइंतिहा

    एक देश का भी ज़िक्र था ज़रूर

    जिसे हम दोनों जितना प्रेम करते थे उतना ही नफ़रत भी

    प्रेम और नफ़रत की अलग-अलग परिभाषाएँ थीं

    जिसे धुँध में हम बार-बार पकड़ने की कोशिश करते

    और असफल होते

    पीछे छूट जाते थे

    तुम बहुत सुंदर लड़की नहीं थी

    मैं कोई सुंदर लड़का था

    लेकिन उस शाम हमारे बीच का वह ठिठुरता समय

    सचमुच बहुत सुंदर था।

    स्रोत :
    • रचनाकार : विमलेश त्रिपाठी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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