उसका जूते-सा घिसा चेहरा
कहीं-कहीं से फटता दरकता
मरी हुई खाल में आख़िर कब तक ज़िंदा रहता
चुरमुरा गया था
नंगे पैर लंबी यात्रा करते
सबसे चिढ़ते सबको चिढ़ाते
और याद आता है उसका जूते-सा घिसा चेहरा
फेंक नहीं सकता था जिसे
छिपा भी नहीं सकता था जिसे स्टोर रूम में
जिसकी खुल गई थी सीवन जगह-जगह से
और मरम्मत भी नहीं की जा सकती थी
बहुत याद आता है
उसका जूते-सा घिसा चेहरा
अपना ट्रेड मार्क
वह ख़ुद की आहट से भी था अंजान
लोकतंत्र की काँच, कीलों और काँटों से उलझा
जूतों-सा था उसका नसीब
नंगे पैरों की महानता लिए
चेहरे की नंगई भला कैसे बर्दाश्त करता।
जूतों पर कालिख
चमका देती है उसकी क़िस्मत
पर चेहरे की कालिख आत्महनन को करती है मजबूर
तब बहुत याद आता है
उसका जूते-सा घिसा चेहरा।
- रचनाकार : सुधा उपाध्याय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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