वैशाख की वर्षा युद्धाश्व के समान
इस छोटे-से ग्राम की भूमि पर
अपनी टापों की आवाज़ से दिग-दिगंतर को भी प्रतिध्वनित
करती हुई कूदकर जब आ रही थी;
मेंढक अपनी 'नन्त्रुणी' बजाकर और झिल्लियाँ
पी-पी बजाकर जब उन्मेष फैला रही थीं;
माँ के वक्षस्थल पर नन्हे-नन्हे बच्चों के समान
पानी की लहरें जब मेरे घर के आँगन में तैर रही थीं;
स्वर्ग की नीलवर्ण पंचमकन्याएँ अपनी सुवर्ण-मेखलाएँ
उतार-उतारकर भूमि को जब दे रही थीं;
सामने की खिड़कियों पर जलरूपी अँगुलियाँ लोल स्वनों
का जब निर्माण कर रही थीं;
तब एकांतता के सूत्र द्वारा जाने के लिए
तैयार होकर खड़ी मेरी आँखों में,
मानो, अपनी ज़ंजीरें तोड़कर भूमि पर उतरा हुआ
ऐरावत मदमत्त होकर भागता फिर रहा था।
उछलता-छलकता वह जल-प्रवाह
मेरे मन में जब उन्माद की तरंगें उठा रहा था,
तब निरंतर वृष्टि के बड़े-बड़े कल्लोलों को
अपने कंधो पर लेकर मैं चला जा रहा था।
आगे पड़ने वाले एक-एक पग को हृष्टपुष्ट
शुनक-शिशुगण मानो चाट रहे थे।
आकाश ही मानो टूटकर नीचे गिर रहा है, ऐसी
वह घनघोर वर्षा जारी थी।
उस पहाड़ी बाढ़ की उछल-कूद देखता हुआ
नदी तट पर मैं खड़ा हो गया।
नारिकेल-वृक्ष की केश राशि को पकड़ कर खींचने वाली
वायु के चरणों को उस नदी ने समेट लिया।
तीर-तरुओं के साथ वह वायु भी
नदी के भँवरो में गिरकर जब घूमने लगी
तब नाना-विकार-तरलित हृदय से
अंदर ही अंदर मैं कह उठा—है तू समर्थ!
नदी ने फेनों से खिलखिलाकर हँस दिया।
पुलिनों को घोलकर रक्तचंदन लगाया।
हाथों में सब प्रकार के वन-तरु लेकर
नृत्य करने वाली वह भद्रकाली से भी अधिक मनोहारिणी दीखती थी।
वह डूबते-उतराते मरने वाले
भाँति-भाँति के प्राणियों को लेकर जब कंदुक-क्रीड़ा कर रही थी
तब जल-शुनक मेरी आँखों के द्वारा देखने लगा,
जल-वायस के साथ मैंने अपने पंख फैलाए।
कुंकुम-तिलक लगाने आने वाली उषादेवी के लिए
दर्पण बनकर पड़ी थी तब की अपेक्षा
दावानल जैसी फैलकर हुँकार के साथ गमन करने वाली
महावाहिनी का यह घोर सौंदर्य कितना आकर्षक है।
वह पहाड़ी प्रवाह मेरी आँखों में जब लहराने लगा,
मेरी अंतर्दृष्टि एक उन्मत्त जंतु में जाकर रुक गई।
जल-फणि के जैसा मैंने जो सर्पण किया था,
चतुष्पाद ने आकर जो उस सर्प को मारा,
फिर द्विपाद ने आकर जो उस चतुष्पाद को मारा,
सो सब एक-एक करके अंतर्दृष्टि में प्रतिफलित हुआ।
आपस की हाथापाई, छोटे-छोटे द्वंद्वयुद्ध,
जलने वाले जंगल और वह मटमैला जल,
जब यह सब मेरी स्मृति में उठने लगा, तब
मैं एक उन्मादी जैसा क्षण भर के लिए खड़ा रह गया।
फिर से लहराती हुई उस महानदी की
विशाल जल-विस्तृति की ओर आँखें फैलाई,
तब एकाएक मेरी दृष्टि रुक गई—बहता हुआ
वह क्या आता है? एक मृत मनुष्य?
“मृत मनुष्य!”—इस जीव की याद आते ही
भगवान चौंककर जागा निद्रा से।
मरा हुआ वह अभागा मनुष्य
पुत्र और पति और पिता भी होगा।
नाव उलटने से बह गया, अथवा उसकी
छोटी-सी कुटिया टूट पड़ी तो पानी में गिर गया?
सहसा मेरी चिंता-गति रुक गई; आंतरिक
श्रवणों में एक आवाज़ पड़ी—तुम ही मरे हो उस मनुष्य में!”
सचमुच उसी मृत शरीर में मैं बह गया।
*नन्त्रुणी : केरल का एक ग्रामीण तंत्रवाद्य विशेष।
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 641)
- रचनाकार : ओलप्पमण्ण
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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