बचपन
bachpan
समय के पाँव चिपक गए हैं
तेज़ रफ़्तार से दौड़ती रेलगाड़ी के
साथ और एक बच्ची खिड़की के कोने से चिपक कर देखती है
प्लेटफ़ॉर्म पर हिलते हुए रूमाल को!
बच्ची का सिर छोटा-सा घेरा है
जिस पर जुगूनुओं-सा
प्रकाश टिमटिमाता है
और रूमाल की तह में आकर जम
जाता है!
प्यार है यह कि कहाँ-कहाँ फटता है दरारों से ओर
उसे हथेलियों में अंजुल बाँध
थामने के लिए कोई नहीं
लपकता :
और फिर कितनी कमज़ोर
होती है
उँगलियों के पोरों की कोशिश :
बहता हुआ झरना
पहाड़ी से उतरते हुए इसी संलाप की
धुन अपने में भरता हुआ भागता रहता है तीव्र गति से
ढलान की ओर :
ढलान जो हमेशा उदास
और टूटी हुई उम्र का पर्याय बन जाती है; और जो झाँकती
रहती है रूमाल की दबी हुई तह में चमकती जुगनुओं की
रौशनी को!
सच : हम कितना प्यार करते हैं : रिसते हुए :
जिसे ओटने, गूँथने, कोई नहीं आता :
कोई नहीं आता
और बहता रहता है नदी का मोड़ बार-बार नदी का
हिस्सा बनने के लिए!
कितने ही चेहरे हैं
जो उभरते हैं और पिघलते हैं;
उदास तटस्थ ख़ामोश पिघलाव में :
और हड्डियों के साथ चिपक जाते हैं :
सर्दियों की ठंडी व कठोर शीत हवाओं में
अपनी तपिश को बनाए हुए
यह याद उम्र को कितने लम्हों से जोड़ देती है :
और एक बच्ची है
जो बस देखती है प्लेटफ़ॉर्म पर हिलते रूमाल को
जुगनुओं की रौशनी लिए!
बच्ची के फ़्रॉक का रंग
लाल है और उसमें हरे व नीले
रंग के फूल है :
बच्ची के होंठों पर रंग-बिरंगी चिड़ियाँ
चहकती हैं और आँखों में सितारे टिमटिमाते हैं!
बच्ची की उँगलियों के पोर गुलाबी हैं
और नाख़ूनों मे एकदम चिकनाहट है फिसलती हुई!
बच्ची की नाक सुर्ख़ दमक लिए हैं :
उसने रूमाल में तस्वीर को बंद कर लिया :
बच्ची की उम्र कभी दो साल की
होती है कभी दो महीने की :
और कभी दो पल की : बच्ची
की उम्र हर बार
बदल जाती है उसकी महीन मुस्कान में।
उसने बच्ची के फ़्रॉक के नीचे
निकलती हुई तराशी फाँकों को देखा;
सुडौल और नरम; उसने अपनी आँखें उन
पर रख दीं और
चुपचाप उस उम्र के साथ जुड़ गया जो दो साल
की थी और
पार्क में फूलों और तितलियों के साथ भाग
रही थी किलकती हुई!
***
बात केवल थकान की है जो संगीत की धुन बनकर स्पर्श में
डूब जाती है और बच्ची के होंठों में खिलती हुई फाँक
बन जाती है:
दिन के डूबते पहर की रौशनी
कई बार कितना दिलासा देती है :
एक लम्हा और गुज़र
गया : तमाम ज़िंदगी
लम्हों को गुज़ार देने का नाम
है और मुँह के ज़ायक़े की कड़वाहट कब चुपचाप
मिठास में बदल जाती है
नहीं लगा सका :
व्यतिक्रमित
होते दृश्यों के बीच आँख
किस आँख में टिक जाती है
और आकाश का कौन-सा
रंग मुट्ठी में बंद हो जाता है कब :
कोई भी नहीं जानता।
- पुस्तक : सोच को दृष्टि दो (पृष्ठ 90)
- रचनाकार : मोना गुलाटी
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