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और वे सुख से रहने लगे

aur we sukh se rahne lage

विशाल श्रीवास्तव

विशाल श्रीवास्तव

और वे सुख से रहने लगे

विशाल श्रीवास्तव

और अधिकविशाल श्रीवास्तव

    दादी की हर कहानी की

    आख़िरी पंक्ति होती थी यह

    इसे सुनते हुए हमें अचरज होता था

    कि वे कैसे लोग थे जो सुख से रहने लगे थे

    वैसे धीमी भी पड़ जाती थी आवाज़ दादी की

    इस बात तक आते-आते

    शायद उन्होंने भी सुख को नज़दीक से नहीं देखा था

    कैसी कहानियाँ होती थीं वे

    जिनमें एक राजकुमार पहुँच जाता था राजकुमारी तक

    परिंदों, पहाड़ों और जादूगरों को चकमा देते हुए

    आज होता तो शायद चौराहों पर रास्ता भूल जाता

    तब हर बुरे आदमी की जान तोतों में रहती थी

    जिनकी गर्दनें आसानी से मरोड़ी जा सकती थीं

    नहीं तो जादुई क़ालीनों, छड़ियों और आईनों का सहारा था

    आसान था उन कहानियों में सुख तक पहुँचना

    और कई रास्ते थे वहाँ जाने के

    बड़े होने के बाद मैंने पिता से पूछा

    इस पंक्ति के ठीक-ठीक अर्थ के बारे में

    वे बड़े अजीब ढंग से मुस्कुराते रहे चुपचाप

    माँ ने तो शायद यह पंक्ति सुनी ही नहीं थी

    बेकार था उनसे पूछना

    आस-पास के लोग मिले तो

    प्रायः बिसूरते ही रहे अपनी परेशानियाँ

    उनसे यह पूछना निहायत बेहयाई होती

    स्कूल में शिक्षक भी खीझ गए इस सवाल पर

    वे अपने दुखों से वैसे ही उकताए हुए थे

    दोस्तों को भी नहीं पता था इसका सही मतलब

    तंग आकर इस पंक्ति को मैंने घर के पिछवाड़े बो दिया

    कभी तो वहाँ उगेगी इसके जवाब की फ़सल

    मैं अपने बच्चों को उसके सुनहरे दाने दूँगा

    स्रोत :
    • पुस्तक : पीली रोशनी से भरा काग़ज़ (पृष्ठ 61)
    • रचनाकार : विशाल श्रीवास्तव
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2016

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