वन्ध्या पृथिवी में अँधेरा उतर रहा है
अब बहुत रात है।
प्रभाती निशा के स्वप्न-भंग की
अजान के लिए कितनी देर है?
अहल्या पृथिवी तुम शिला बन गई
तुम्हारे वक्ष में
जन-समुद्र के यौवन के ज्वार की लहरें
उठती हैं और लीन हो जाती हैं अविराम गति से
स्वप्नातुरा! प्रतीक्षा में पदक्षेप है?
तुमने क्या सुना नहीं कि
इतिहास के विस्मृत कोने में
हरधनु-भंग राम-युग का फ़ॉसिल है।
तो पद-ध्वनि किसकी? वह पद-ध्वनि हमारी है,
हमारे वक्ष के उत्ताप से
शत अहल्या को प्राण मिलता है
उर्वशी भी आँखें खोलकर निहारती है।
वन्दिनी पृथ्वी स्वप्न-भंग की एक रात में
तुम सुनती हो सहस्रयुग की कहानियाँ
तुम्हारे वक्ष में
युग-युग में सृष्टि होती है शांति के पेगौडा की।
प्रशांत को अशांत करके
महासागर में लहरें उठती हैं
शांति की कपोती रोती है
उसके पंखे में बारूद की बू है!
'री' की तरह कितनों की उन्मत्त आँखों में
दो चम्मच समुद्र के लाल
क्या तुमने नहीं देखे
पृथवी को ढोकर ले जाने वाले
अटलांटिक के सैकड़ों ज्वार!
तुम समझोगी नहीं तुम पाषाण हो,
तुम्हारे दोनों वक्षों में
शतकों की पांडुलिपियाँ, स्मृति का शैवाल है।
अहल्या पृथिवि! तुम उठो
यौवन के दरवाज़े में
इतिहास याद दिला रहा है
जनता दीर्घ ध्वनि से पुकारती है—
हमारे लिए सिर्फ़ हमारे लिए
पृथिवी के होठों की लालिमा है।
- पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 21)
- संपादक : विरिंचिकुमार बरुवा द्वारा चयनित
- रचनाकार : बीरेन बरकटकी
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 1956
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