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अपूर्णता एक ज़रूरी जगह है

apurnata ek zaruri jagah hai

वीरू सोनकर

वीरू सोनकर

अपूर्णता एक ज़रूरी जगह है

वीरू सोनकर

और अधिकवीरू सोनकर

    चलते-चलते, दूर बियाबान में

    फूलों की एक घाटी मिली

    मैंने देखा तो,

    पर नही रुका एक पल भी

    उस घाटी में फूलों का यह पहला अपमान था

    मैंने पहली बार जाना

    भीतर घुस चुकी निष्ठुरता नही पसंद करती मुस्कुराहटें

    आगे पहाड़ पर एक घूप-घड़ी लेटी थी

    समय थोड़ा बचा है कहते हुए

    मेरा उकताया चेहरा देख, उतर चली वह

    मैं अपनी परछाई पर लात रखता हुआ

    बढ़ता रहा

    मानो यह जीवन छोटा है इतना ही,

    ख़बर हुई मुझे अभी-अभी

    अभी आकाश में बहुत सारी जीभें निकल आईं

    एक—प्रवचन देती हुई

    दूसरी—डाँटती हुई

    तीसरी—पुचकार में लौटाती हुई

    सभी जीभें मुझ पर नसीहतों की तरह बरसने लगीं

    कि

    लौट जाओ, स्पंदनों की ओर

    साँसो की आवाजाही में सीमित रहो!

    तुम एक नदी की तरह सोचो

    और समुद्र की तरह लज्जित होते रहो

    कोई हर्ज नही हैं सीमाओं में बने रहना

    परिधि में उड़ते रहना

    अति-शुद्ध भाषा का उज्जवल मुँह चाटते रहना

    और अंततः

    सिर्फ़ आदमी बने रहना!

    कविता प्रश्न नहीं है ही तुम्हारा जीवन है कोई उत्तरमाला

    मैं आवाज़ों को कुचलता रहा, आगे बढ़ता रहा

    मेरे हर क़दम पर

    भूमि ने एक-एक कान उगाया

    जिन्होंने आगे बढ़कर निगल लिए आवाज़ों के पैर!

    मैं बढ़ता रहा और मिलता रहा

    पेड़ो से

    गुफाओं से

    शिलाओं से,

    नदियों के बहाव से,

    मैं दूर गया

    आबादी और विचारों से

    मैंने समूचे इतिहास की गोलियाँ बनाकर नदी की मछलियों को खिला दिया

    और निकल गया बहुत दूर

    ब्रह्मांड के कानों में एक गंदी-सी गाली बकता हुआ

    गया चहलक़दमी करते हुए

    अपूर्णता के सुरक्षित और सहनशील निर्वात में!

    पूर्णता के चेहरे पर

    पहली बार यह अफ़सोस झलका कि

    संवादों से पहले यह दुनिया कितनी ख़ूबसूरत थी

    पर तब तक,

    फूल आत्महत्या कर चुके थे

    पूर्णता 'पूजनीय' हो चुकी थी

    संवादों में सिर्फ़ विवाद ठहरे थे

    और मनुष्यता के पास बचाने को बस 'चेहरा' बचा था

    समय इतना तेज़ भागा कि

    वर्तमान के हाथों में अब सिर्फ़ इतिहास रह गया

    भविष्य की मृत-देह पर

    कई विजयी देश नृत्य कर रहे थे

    जिन्होंने खा लिया था सफलता-पूर्वक एक-दूसरे की जनता को

    और

    मैंने एक कविता ऐसे ढूँढ़ ली थी आख़िरकार,

    मानो एक अधिक सहनशील ग्रह मिल गया हो मुझे

    इसी आकाशगंगा में

    मैं बहुत भड़का हुआ था

    यह सच है कि मेरा लौटना अब असंभव है!

    स्रोत :
    • रचनाकार : वीरू सोनकर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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