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अपनी पसंद के रंग

apni pasand ke rang

नेहल शाह

नेहल शाह

अपनी पसंद के रंग

नेहल शाह

और अधिकनेहल शाह

    मैं सोचती रही कि

    मुझे आज़ादी है चुनने की

    रंग अपनी पसंद के।

    किंतु बाहर की दुनिया में

    ऐसा संभव हुआ,

    उनके लिए मैं भी एक रंग ही थी,

    जो बहुत साफ़ नहीं था।

    मुझे मनाही थी

    उन सपनों को देखने की

    जिनका रंग हरा था,

    लाल मुझे उनके ज्योतिषी ने

    पहनने से मना किया था,

    क्योंकि मेरा मंगल भारी था।

    उन्हें, पीला मुझ पर जँचता था,

    काला अशुभ था,

    नीला केवल वे पहन सकते थे।

    सफ़ेद पहनने से

    उन्हें दाग लगने का डर था

    मेरी अस्मत पर,

    और उन्होंने भी सफ़ेदी

    का जामा पहन रखा था,

    भला मैं बराबरी कैसे करती

    वे कहते गुलाबी बहुत नाज़ुक है मेरे लिए

    और उसे पहनने की मेरी

    उम्र जा चुकी है।

    कत्थई रंग की

    कई कहानियाँ थीं

    उनके और मेरे बीच,

    जिनके कथानक बहुत अच्छे नहीं थे,

    और एक दर्द जैसा जम गया था,

    कत्थई रंग का मेरी आँखों में।

    नारंगी बहुत प्रचलित था उनके बीच,

    मुझे रंग तो पसंद था

    किंतु वे नहीं

    सो, मैं पहन नहीं पाती।

    मैं बदरंग सी लेटी रहती

    शाम के किसी छोर से

    अपने बालों को गूँकर

    एक बेरंग, फीका सा रिबन लगा कर।

    मैं पड़ी रहती

    बैजनी रंग की उस बेला में,

    (जहाँ मुझे परहेज़ था

    दिन और रात के मिलने से)

    स्याह रात का नक़ाब ओढ़,

    अपने बिस्तर के कोने पर,

    किसी पलट कर रखी हुई अधपढ़ी खुली किताब की तरह।

    वे मेरा नाम पुकारते

    मैं सुन कर भी को प्रतिक्रिया देती,

    क्योंकि में छोड़ चुकी थी उनका

    हर एक रंग।

    स्रोत :
    • रचनाकार : नेहल शाह
    • प्रकाशन : पहली बार

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