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अपनी माँ की नींद के बदले

apni maan ki neend ke badle

रेणु कश्यप

रेणु कश्यप

अपनी माँ की नींद के बदले

रेणु कश्यप

और अधिकरेणु कश्यप

    मैं फ़ोन लगाती हूँ माँ को

    वह सोने जा रही हैं शायद,

    रोज़ की ही तरह थकावट है आवाज़ में

    मगर मैं पूछने लगती हूँ उनसे सवाल

    कि मेरे नाम क्या-क्या थे बचपन में?—

    मैंने किस-किसको किया था कितना परेशान,

    कि कब लगी थी सिर पर चोट

    और कितने दिन नहीं गई थी तब स्कूल

    बातें जो मैं सुन चुकी हूँ लाखों बार

    जो रट चुकी हैं मुझे शब्द-दर-शब्द

    कि मैं जानती हूँ माँ की आवाज़ के मोड़

    पहचानती हूँ कि कैसे मुस्कुरा रही हैं वह

    कौन-से क़िस्से पे

    मैं जानती हूँ

    उन्हें अब मेरी याद आने लगी है बेहद

    मगर मैं…

    होती जाती हूँ क्रूर और स्वार्थी

    और सुनती जाती हूँ बेसबब…

    एक घंटा बात करने के बाद

    मैं कहती हूँ, ‘आप सो जाओ माँ

    कि थकी हो दिन भर की’

    वह फ़ोन रख देती हैं

    और लेटे-लेटे फिर सोचती हैं

    अपनी बेवक़ूफ़ बेटी के बारे में

    शायद घंटों।

    उन्हें कब जाकर नींद आती है उसके बाद

    कल की बात हमारी इसी बात से शुरू होगी।

    और यूँ हर दिन

    हज़ारों सालों से लगातार

    मैंने बचाया है ख़ुद को पागल होने से

    अपनी माँ की नींद के बदले।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रेणु कश्यप
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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