अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ
apne hone ko aprakashit karta hua
एक
किताबों का स्थापत्य...
एक पन्ना हिला और भहरा कर सब अक्षर
गिर पड़े मुझे लिए-दिए
जन-समूह के
सागर में
सागर की
नमकीन लहरें मेरी आँखों को जला रही हैं
सिर धुआँ धुआँ फेन फेन छन् छप्
किताबें छपे हए आतंक-सी गिर कर उठ कर
मेरे ख़ाली कोनों-अँतरों में भर रही हैं
जगहें जो भरी-पुरी हैं उन्हें खँगाल खँगाल
सूनी कर रही हैं किताबें
मेरे घुटने मोड़ कंधे तोड़ मेरी उँगलियों समेत मेरे हाथों को
किताबें अपनी जिल्दों में बाँध बाँध दे रही हैं
मुझे पीस कर मुझे सीझ कर कौन-सी रंगत
उभारना चाहती हैं कौन-सी ख़ुशबू उड़ाना चाहती हैं?
गिरे हुए अक्षरों को बीन बीन
एक गठरी में मैंने अपने को बटोरा
और पीठ पर लाद कर चल दिया
हर दम मैं अपने को ढोता ही रहा...
दो
कहीं कोई चीज़ तड़की
रास्ते के पाँवों की छाप के बीच कहीं
कोई आकृति संबंधों के छद्म पर खड़की
एक पपड़ाए पत्ते की तरह
या मेरी रीढ़ में कविताओं, उपन्यासों, नाटकों के चुसे हुए
सन्नाटे की घरघराहट
साँसों के समय में अटक
एक पल
चुप हुई
तुकों के भीतर से निकलीं सब बेतुकें
जोड़ के भीतर दरार पाँवों में बिवाई नहीं
सिर्फ़ सुरसुरी पेड़ों की चिड़िया और धूप की
और एक बंजर में सबकी सब दुबकी हुई
भूखे-नंगे तथ्यों को पीट पीट
एक रसवंती दाढ़ी चेहरे से निकली
सपाट दगियल मैदान को ढँक ले गई
तीन
बच्चे! बच्चे! मैंने सुना मैं कह रहा था
अपनी व्यस्कता से डरा हुआ
या अपने औसतपन से परेशान,
पर वे बच्चे न नंगे थे न ख़ाली पेट
न उन्होंने खाई थी कभी मार
वे सपनों में थे
नींद के चोर-दरवाज़े से
शब्दों में आते हुए शब्दों में जाते हुए
एक नामर्द ग़ुस्से में बल खाती कवियाती पीढ़ी के हाथ में
तिनके की तरह इतराते हुए
इधर एक थोपे हुए जागरण में
कर्म का बाजा बजाते हुए
मैं
विचार की तरह छपा भाव की तरह बिका
कमाई के नाम पर
अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ...
- पुस्तक : अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ (पृष्ठ 61)
- रचनाकार : मलयज
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 1980
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