किसने तराशे, ढाले किसने?
उधर जहाँ समुद्र है
बुत की तरह ऊपर उठ रही है लहर।
ठीक जैसे गंजी खोपड़ी,
मिट्टी के नीचे जैसे सफ़ेद केंचुआ
अपनी मूँछें ठीक कर
लहरों के आगे बैठा था एक आदमी।
सफ़ेद चपातियों जैसी अपनी हथेलियों को
ऊपर-नीचे कर रहा था वह,
घोड़े के ओहार पर
हिल-डुल रहा था रीढ़ की हड्डी के बल।
नन्हीं-नन्हीं सारी-की-सारी कोशिकाएँ
फूल रही थीं भाप और हवा से
समुद्र के पानी को अपने शरीर से उछालता
तैर रहा था एक आदमी।
अपने शरीर से समुद्र में छेद करता
समुद्र का तल खोज रहा था वह,
बुत की तरह उठ रहा था ज्वार
छिपाता हुआ समुद्रतल के धब्बों को।
और आदमी हंस की तरह, केकड़े की तरह
ख़ुशी-ख़ुशी पिपहरी की तरह बजा रहा था नाक,
समुद्र तल के ऊबड़-खाबड़ से विदा लेता
बढ़ रहा था आगे अपनी दाढ़ी सँवारता।
अपनी मूँछें हिला रहा था वह
आवाज़ कर रहा था अपने पाँवों से
पहियों की तरह घूम रहा था
नग्न और केशविहीन।
जैसे तेल में तली पीठ पर
चालक की चमड़ी को
व्यस्त थी कुतरने में
विषाणुओं की भीड़।
- पुस्तक : नियति की अज्ञात इच्छाएँ (पृष्ठ 38)
- रचनाकार : निकोलाय ज़बोलोत्स्की
- प्रकाशन : प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
- संस्करण : 2016
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