अनुभव से जानना कि वसंत है
anubhaw se janna ki wasant hai
रघुवीर सहाय की याद
मैंने देखी थी एक औरत
देखने में लकड़ी की औरत लगती थी
दुनिया की कोई भी भाषा
न बोल पाती थी न समझ पाती थी
कोई कहता था नेपाल से आई है लकड़ी की औरत
मैं उससे कहता था—‘भाईसाहब’
इसका मतलब यह है कि मैं उससे कुछ भी नहीं कहता था
आज शाम एक बुज़ुर्ग चुपचाप मेरे तीन सौ साल पुराने घर में घुसा
कितना नन्हा बुज़ुर्ग
कानों में मफ़लर लगाए धुँधला कुर्ता पाजामा पहने
नाटा दुबला चुप बुज़ुर्ग
मैंने उसे लकड़ी की औरत की तरह ही पुकारा—‘भाईसाहब’
उसे लगा कि कोई उसे बुला रहा है
वह लौटकर आया दुबला नाटा नन्हा बुज़ुर्ग
उसने मुझे भी पल भर देखा था
देखा—देखकर तय न कर पाया मैंने उसे बुलाया था या नहीं
मैं भी तय नहीं कर पाया मैंने उसे बुलाया था या नहीं
वह लौटा उस पुकार पर, जिसके बारे में उसे पता था कि वह उसके लिए नहीं थी
उसे पता था कि कोई पुकार उसके लिए नहीं है
और जबकि यह हुआ था कि मैंने उसे पुकारा था
वह आश्वस्त होकर चला गया कि किसी ने उसे नहीं पुकारा है
मैंने उसे जाते हुए कुछ दूर तक देखा
नन्हा और चुप बुज़ुर्ग
काँख में दबाए वीणावादिनी की तस्वीर का टूटा हुआ फ़्रेम
जिसे सुधारकर लाएगा वह वसंत पंचमी के एक दिन पहले
बहुत नन्हा बहुत चुप बुज़ुर्ग
यों, एक बात हुई तो थी
लेकिन उसके लिए नहीं हुई थी जिसके लिए हुई थी
ऐसी पुकारें, ऐसे अनुभव, ऐसे चुप और नन्हे बुज़ुर्ग, ऐसी लकड़ी की औरतें—
जिन्हें कहा गया भाईसाहब, बाबूजी, अम्मा, आंटी, अंकल, अबे, अरे, इधर सुन
वे आए बार-बार
लेकिन उन्हें बुलाया ही नहीं गया
हम नहीं बुलाते उन्हें वे बार-बार आ जाते हैं
चुप, नन्हे, दुबले, धोती, पाजामे और गमछे वाले
वीणावादिनी के फ़्रेम को सुधारकर
वसंत पंचमी के ऐन पहले
वे अनुभव से जानते हैं
कि वसंत है
- रचनाकार : व्योमेश शुक्ल
- प्रकाशन : सबद वेब पत्रिका
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