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अन्याय को सहन

annyaye ko sahn

राजेंद्र शर्मा

राजेंद्र शर्मा

अन्याय को सहन

राजेंद्र शर्मा

और अधिकराजेंद्र शर्मा

    अन्याय को सहन करना

    हमारी आदतों में शुमार था

    हम चुप रहे

    और ग़ुलाम होते चले गए

    आदत नियति मे तब्दील हो गई

    ग़ुलामों की ज़ुबान नहीं होती

    फिर एक दिन

    हमारी जवान नस्लों की शिराओं में

    रक्तचाप बढ़ने लगा,

    बढ़ते रक्तचाप ने सदियों के बाद

    मुँह में ज़ुबान दी

    इंक़लाब ज़िंदाबाद

    ग़ुलामी की जड़ें बहुत गहरी थीं

    जिसे खोदने में

    और खोदकर नष्ट करने में

    कई पीढ़ियों को पता ही नहीं चला

    कि जवानी कब आई

    और कब चली गई

    इंक़लाब ज़िंदाबाद

    का नारा देश भर मे गूँजा

    ग़ुलामी को हारना पड़ा

    हम आज़ाद हुए

    आततायी हार कब मानता है

    बीसवीं सदी के आख़िरी दौर में

    वह अदृश्य रूप में फिर लौट आया

    इस बार वह हमारे लिए

    चकाचौंध भरा बाज़ार लाया

    हमने अपनी ज़मीनें बेचीं

    और ख़रीदे अमेरिकन खिलौने

    अब देश-देश नहीं रहा

    हम सब बाज़ार में हैं

    अपनी-अपनी मार्केटिंग कर रहे हैं

    हमारे नस्लें आत्महत्या कर रही हैं

    जो बची हैं

    वे सेक्‍स की रंगीनियों में खोई हैं

    चमचमाती रोशनियों में

    हम ब्यूटी पॉर्लर में मसाज करा रहे हैं

    ग़रज़ यह कि बेहतर से बेहतर दे दिखाई

    और अच्छे दाम में बिक सके

    हम बाज़ार में विक्रयार्थ हैं

    जिसकी ज़ुबान नहीं होती

    ख़ुश सिर्फ़ दलाल है

    मित्रो,

    हमारा यह भयावह समय

    दलालों का है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : राजेंद्र शर्मा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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