सुनो
suno
सुनो! सुनो!! सुनो!!
सब कारोबार पटरी पर लौट आया है
ख़तरों और आशंकाओं की बाबत मरम्मत शुरू हो गई है
कुछ नहीं होगा, कुछ नहीं होगा…
‘प्राइवेट ग़ुस्से’ की भी लिमिट होती है
पेट की आग, दिल का राग और रोज़ की ये भागमभाग!
कितना लगाएँ दिमाग़?
जो हो रहा है, वह होना ही था, और वह शाश्वत तो है नहीं
लेखकों लिखते रहो, और दूसरे लेखकों ‘दूसरा’ लिखते रहो
क़िस्से-कहानियों-गीत-चुटकुलों-चुटकी-चटकी में कमी नहीं होनी चाहिए
फ़िज़ा गुलज़ार रहे, शाम सब उजियार रहे
ज़िंदगी बला सही, ब्ला ब्ला ब्ला सही…
लोकतंत्र ख़ूँख़्वार है, मज़बूत सरकार है
खीस-खीझ-खीं-खीं ही जन का अख़्तियार है
साइकिल के टायर में हवा बीमार है
पंचर की दुकान पे सुलेशन की मार है
सब्ज़ी की मंडी में, गांधी के ठेले पे, हाँss… ठेले पे
सड़ते टमाटर हैं, बटखरा-देश-खड़ा, मसख़रा, खरा-खरा…
हो… हो… हो… कफ होगा, खखार दो
देश में बीमार सौ
देश की ज़ायद में दुनिया की सर्दी है, हर ओर ज़र्दी है, वर्दी है, सिर्फ़ ग़मगर्दी है
होगी न? हे हे हे… होगी न?
क्रांति होगी न?
खिस्सू ने पूछा है, क्रांति होगी न?
सच एक पर्दा है, जब भी वह फटता है
सच का हर सौदागर, जी भर के चिघरता है…
खिस्सू तो बौड़म है
पिस्सू है। नाली का-गाली का-जाली का पनेता है।
पियार की बात करो, जात औ’ जज़्बात करो।
जेठ की गर्मी में सच पर फफोले हैं
बालू की तपिश में हम कौरे हैं, फूले हैं…
जीवन—
बरखा से बर्ख़ास्त बरबस ही पूछता है
कब आएगा आषाढ़?
आग की ख़ंदक़ पर खड़े-खड़े
आचमन का मज़ाक़!
—बूझता है।
दुःख हैं बेहूदे सब, डाँट रोज़ खाते हैं
दुःख कोई ख़ास अधिक, बाक़ी सब जल जाते हैं
उधार-व्यवहार में—
वायदा-कारोबार में
जीवन की बसावट है
गर्मी में अमावट है।
स्थितियाँ सब ज़ालिम हैं
वायदे ही कामिल हैं…
प्रेम डेमोक्रेटिक है, डेमोक्रेसी फ़ाशिस्ट है
प्रेम का रिपब्लिक तो अपना ही विपक्षी है
लेक्स-रेक्स… एक्स-सेक्स, नेक्स्ट-नेक्स्ट-नेक्स्ट!
पोस्ट मॉडर्निटी के
जमघंट बौचटो ने
ह्यूमैनिटी के पोस्ट चेक पर लिक्खी कविता तीन है
साँप है तो बीन है, कितना सब ऑब्सीन है!
- रचनाकार : अखिलेश सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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