अंदर की ओर खुलता दरवाज़ा
andar ki or khulta darwaza
अच्छा नहीं लगता
भीड़ में भीड़ होकर बैठना
आत्मा की बातें कोलाहल में गुम हों
अच्छा लगता है
एकांत में अकेले रहना
ख़ुद से ही बतियाना
तारों के चेहरे चूमकर
लौटतीं, दिल दरिया की लहरें
अच्छा लगता
बीत चुके के पहलू में बैठना
पुराने दिन याद करना
किसी भी बात पर
मन ही मन मुस्कुराना
आँहें भरना
जीवन नाटक
मटमैले दृश्य
अभिनय को भी मन न करता
ठहरे पानी की बदबू
पानी बहता भीतर देह में
अंग-अंग है वेग पसरता
अच्छा नहीं लगता
नपुंसक भीड़ में
उसी का हिस्सा हो रहना
उकाबी उड़ान जैसे लोग कहाँ गए!
मेरी रूह उनके संग भीगे
उनकी संगत में रहना
यही फक्कड़ों का कहना।
- पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 686)
- संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2014
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