अनाज के दाने का वज़न जानते हैं हम
anaj ke dane ka wazan jante hain hum
संतोष कुमार चतुर्वेदी
Santosh Kumar Chaturvedi
अनाज के दाने का वज़न जानते हैं हम
anaj ke dane ka wazan jante hain hum
Santosh Kumar Chaturvedi
संतोष कुमार चतुर्वेदी
और अधिकसंतोष कुमार चतुर्वेदी
यादों की नदी
हमेशा अपनी लहरों में पीछे बहा करती है
इन लहरों में बीत गए कुछ उदास से हमारे दिन हुआ करते थे
इन दिनों को अपने दोस्तों की हँसी से यादगार बनाने की भरपूर कोशिश की हमने
दरअसल, यह बिखरे हुए उन तिनकों की सामूहिक हँसी होती
जो हर साँझ को गुलज़ार हो जाती
इस साँझ में हम सबकी तमाम लंतरानियाँ होतीं
और इसकी ख़ासियत यह होती
कि किसी बात पर हमारा ग़ुस्सा इतना परवान नहीं चढ़ता
कि हम अपना आपा ही खो बैठें
कि सब कुछ तहस-नहस कर बैठे
इसकी एक शर्त यह भी होती
कि लंतरानियों में शामिल गोंइयाँ किसी की बात का भी बुरा नहीं मानेंगे
और जो भी बहस होगी दोस्ताना अंदाज़ वाली
उसमें सबको छूट होगी कि जितना चाहें ढील दे अपने पतंग की डोर
आसमान की सैर सब साथ-साथ करेंगे
और सब ज़मीन पर रहेंगे
हमारी लड़ाइयाँ भी कुछ अलग क़िस्म की
हमारे हर झगड़े में बातचीत की नमी होती
जिसे थोड़ी-सी हवा और थोड़ा-सा पानी कुछ समय बाद उर्वर बना देता
और दोस्ती के अंकुर फिर निकल आते पृथ्वी के धरातल को भेद कर
तो यह हमारा अपना संविधान था मिल-जुलकर वाक़ई सर्वसम्मति से बनाया हुआ
जिसमें तमाम प्रावधान तमाम धाराएँ और तमाम उपधाराएँ थीं परिवर्तनीय
जिसमें हर रात की एक सुबह सुनिश्चित थी
जिसमें सबके लिए पूरी-पूरी धूप तय थी
और बादलों की बारिश पर किसी का पट्टा नहीं होना था
तो जो था उसमें सबके बिल्कुल अपने-अपने शब्द थे
हमारी सहमतियों में प्रायः सबकी सहमतियाँ थीं, लेकिन साथ ही
असहमतियों के लिए भी पूरम्पूर जगह थी यहाँ पर
और जिसकी अवमानना करना ऐसा गुनाह नहीं
कि एक आदमी साँस तक न ले सके
डर के मारे अपनी बात तक न कह सके
और उस पर अवमानना का इल्ज़ाम लगाकर
न्याय के नाम पर अमानवीय तरीक़े से मार डाला जाए
लगातार बदलता समय ही जीवन है
जैसे कि शब्दों की ज़िंदगी ज़माने के साथ
उनके बदलते अर्थों और क़दमताल करते मतलबों में महफ़ूज़ रहती है
जब नींद में होते हम
तभी कहीं मुर्गा सुबह की मुनादी करता
और यह हमारे लिए रोज़ की तरह रोशनी का शगुन होता
उन्मुक्त पंखों से उड़ान भरने के अभ्यास में ज़ोर-शोर से जब जुटी होती सुबह
तब एक-एक कर सारे पक्षी निकल जाते उड़ान पर
घोंसला उत्साहित हो हाथ हिला विदा करता हमें
रोज़मर्रा मारे जाने के तमाम संभावित ख़तरों के बावजूद
हमारी आँखें आश्वस्त करतीं घोंसले को
अच्छा तो शाम ढले मिलेंगे हम एक बार फिर
और इसमें कोई फ़रेब, कोई ढोंग नहीं
क्योंकि बातों पर मर-मिटना हमारी वल्दियत थी
फिर-फिर जी उठना हमारी आदतों में शुमार
और घोर निराशाओं में भी हताश न होने के सबक़ हमें
रट्टा मार कर बचपन में ही याद कराए गए थे
हाथ पकड़ कर बिला नाग़ा लिखाए गए थे इमले ऐसे
जो आज भी विचार के एक एक रेशे में गुँथ गया है ऐसे
जैसे देह से प्राण और आग से ताप
यह आपके लिए एक यूटोपिया हो सकता है
लेकिन यह भी एक समय हुआ करता था
जिसमें शेयर बाज़ार के बिना भी जीने के उपागम थे
जिसमें एक मड़ई में पूरी ज़िंदगी गुज़ार देने का जज़्बा होता था
और जिसमें हमारी यह राम मड़ईया हमेशा गह-गह करती रहती थी
जिसमें एक गुल्लक रोज़-ब-रोज़ अपने ख़ाली होकर
बार-बार हमारी अपेक्षाएँ पूरी करता
जिसमें अपने बुझे चूल्हे के लिए अंगार माँगने वाली औरत
ख़ाली हाथ वापस नहीं लौटी कभी हमारे दर से
अब फ़साना लगने वाली इस वास्तविक कहानी में
तब गाड़ीवान ही बैल बनकर खींचता
बेतकल्लुफ़ी से पूरी की पूरी गाड़ी
और यह जहाँ से भी जाती अपने पीछे एक लीक छोड़ जाती
शायद किसी और को इस रास्ते की ज़रूरत पड़े
हमारे पास बेहिसाब कामों की फ़ेहरिस्त थी
इन कामों में पास-पड़ोस का काम अपने काम की तरह शामिल हुआ करता
और प्राथमिकता में रहे हमारे अपने व्यक्तिगत काम
कई बार लगातार पीछे खिसकते जाते
पड़ोसियों के काम दौड़े-दौड़े पहले चले आते
जिसे जुट कर फ़ौरन ख़ुशी-ख़ुशी हम करते
तब भी झल्लाना बिल्कुल मना था
और अगर ऐसी ज़रूरत आन ही पड़ी तो
एकांत में जाकर अपने पर ही निःसंकोच झल्लाने की छूट थी
इस बात का ध्यान रखते हुए कि किसी को कुछ भी पता न चलने पाए
आँसू की एक बूँद भी कहीं न दिखने पाए
क्योंकि यह एक ऐसा अविभाजित परिवार था जिसमें तमाम झोल थे
फिर भी जो देश की तरह ही चल रहा था
जिसमें सबके कोई न कोई अपनी मर्ज़ी से लिए गए दायित्व थे
सबकी बराबर की ज़िम्मेदारियों से चलता था यह कुनबा
जिसमें न तो कोई इतना ऊँचा था कि उसे छू पाना मुश्किल
न ही इतना नीचा कि उससे मिलने की सोच पर ही उबकाई आए
यानी तब गाँछ की एक गझिन छाँव ज़रूर हुआ करती
जिसमें हम छहाँ सकें वक़्त-ज़रूरत पर
एक अदृश्य से बंधन से हम सब बँधे थे
हमारे लिए भी दिन-रात के कुल चौबीस घंटे ही मुक़र्रर थे
हालाँकि इसमें एक भी पल कहीं आराम का नहीं था
और तो और हमारे हिस्से में कोई इतवार तक नहीं था
क्योंकि हमारी ही प्रजाति का एक मुखिया ख़ासतौर पर हमें सूक्ति की तरह
यह नारा दे चुका था कि ‘आराम हराम है’
काम की मारक थकान के बावजूद हम सोचते
काश हमारा यह दिन कुछ और बड़ा हो जाता
और रातें कुछ और छोटी हो जातीं
सुकून के कुछ पल हमारे पास भी होते
जिसमें थोड़ी मटरगस्ती हम भी करते
और जैसे ही हम यह सब सोचते
यह सब उन्हें पता चल जाता जो हमारे लिए अदृश्य थे
पता नहीं वे देवता थे या दानव या मानव
हम पर विलासिता का इल्ज़ाम लगाया जाता और गिरफ़्तार कर लिया जाता
हमें अदालतों में अपराधी की तरह पेश किया जाता
लोग आँखें फाड़कर देखते और चटखारे लेकर कहते कि
अच्छा तो यही है वह देशद्रोही
जिसके बारे में आजकल बहुत चर्चा है
वे न तो हमें जानते, न हमारे ऊपर मढ़े गए इल्ज़ामों से तनिक भी वाक़िफ़ होते
फिर भी आगे जोड़ते हुए वे अपनी बात के क्रम में कहते
यह तो बहुत शातिर है, इसे कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए
फिर कभी ख़त्म न होने वाली तारीख़ों पर तारीख़ें पड़तीं
सच की तरह दिखते झूठमूठ की कर्मकांडीय बहसें होतीं
अंततः हज़ार पेजी तर्कसंगत से लगते फ़ैसले में
हमें तुरत-फुरत फाँसी की सज़ा सुनाई जाती
जिसके ख़िलाफ़ बोलना न्याय के ख़िलाफ़ बोलना होता
और फाँसी पर चुपचाप लटक जाना क़ानून का सम्मान
हमारी रहम की याचिका हर जगह से ख़ारिज हो जाती
और कहीं पर कोई उम्मीद नहीं दिखती
अब आप ही बताइए
हम कैसे करें उसका आदर जिसे हमारे जीवन से ही बैर हो
हम तो उस नियति से ही हमेशा मुठभेड़ करते आए
जिसे अक्सर अमिट और अपरिवर्तनीय बताया जाता
हमने हर अन्याय के विरोध में आवाज़ उठाने की हिमाक़त की
भले ही हम मुठ्ठी भर थे
और वे इस पूरे दुनिया-जहान में फैले हुए
हमारे जीवन की इबारतें तो
उस पसीने की सियाही से लिखी गई थीं
जिसे बिना किसी दिक़्क़त के दूर से ही साफ़-साफ़ पढ़ा जा सकता था
और जिसमें अटकने-भटकने की कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं थी
पसीना ही वह दस्तावेज़ था हमारे पास जो सबसे अधिक सुरक्षित था
जिसके पुराने पड़ने, सड़ने-गलने की तनिक भी गुंजाइश नहीं थी
लेकिन सरकार को कागज़ी दस्तावेज़ों पर अधिक यक़ीन होता था
पसीने की भाषा उसके लिए अपठनीय लिपि थी
और इस बिना पर हम पूरी तरह ऐसे नामज़द अवांछित
जिस पर भरोसा करना सरकार-ए-हुजूर का अपने साथ विश्वासघात करना होता
हमारे प्रधानमंत्री के बार-बार आश्वासनों के बावजूद
कि दोषियों को किसी क़ीमत पर बख़्शा नहीं जाएगा
हमारे शहर में किसी वक़्त कहीं भी कोई दंगा हो सकता था
किसी वक़्त कहीं भी कोई धमाका हो सकता था
किसी वक़्त राह चलते या रेल या बस में यात्रा करते हमारे चिथड़े उड़ सकते थे
और आँसू पोछने के नाम पर हमारे परिजनों को
मुआवज़े का एक ऐसा लोला थमाया जा सकता था
जिसमें उलझ कर रह जाते परिवार वाले
और फिर हमें भूल जाते अतीत की तरह हमारे परिजन ही
फिर भी कोई विकल्प नहीं हमारे पास
हमें रोज़ कुआँ खोदने और रोज़ पानी पीने वाला सारा सरंजाम करना था
हमारा शहर आज के सरकारी रिकार्डों में एक संवेदनशील शहर था
क्योंकि मिथकों में हमारे शहर का संबंध हमारे धर्म के एक अवतार के जन्मस्थल से था
और यह हमारा यह तथाकथित सहिष्णु धर्म
काफ़िरों को एक पल के लिए बर्दाश्त नहीं कर पाता था
जबकि ईश्वर की पोल खुल चुकी थी पूरी तरह
कि अब वह बहुत-बहुत दयनीय और कमज़ोर हो गया था
इतना कमज़ोर कि अगर उसकी मूर्ति के पास कोई आतंकी बम रख देता
जिससे उसका टुकड़े-टुकड़े होना सुनिश्चित
तो भी वह उसे हटा पाने में अक्षम था
हरदम अपनी अकड़ में जकड़ा रहने वाला
हमारी रक्षा भला कैसे कर पाता
ताज्जुब की बात तो यह कि सारे किंतु-परंतु के बावजूद
वह बचा लेता अपना समूचा ईश्वरत्व
और हम मर कर भी नहीं बचा पाते थोड़ी-सी मनुष्यता
क्योंकि आदमजात ख़ून तभी शांत पड़ता था
जब बदले में उतना ही ख़ून बह जाए प्रतिद्वंद्वी का
आस्था को तर्क से ताक़तवर बताने वाले धर्म की
एक समानांतर सत्ता हुआ करती हमारे देश में
जिसे चुनौती दे पाना नामुमकिन
जिसके ठेकेदार वे स्वघोषित शंकराचार्य जो अदालतों में रोज़ मुक़दमे लड़ते
जिनकी सभी अँगुलियाँ बहुमूल्य रत्नों से जड़ित अँगूठियों से मंडित
वे बेहिसाब गोलीबारी करते, महँगी लक्ज़री गाड़ियों पर लाल-बत्ती लगाकर चलने के लिए
सरकारी अधिकारियों से होड़ करते, लड़ते-झगड़ते
वे हमसे फल की इच्छा किए बिना काम करने को कहते
और अपने बेहिसाब इच्छाओं की भरपाई में मगन रहते
इस धर्म की ख़ासियत ही यह थी कि तमाम बलात्कारों, तमाम कालाबाज़ारियों
तमाम लूटपाट, तमाम भ्रष्टाचारों के बावजूद
लोगों की आस्था लगातार इसमें उमड़ती ही जा रही थी
चढ़ावे बेहिसाब बढ़ते जा रहे थे
इधर भूख से पटपटा कर मरने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही थी
जिसमें कभी हम शामिल होते
कभी हमारे ही परिवार का कोई अपना बिल्कुल सगा
कभी हमारा ही वह जानी दुश्मन जो कभी हमारा लंगोटिया यार हुआ करता
जिसे शंकराचार्य हमारी नियति बताते
इन दिनों धर्म-कर्म टी.वी. चैनलों का अच्छा ख़ासा व्यापार बन चुका था
और तमाम तरकीबों के बावजूद
हम लोगों को कुछ भी समझा पाने में पूरे के पूरे निकम्मे साबित होते
धर्म पर लोंगों की आस्था इतनी ज़बरदस्त होती कि
फ़िज़ूल बातों पर भी उनका पुख़्ता यक़ीन उमड़ आता
और गाय की पूँछ पकड़ बैतरनी पार करने का भरोसा मरते दम तलक बना रहता
हम बहुसंख्यकों में वे अल्पसंख्यक हुआ करते थे
जिसका ज़िक्र न तो किसी अनुसूची में था
न ही आरक्षण की किसी कथा-कहानी में
हमारी लड़ाई में हमारे साथ केवल हमीं होते अकेले
दरअसल, हम ऐसे अल्पसंख्यक थे जो अपनों के बीच भी घोर अविश्वसनीय
और अपनी जाति-बिरादरी के ख़िलाफ़ ही अक्सर बोलते रहने वाले
समय-असमय बिगुल बजा देने वाले विद्रोही थे
जिनका उन्मूलन ही सबसे बेहतर इलाज
हालाँकि उनके ही शब्दों में कहें तो
अपनी सोच को बेहतर साबित करने के लिए हम एक से एक ऐसे अकाट्य तर्क देते
जिसे सुनकर सबको ताज्जुब होता
कि इतना इंटेलीजेंट होने के बावजूद कैसे बहक गया राह से
निकल गया हाथ से
यह तो किसी विधर्मी की गहरी साज़िश लगती है
या फिर अपने ही किसी देवी देवता की घोर नाराज़गी
वैसे हम उनका भी विश्वास अर्जित कर पाने में प्रायः असफल रहते
जिनके हक़ की बातें अक्सर खुलेआम किया करते
जिनके साथ सदियों की घृणा को मिटाकर उठने बैठने, जीने-मरने
साथ खाने और संबंध बनाने तक की कविताएँ रचते रहते
कुल मिला कर वहाँ हमें भेदिया समझा जाता
जबकि अपनों के बीच हम गद्दार थे
हम अतीत और भविष्य के बीच डोलते उस वर्तमान की तरह होते
जिसके अस्तित्व के बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता
केवल महसूस किया जा सकता है
हम लगातार दोलन करते उस पेंडुलम जैसे थे
जो समय तो सही बताता
लेकिन जिसके बारे में सब के ज़ेहन में एक शक लगातार बना रहता
आख़िर यह किस ओर झुका हुआ है
और यह पेंडुलम समय बताते हुए भी टिक नहीं पाता एक भी पल
जैसे बेदख़ल होने के लिए अभिशप्त हर समय हर जगह
यह वह समय था जब जहाँ कहीं जाओ
शिकारी हर जगह टोह में तैयार बैठे मिल जाते
वे तपस्वी भेष में भभूत लगाए हो सकते थे
नैतिक उपदेश बाँचते हुए ईश्वरीय संदेश देते हुए
वे याचक के रूप में आँखों में आँसू भरे दोनों हाथ फैलाए
आपके सामने बेवश और लाचार दिखने के सारे सरंजाम समेत हो सकते थे
जो अपनी लड़की की शादी में दहेज के लिए
या जो अपने बच्चे के गंभीर बीमारी के इलाज के लिए पैसा जुटाने में
न जाने कब से न जाने कब तक के लिए लगे हुए थे
दरअसल, हम जैसे अपरिचितों को फाँसने का यह उनका नुस्ख़ा था आज़माया हुआ
वे एक गाड़ी के ड्राइवर या कंडक्टर हो सकते थे
जो हमें घर पहुँचाने का आश्वासन देकर अपनी गाड़ी में ससम्मान बिठाकर
किसी वक़्त भी हमें अपने चंगुल में फँसा सकते थे
और अकेला पाकर हमें लूट सकते थे
हमारी हत्या कर लाश को ठिकाने लगा सकते थे ऐसे
कि तीनों लोक चौदहों भुवन में खोजने पर भी पता न चल पाए कोई
वे राज़नीतिज्ञ हो सकते थे जो आपको हर चुनाव के वक़्त
रिरियाते, मिमियाते और बच्चों जैसे हमें पोल्हाते दिख सकते थे
हम उनकी जीत के लिए ख़ून-पसीना एक करते
जुलूस में जाते, नारे लगाते
लेकिन अपनी आदत से परेशान वे हर जीत के बाद ग़ायब हो जाते बेरहमी से
जैसे जनता कोई संक्रामक बीमारी हो
और अब उनकी चिंताएँ देश की चिंता में बदल जातीं
यानी हर जगह हम तरबूजे थे
और शिकारी वह चाकू
जो जब और जहाँ से भी हम पर गिरता
हमें अकथनीय अकल्पनीय तकलीफ़ देता
बस हमें ही उजाड़ने की तरकीब रचता
इस तरह पुष्पित-पल्लवित होता रहता दुनिया का सबसे बड़ा यह लोकतंत्र
और हारते जाते हमीं लगातार बार-बार
शिकारियों की एक गोली से हमारी देह
रेलवे क्रासिंग के पास बने वे वीरान घर हो जाती
जिन पर मोटे-मोटे डरावने हर्फ़ों में लिखा होता—परित्यक्त
और हमारी आत्मा उसी वक़्त ख़ानाबदोश बन जाती
जैसे कि सदियों से चला आ रहा हमारा यही मुक़र्रर पता हो
जिस पर जाने के लिए कई सँकरी गलियों
और कई तीखे मोड़ों से गुज़रना होता
और भद्र व्यक्ति को बारंबार अपनी नाक से मुआफ़ी माँगनी पड़ती
और चेहरे को रूमाल से ढँकना पड़ता फ़ौरन
हमारे पते पर पहुँच पाते हम जैसे जेहादी ही
बाक़ियों के लिए यह दुर्गम दुरूह ऐसी जगह थी
जिसका होना आमतौर पर शहर के लिए एक दाग़ एक धब्बा सरीखा होता
और जिसको गिराने के लिए शहर के बुलडोजर अपने सुरक्षाकर्मियों समेत
अक्सर वहीं गरजा करते बरसा करते
वहीं के घरों को चुटकी बजाते मलबे में तब्दील किया करते
हम समझने में नाकामयाब रहते हमेशा
कि बार-बार ऐसी घानी हमीं पर क्यों फिरती है आख़िर
हमीं को दोषी ठहराया जाता क्यों बार-बार
हमारे ही ऊपर से पनाला क्यों बहाया जाता हर बार
हमीं क्यों ऐसे जिससे कोई मुरव्वत संभव ही नहीं
कहीं भी तो सुरक्षित नहीं हम
हमारा पता हमारा हुलिया
पूरा-पूरा दर्ज है उनके खाता-बही में
उनके टोही उपग्रह हमारे एक-एक क़दम का हर वक़्त मानचित्र खींचते
और वे हमारी अहेर में जुटे रहते हमारा ख़ात्मा किए जाने तक
हम किसी घराने से नहीं बल्कि उस घर से थे
जहाँ ज़मीन पर चिचिरी खींचने तक से हमें रोका जाता लड़कपन से ही
तब हम भला किसी नरसंहार में शामिल कैसे हो सकते थे
वैसे हमें तो उनके आसमान का चाँद भी उतना ही दाग़दार दिखता था
जितना वे हमारे आसमान के चाँद के दाग़दार होने के बारे में दावे करते
अब उन्होंने हमारे बादलों तक को रेहन पर रख लिया था
उनकी संगत में ये अब उदास चेहरे वाले वे बादल थे
जिनसे बरसाती चमक पूरी तरह ग़ायब दिखती
ये बादल चाहकर भी हँस नहीं सकते थे
जिनके होने पर भी अब किसी को न तो छाँव मिलती
न ही कोई फुहार
यह हमारे समय का वह त्रासद दौर था
जिसमें तैयार फ़सलों के दाने
अगली फ़सलों के बीजों के तौर पर नहीं रखे जा सकते थे
और जिसमें बात-बात पर बाज़ार की राह देखनी पड़ती
अन्यथा की स्थिति में तड़प-तड़प कर मरना तो तय ही था हमारे लिए
लगातार सिकुड़ते जाने के बावजूद
हमारे ग्लेशियरों से बहता रहा हर मौसम में पानी
जिसे जगह-जगह गेंड कर वे बिजली बनाते
तब भी हमारे घरों में जलने को अभिशप्त थी ढिबरी
जिसकी रोशनी में पढ़ी हमने जीवन की अनगिन किताबें
जिसकी रोशनी से सीखे हमने तमाम सबक़
हमारे ग्लेशियरों ने नदियों से होते हुए जीवों जानवरों और पेड़-पौधों तक की
प्यास बुझाई सदियों की,
फ़सलें उगाईं दुनिया की भूख के बरअक्स
हमारे पानी के लिए हमेशा आतुर रहा समुद्र
जनमानस में यह ग़लत धारणा फैलाए
कि इतना बड़ा वह कि
उसे ज़रूरत नहीं किसी की कोई
यहाँ समुद्र में भी कहाँ रह पाते हम चैन से
समुद्र के खारेपन में तब्दील हो हम नमक में बदलते गए
और दुनिया को स्वाद से सींचते रहे
सहेजते रहे हर जगह
हर पोटली में उम्मीद के बीज
फिर भी हमारे हाथ ख़ाली के ख़ाली
जिसके बारे में वे आप्त वचन जैसे कहते रहते
ख़ाली हाथ आया तू बंदे, ख़ाली हाथ जाएगा
और सेंकते रहे अपने हाथ हर संभव आँच पर
अपने घरों तक की राहें रोके जाने के बावजूद हम
इन ख़ाली हाथों से ही बनाते रहे
दुर्गम से दुर्गमतम जगहों के घरों तक पहुँचाने वाली सड़कें
अपने खेतों की नालियाँ रोके जाने के बावजूद
पहुँचाते रहे तमाम खेतों की नालियों में पानी
सींचते रहे तमाम खेतों को
हाड़ कँपा देने वाली ठंड में भी
बेघर होने के बावजूद
अपने इन्हीं हाथों से हम खड़ी करते रहे दिन-रात तमाम इमारतें
अपने घृणा का पात्र बनने के बावजूद
हम रोपते रहे अपने तमाम गिरस्थों के खेतों में प्यार के बेहन
हम जागते रहे दिन-रात अनवरत
और जुटे रहे लगातार लोगों की नींद के लिए
इधर हम अपनी ख़ाली आँखों में भी जगे सपने लिए हुए
जिनमें हमारे समय का नमक था
और इस नमक में जीवन था
स्मृतियों को मिटा देने की तमाम कोशिशों के बीच भी
हमारे पास नदी थी उन गहरी यादों की
जिसमें हमारी नाव
कभी धारा के साथ
तो कभी धारा के ख़िलाफ़ बहती रहती थी बेख़ौफ़
इन नावों को डूबने से बचा लेती थीं हमेशा हमारी शामें
जो अक्सर दादी की कहानियों
और माँ की लोरियों से भरी बड़ी मनोरम होतीं
स्मृतियों को और ख़ुशगवार बनाने के
दारोमदार को निभाने की समूची ज़िम्मेदारी
बिना किसी हिचक के हमीं को निभानी थी
भविष्य चाहे जितना सुंदर हो
अपने प्रांगण में घूमने-टहलने की अनुमति नहीं देता कभी किसी को
अतीत हमारी दुनिया का वह पुरातन भविष्य
जिसमें होते हमारे वे दिन
जिसके फूलों के पास के पास मकरंद था
और इस मकरंद पर फ़िदा तितलियाँ थीं
उड़ती-फिरती रंग-बिरंगी
हमारे इसी पतझड़ दिन में महुए की भीनी-भीनी गंध थी
खटास को मीठेपन में तब्दील करने की
जद्दोजहद में जुटे आम के टिकोढ़े थे
और कभी भी पोस न मानने वाली
उदास दिनों में भी सुरीले गीत गाने वाली कोयलें थीं
हम उन दिनों की रातें हैं
जिसकी एक सुबह सुनिश्चित
ख़ुशियों के लबरेज़ खिलखिलाती सुबह
अनाज के दानों से भरी सुबह
तुम क्या जानोगे एक दाने की अहमियत
एक दाने के खिसक जाने पर
तुम्हारा तराज़ू भी टस से मस नहीं होगा
लेकिन हम तो वे किसान हैं
जो अनाज के एक-एक दाने को उगाने का मर्म जानते हैं
जो अनाज के एक-एक दाने का वज़न जानते हैं
एक-एक दाने का ठीक-ठीक पता पहचानते हैं
जो चिड़ियों से बेधड़क उनकी भाषा में बातें कर सकते हैं
जो जानवरों तक की भावनाएँ बख़ूबी समझते हैं
दिन-रात खटते, बोझ ढोते
हम वे मज़दूर हैं
जो एक-एक ईंट चुने जाने के साक्षी हैं
जिसके पसीने से सना है वह सीमेंट
जिस पर खड़ी है ऊँची-ऊँची इमारतें
हम वे कामगार हैं
जिसे एक-एक दिन के काम के लिए जद्दोजहद करनी है
हम वे बुनकर जो बिन थके लगे हुए अपने करघे पर
और ख़ुद नंगे रह कर भी सबके लिए कपड़े बुनते हुए
हम दिन-रात उच्चरित होते वे श्लोक थे
जिसके मतलब वे आचार्य भी नहीं जानते
जिन्हें बड़ा गुमान हुआ करता था अपने इन क्लिष्ट श्लोकों की संपदा पर
हम वे कथावाचक जो घूम-घूम कर बाँचते फिरते
रोचक अंदाज़ में अपने ही ज़ख़्मों की अध्यायवार गाथाएँ
जिसे सुनते लोग तल्लीन होकर पौराणिक कथाओं की तरह
और बीच-बीच में श्रद्धा के वशीभूत हो बराबर तालियाँ बजाते
जैसे कि यह ताली अब उनका यह तकिया कलाम बन गई हो
जो हर वाक्य में अनायास ही शामिल हो जाती अपनी बदसूरती में भी
और जिसके बिना रह पाना अब असंभव उनका
दुनिया भर की
सारी विभीषिकाएँ हमारे लिए
सारे भूकंप, सारे ज्वालामुखी, सारे तूफ़ान हमारे लिए
क्योंकि इसके हम आदी थे
और वे नाज़ुक इतने कि धूप में पिघल जाते
ठंड में जमकर बर्फ़ बन जाते थे
इसीलिए मोर्चे पर तैनात किया जाता सिर्फ़ हमें ही
क्योंकि हमारे बीत जाने पर भी
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता उनकी सेहत पर
जिसके पास कोई अतीत ही नहीं
उसे बहुत डर लगता है उनके अतीत से
जो तमाम दिक़्क़तों के बावजूद साक्षी हैं एक समृद्ध अतीत के
सदियों से चलते चले आ रहे हैं अपनी राह पर
और जो तमाम मुसीबतों के बावजूद
तमाम प्रताड़नाएँ झेलने के बावजूद
देखते रहते हैं लगातार सपने
सच होने वाले
जो बार-बार मरने के बावजूद जी उठते
जो बार-बार गिरने के बावजूद अपने-आप ही उठ खड़े होते
और बार-बार फिर से जुट जाते
हार गई बाज़ी जीतने के मंसूबे से
आपसे मुख़ातिब हम वही हैं
जो इतिहास से एक लंबे अरसे तक ग़ायब रहे
लेकिन आते रहे बार-बार कवियों की कविताओं में
उमड़ते-घुमड़ते रहे जीवन की कहानियों में
हम वही हैं जो अपना रास्ता बनाकर बढ़ते रहे हमेशा आगे
ठीक से पहचान लीजिए हम वही हैं
ठीक से देख लीजिए हम वही हैं
ठीक से लिख लीजिए हम वही हैं
कभी भी ख़त्म न होने वाले
- रचनाकार : संतोष कुमार चतुर्वेदी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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