हरियाई चुंदरी ताने खेत-खलिहान,
नाचते से गुज़र जाते
सफ़ेद वृक्षों की तरतीबवार कतार।
अमृतसर क़रीब आ रहा है...
शेखपुरा, नौशेरा, बटाला, धारीवाल, तलवंडी।
...कुछ सुने-सुने से लगते ये नाम
जाने-पहचाने से
एकाएक कई किताबों के पन्ने सामने आ जाते हैं
पृष्ठों के परिच्छेद
शब्दों की दृश्यावली।
स्मृतियों में भयावहता उभरती है
बादलों के घेरे में पहाड़ की तरह।
शाहनी ट्रक पर सवार है
शेरा गंडासे को छुपाता हुआ...
सिरों पर गट्ठर लाद इधर–उधर छुपते-छुपाते लोगों का हुजूम...
रंगमंच के तनाव भरे दृश्य की बदहवाश भाग दौड़।
तलवारें हवा में लहराती चमकती...
सफ़ेद दाढ़ी में लाल लहू की बूँदें...
थाह ले-ले चलने वाले
एकदम से भागते हैं तेज क़दमों से।
किसी लड़की की बदहवाश चीख़ें
कुचले जिस्म पर कोई वस्त्र नहीं
...
रेल अमृतसर की ओर भाग रही है
भीष्म साहनी रेल का पीछा करते हुए...
मंटों के माथे पर ख़ून से लिथरी मिट्टी...
टोबा टेक सिंह ठीक उनके सामने
‘ओपड़ी गुड़ गुड़िया दी’ बुदबुदा रहा है,
नहीं मालूम उसका वतन कौन-सा...
न मंटो को मालूम।
....
भव्य दुधिया रोशनी में अंगड़ाई लेता नेशनल हाईवे।
गाड़ियों तेज गति से भागती हुई।
मैं नींद के उनींदे से बाहर आ
चाँद को देखता हूँ...मुस्कुराता चाँद
अपनी पूर्ण चमक और भव्यता के साथ।
इस वक़्त चाँद से शीतलता आ रही है
उन दिनों चाँद से लहू टपकता था।
लाल रक्त में डूबा चाँद
भयावह चाँदनी
तलवार और कटारों के आगे भागते जिस्म।
महज़ धार्मिक पहचानें थी इंसानी जिस्म की
और कोई पहचान नहीं!
कुछ भागते पदचाप
कुछ भयावह चीख़ें
कुछ कराहते जिस्म
कुछ रोते पिता
कुछ ह्रदय वेधी चीत्कार करती माँएं...
दृश्यों की भागदौड़ में
एकाएक कृष्णा सोबती भव्य चेहरे के साथ
आकार ग्रहण करती हैं
और मैं ‘ज़िंदगीनामा’ की पृष्ठों में गुम होता चला जाता हूँ...
इस तरह ‘अमृतसर आ गया है’...
- रचनाकार : मनोज मल्हार
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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