सूखा
सूखा खदेड़ रहा है परदेश
और वहाँ से भी खदेड़े जा रहे हैं वापस
कहीं कोई जगह है जहाँ पल भर को
ठहर कर ये साँस साध सकें
ये वतन की याद में वापस नहीं
लौट रहे हैं
धकेल कर वापस भेजे गए हैं
जैसे सूखी धरती पर
बगोड़ दिए जाते हैं अन्ना1 ढोर
एक हठ यहाँ भी है
जेठ का मध्य है यह
अपने चारों ओर बह रही
आग के बीच
किसी हठयोगी-सा बैठा
पंचाग्नि ताप रहा है
यह टुनटुनिया पहाड़
आज कुछ समय से पहले ही
लौट रही हैं
दुरेडी गाँव की औरतें
छँहा रही है नीम के नीचे
शहर से कंडा, लकड़ी, सब्ज़ी
बेचकर लौटी हैं ये
एक हठ यहाँ भी है जो
पहाड़-सा स्थिर नहीं है
ये पैरों से चलता है
और बोलता है आँखों से
फिर से आशंका में डूबा असाढ़ है
इनकी कठेठ पड़ गई छाती में भी कहीं न कहीं धुकधुका रहा है
एक भय।
मेरा और कविता का दुख
इधर काफ़ी दिनों से
यात्रा पर रहा मैं
और जगह-जगह ख़ूब भटका
जैसे पड़ोसी को बच्चा तका
ईंधन बटोरने को गाँवों में
चली जाती हैं माएँ
मैं भी कुछ दिनों के लिए
अपने खेतों को तका गया था
अपनी कविता
अब लौटा हूँ तो मेरे खेतों की
उदासी फैली पड़ी है इसमें
उनकी मिट्टी से सना है इसका चेहरा
कुछ दिन के लिए ही
कितना अलग-अलग रहा
मेरा और मेरी कविता का दुःख
दिल्ली का ठाठ
न दाना न पानी
ठेघत चलै जवानी
अट्ठारह सौ सत्तावन से
दो हज़ार आठ
हमारी थूनी पर
दिल्ली का ठाठ
डाका
कोई लटक गया फाँसी
किसी ने छोड़ दिया देश
हालात बग़ल में पड़े डाके से हैं
जहाँ घरों से ही आ गए... आ गए...
चिल्ला रहे हैं सब लोग
कहीं खोजता होगा क्या
शहनाई यहाँ अब सपनों में भी नहीं बजती है
स्वप्न में भी लड़कियों को नहीं दिखते हैं
पीले हाथ
शहनाई सारंगी सब खूँटियों पर टाँग
कलाकार क्रेशर पर गिट्टिया तोड़ रहे हैं
गिट्टी तोड़ता एक सारंगी कलाकार
क्या यहाँ भी सारंगी के सुरों को कहीं खोजता होगा?
ऋतु पर्व
घोर दुर्भिक्ष मे परती पड़े
खेतों के बग़ल चू रहा है महुवा
अकाल की आँत में
चैत का ऋतु पर्व है यह
- रचनाकार : केशव तिवारी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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