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ऐसी बहीं सनकी आँधियाँ

aisi bahin sanki andhiyan

पद्मजा घोरपड़े

पद्मजा घोरपड़े

ऐसी बहीं सनकी आँधियाँ

पद्मजा घोरपड़े

ऐसी बहीं

सनकी आँधियाँ

कि

पुर्ज़ा-पुर्ज़ा

ढीला हो गया!

आँखों में

जम गए

ऐसे मलबे मृगजलों के

कि फिर कभी

ज़िंदगी

संपूर्ण-समूची

नज़र ही नहीं आई!

बदहवास हाथों में

मकड़ियों के ऐसे जाल

बिछ गए कि

हर चेहरा

अंजुलि में आकर

यायावर बन गया

अपनी पहचान खोकर!

श्मशानी दिन

और तहख़ानी रातों में

घूमता ऋतुचक्र...

लाख कोशिशें कीं

उसने

मलबे, जाल

हटाने की

साफ़ करने की

काँच पर जमा धुआँ

पोंछकर

परे का कुछ देखने की

लेकिन

हर बार

सनकी आँधियों का

पारदर्शी आँधियों में

परिवर्तित हो जाना...

अपनी रूमानियत में

भुलावा दे-देकर

लपेट लेना

समूची सजगता-तार्किकता को

अपने जादू से

मलबे और जाल को

ऐसा मोहक बना देना

उस वनस्पति के पत्तों-सा

कि

सजीव अपने आप

उसका भक्ष्य बनने के लए

खिंचा चला जाए

पत्तों की ओर

और फिर

युद्ध-विराम की घोषणा!

स्रोत :
  • पुस्तक : पारदर्शी आँधियाँ (पृष्ठ 17)
  • रचनाकार : पद्मजा घोरपड़े
  • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
  • संस्करण : 1999

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