ऐसे ही दुनिया से बाहर हुआ जाता हूँ
aise hi duniya se bahar hua jata hoon
मनोज कुमार पांडेय
Manoj Kumar Pandey
ऐसे ही दुनिया से बाहर हुआ जाता हूँ
aise hi duniya se bahar hua jata hoon
Manoj Kumar Pandey
मनोज कुमार पांडेय
और अधिकमनोज कुमार पांडेय
दिन भर के नशीले अवसाद के बाद
मुँह में तैरता है चिपचिपा रसायन
बोलता हूँ तो किसी को कुछ समझ में नहीं आता
ऐसे ही दुनिया से बाहर हुआ जाता हूँ
मेरी ज़बान लोग समझना बंद करते जाते हैं
मैं भी कब से कहाँ सुन रहा हूँ उन्हें
एक तेरी आवाज़ गूँजती है कानों में
मुझे कोई और आवाज़ सुनाई नहीं देती
या इस तरह सुनाई देती है कभी-कभी मसलन
भौंरों का रोना
कुत्तों की लड़ाई
चट्टानों के टूटने की आवाज़
यह सब भी जैसे कई आकाशगंगाओं के पार से
इसी शरीर के सिवा रहने को कोई जगह नहीं
इसमें भी बसी है तू कुछ इस तरह
यहाँ से भी बेघर हुआ जाता हूँ
ऐसे ही बदलती हैं दुनिया की छवियाँ
मैं उस दम अपने भीतर होता ही नहीं
लोगों के मेरे बारे में विचार बदल जाते हैं
मैं भी उन्हें पहचान नहीं पाता
चेहरा वही वही रहता है तब भी
आँखें किसी और की झाँकती हैं
न जाने किसकी
पता नहीं ख़ुद होता हूँ अकेला या उन्हें छोड़ता हूँ
- रचनाकार : मनोज कुमार पांडेय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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