Font by Mehr Nastaliq Web

अहमदाबाद

ahamadabad

शिव कुमार गांधी

शिव कुमार गांधी

अहमदाबाद

शिव कुमार गांधी

और अधिकशिव कुमार गांधी

     

    एक

    जाने कितने हथियार छिपाए होंगे कवि के घर में भी क्या कवि अपनी मूर्ति में स्थिर ही रहे होंगे

    शाह आलम की मज़ार के आगे उनके दोस्त नृसिंह के चबूतरे के आगे हर शाम दिया जलाते हुए मियाँ ग़ालिब क्या बुदबुदाते होंगे

    संशय में हूँ 

    जिससे लेता हूँ सिगरेट ख़िज़ाब लगी दाढ़ी में यह जो जा रहा है अपने ठेले में सब्ज़ियाँ लिए 

    विस्थापितों में भी विस्थापित

    माल्यार्पण करवाए लोगों के फ़ोटो से भरा पड़ा है जो शहर का अख़बार और तमाम विज्ञापन-बोर्ड

    एलिस ब्रिज के पास जले होटलों के पुननिर्माण और बस्तियों से मलबा हटाने के टेंडर भरते लोग

    बेकरियों से ब्रेड ख़रीदते लोग नदी के पुलों पर भरी रात में टहलते औरत आदमी बच्चे हिंदू मुसलमान

    वह ऑटो में जो ठसाठस भरे हैं घर से दफ़्तर जा रहे हैं रुके हैं रेड लाइट पर पोंछ रहे हैं पसीना

    भर रहे हैं अलस्सवेरे पानी 

    सबके चेहरे भरते थे संशय और ख़ौफ़ और अजनबीयत

    कि ठीक-ठीक मैं किनके सामने हूँ किसने पकड़ा था ख़ंजर कौन चीख़ा था कौन अपने जबड़े खोल रहा था यह पैनी लाल बत्ती लगाए कौन किस दिशा में जा रहा है भू-माफिया वकील कलाकार अध्यापक

    कि साध्वियाँ चल रही हैं नंगे पाँव जिन सड़कों पर उनमें ये निशान कैसे हैं?

    दो

    आउट ऑफ़ फ़ोकस!

    पीले रंग पाँव वाली चिड़िया वहाँ साइकिल के हैंडल पर आ बैठी थी हैंडल पर के छोटे गोल शीशे में उसकी पीली चोंच दिखती थी, पीछे के हल्के-से आसमान के नीले से भरी।

    शीशे के पास हैंडल को थामे वह हाथ था जो स्थिर था कि ‘बैठी है चिड़िया यहाँ अपनापे के जाने किस अनजाने में...’

    हाथ में की गुलाबी नीली नब्ज़ शिराओं से होती हुई दिल की धड़कन को धीमे किए हुए थी, गुलाबी दिल जिस पर उम्रदराज़ सफ़ेद रोएँ झाँकते थे ऊपर ओढ़ी हुई खादी में, चेहरा बहुत मुलायम था काले रंग के गोल चश्मे के भीतर की आँखें एकटक चिड़िया के पाँव और चोंच में भरे आसमान दोनों को एक साथ देखती-सी दिखती थी, अँगूठे वाली चप्पल में का मिट्टी से भरा अँगूठा अपनी जगह से थोड़ा उठा था चलने और रुक जाने की बिल्कुल ठीक मध्य अवस्था में लेकिन अविचलित धुँधला-सा, इस तरह दृश्य में वह साइकिल के पिछले पहिए के कोने में ठीक ऐसे दिखता था जैसे कि पहिए का चक्र अँगूठे के इशारे से घूमता हो,
    चेहरे के ठीक ऊपर पतझड़ के पत्ते गिरते हुए स्थिर थे जैसे कि क़ुदरत ने अभी अभी अपने सारे काम स्लोमोशन में करना तय किया हो, हवा कम थी नहीं तो पत्तें हवा में सीढ़ियों से उतरते हुए से दिखते।

    न साइकिल का कोई नाम था ना उनका नाम हम जानते थे जो आकर ठहरी हुई चिड़िया के इस सारे दृश्य में अपनी साइकिल और नब्ज़ को थामे खड़े थे
    और अब इससे आगे क्या कहें जिसे कहने में जाने कितने दिन लग गए, या यह एक संयोग था, या एक फ़ोटोग्राफिक दुर्घटना।

    वह जो कि कुछ इस तरह हुई :

    साइकिल के ऐन ऊपर लगे विज्ञापन बोर्ड जिसका कि फ़ोटो लेने फ़ोटोग्राफ़र मुस्तैदी से अपना कैमरा सँभाले फ़ोकस कर रहे थे कि जाने कहाँ से एक नन्ही-सी गिलहरी उनके पाँव पर से गुज़री, फिर क्या था कैमरा थोड़ा नीचे की ओर झुका और हड़बड़ाहट में ऑटो फ़ोकस के साथ क्लिक कर गया।

    जो फ़ोटो में नहीं था और विज्ञापन बोर्ड पर था वह लिजलिजा दृश्य नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री और उसके सहयोगियों का था जो अपने हाथ उठाए आसमान की ओर उँगलियाँ दिखाते हँसोड़ शैली में अपने द्विआयाम में सपाट थे।

    अब जाने यह संयोग था या कमबख़्त गिलहरी, चिड़िया व उनके दिल के धड़कने का कोई अंदरूनी रिश्ता था। 

    न जाने जो हुआ मेरे माने भला हुआ यह एक्सीडेंट ऑफ़ फ़ोकस।

    उन्होंने नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री को वोट नहीं दिया था।

    दृश्य में जहाँ ठीक उपर फ़ोटो से बाहर गुज़रते हवाई जहाज़ की आवाज़ गूँज रही थी उसी समय एक दिन पहले उनके दोनों बेटे हमेशा के लिए विदेश जा चुके थे जिनमें कि छोटे बेटे से उन्होंने उस दिन चेहरे पर वह बेहोश कर देने वाला थप्पड़ खाया था जब दंगों के दिनों में दरवाज़े पर किसी मुस्लिम दोस्त की तेज़ दस्तक पर उन्होंने दरवाज़ा खोला था।

    वे मुझे अंतिम बार शाम के धुँधलके में मिले थे जब पार्क में शाम की सैर का उस दिन आधा चक्कर ही लगाकार अपनी छड़ी हाथ में लिए पार्क के हर पेड़ हर पौधे हर बेंच को छड़ी छुआ कर जा रहे थे गेट के ठीक पास वाली बेंच पर आकर छड़ी उन्होंने मेरी ललाट पर लगाई मुस्कुराए और चल दिए कहते हुए जैसे कि अंतिम बार विदा।

    तीन 

    यह उसके शब्दों से ही पता चलता था कि उसकी बेटी के जीवन में ध्वनियाँ न थीं
    पड़ोसियों के राष्ट्र-प्रेम और उसके प्रति धिक्कार भी उसके शब्दों से ही पता चलता था
    छह दिन तक छह हज़ार रुपए कमाने के लिए ऑटो चलाकर सिर्फ़ पारले-जी खाकर व चाय पीकर और मोहम्मद रफ़ी के गाने गाकर कैसे जिया जा सकता है यह उसके शब्दों से ही पता चलता था
    साँझ कुछ ऐसे ही गिर रही थी जैसे कि अंत
    और अंत सदा अपनी तयशुदा शक्ल में 
    अंत में निराश हो जाने की नियति में वे सभी आपस में इस तरह सोचते हुए पाए जाते थे कि ज़िम्मेदारी इसकी एक दूसरे के बारे में तय है लेकिन इस समूचे के लिए ज़िम्मेदार तो ईश्वर ही है जो कि पहला और अंतिम कर्ता-धर्ता है
    अपने एकांत में यह भी नहीं लगता था बस सन्नाटे को चीरती गोलियों की आवाज़ सिर में  कौंधती थी जिसकी कौंध में लगी हुई आग का पसरा हुआ वीराना था
    अब ऐसे में छोटी बच्ची बिना ध्वनियों के जीवन जीती थी 
    यह उसे इतना सालता नहीं था
    आवाज़ छीने जाने की कथा सुनाने की आवाज़ अब उसके पास भी नहीं बची थी
    बस एक वाक्य था ‘कुत्ता अहमदाबाद’ 
    और इन दो शब्दों की रेखाओं का कालापन इतना घना था
    और उसके चेहरे पर इस क़दर स्यापता था जो कि जीवन का ग़ैर-मुक्कमल दृश्य था और यंत्रणा का मुकम्मल

    उसको अपनी बदसूरती पर तो कोई मलाल नहीं है 
    वह अपने बनाए गीत गाने की उनकी ज़िद नहीं थी
    मोहम्मद रफ़ी की नक़ल करते थे और छोटे-छोटे कार्यक्रमों में दर्शकों की तरफ़ इस मुद्रा में देखते थे कि अँधेरे टुकड़ों से रोशनी फूटने को होती थी जिसमें कि जीवन का सारा सार अपने आपसे पिघलने लगता था 
    इतने क़र्ज़ कि ज़लालत के बाद मोहम्मद रफ़ी ही उनका सहारा होने की वजह भी ग़ैर-वाजिब नहीं थी कि मोहम्मद रफ़ी की नक़ल का तो कोई क़र्ज़ ख़ुद पर नहीं था
    और यह तो क़ाबिल-ए-तारीफ़ ही बात थी कि ऑटो में मोहम्मद रफ़ी साहब की तस्वीर लगी हुई थी
    लेकिन इतना सब भी नाकाफ़ी था क्योंकि कोई तो चीज़ थी जो रफ़ी साहब के बूते से बाहर होती दिखती थी जीवन को ख़लिशनुमा बनाती थी
    अब इस तरह जीने का क्या मतलब था जब वे सारी रूमानियत भी चूक जाए और ज़िल्लत आपको बार-बार चिढ़ाती रहे
    हम उनकी इच्छाओं का अंदाज़ तो बिल्कुल भी नहीं लगा सकते 
    और न ही यह कल्पना कर सकते हैं 
    जिसमें कि हमें उनके इस दुनिया मे होने और 
    अपना अर्थ खोजने की जद्दोजहद करने के संघर्ष भरे नायकत्व वाले दृश्य इतने दिखाई दें 
    कि यह सारा समाज आपको किसी भिन्न
    इस प्रकार की करुणा से भरा नज़र आने लगे जो करुणा अमूमन अब हमारे कारोबार में शामिल नहीं है
    अब चूँकि इसलिए भाषा भी नहीं है
    जिसके लिए शब्दों व ध्वनियों से किसी प्रकार का काई संप्रेषण था ही नहीं और जो लोग वे शब्द रचते थे
    उसके लिए वे दूसरी दुनिया के शब्द थे
    निर्जन था वहाँ कि अब उसे निर्जन कहना भी सही नाम नहीं था नाम नहीं होने का अवगुण भी
    यूँ विराज़ता था कि वह किसी धुँधली पड़ चुकी तस्वीर-सा लगता था जिसके पीछे कोई छिपकली घूमती थी
    जब लोग निर्जन के बारे में कहते थे लगातार तो
    वे ऐसा कहते हुए पाए जाते थे कि वे एक निर्जनता से निकलकर 
    दूसरे निर्जन की ओर जा रहे हैं
    वे निर्जन की दीवारों के पास रहते थे 
    उसके पास में घूमते थे लगातार 
    निर्जनता के पेड़ होते थे चारों ओर उनके पतों के नीचे उनके चूल्हे बने होते थे 
    निर्जनता के सारे दृश्य उनके सपनों में आते थे लगातार उनके बच्चे अपने बचपन के साहित्य में पढ़ते थे निर्जनता और वही होते थे उनके खिलौने 
    वही होती थी उनकी पतंगें निर्जनता के मैदान और निर्जनता के आसमान में वही दोस्त और वही आगे के रास्ते 
    उन आगे के सभी रास्तों जिन पर पर अलस्सुबह उगते सूरज की ओर हाहाकार करते हुए नंगे बदन हाथ उठाते थे किसी आकांक्षा में और प्रतिउत्तर में साँझ हो जाती थी दिलो-दिमाग़ में भौंकती हुई-सी गोकि अपनी छाती कूटती हुई
    अब ये बात कौन कमबख़्त मानेगा कि रफ़ी साहब की तस्वीर से अपना सिर टिकाए और उसकी आवाज़ में रफ़ी का गाना सुनते हुए ऑटो में बैठकर शहर नामक निर्जन में हम यूँ हिचकोले लेते जा रहे थे जैसे कि समुद्र में डूबते सूरज की ओर कभी न लौटकर आने के लिए जा रहे हों
    और मेरे काले झोले में रखे नशे की ज़रूरत अब नहीं रह गई थी।

     
    स्रोत :
    • रचनाकार : शिव कुमार गांधी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

    टिकट ख़रीदिए