एक नीला दरिया बरस रहा
ek nila dariya baras raha
एक
एक नीला दरिया बरस रहा है
और बहुत चौड़ी हवाएँ हैं
मकानात हैं मैदान
किस क़दर ऊबड़-खाबड़
मगर
एक दरिया
और हवाएँ
मेरे सीने में गूँज रही हैं।
एक रोमान
जो कहीं नहीं है मगर जो मैं
हूँ हूँ
एक गूँज ऊबड़-खाबड़
लगातार
आँख जो कि अँखुआ
आई हो बहुत ही क़रीब बहुत
ही क़रीब।
दो
एक सुतून
फिर हुआ खड़ा
वहीं
जहाँ कि वह शुरू से था खड़ा
एक जुनून
जो कि महज़ नाम था
फिर हुआ
जुनून
सब तुकें एक हैं
यानी कि मेरा
ख़ून।
अजब बेअदबी है ज़माने की—कि
कि
अक्स है इंतिहाई गहरा
वही दरिया...
और वो मुझे ले गया डुबा
जहाँ इंतिहाई गहराइयों के सिवा
और कुछ न था
एक इंतिहाइयत... ...हाइयत
जो कि महज़ महज़ महज़
मैं हूँ—और
कुछ नहीं
यहाँ।
तीन
मगर
मेरी पसली में हैं—गिन लो
व्यंजन ׃ और उनके बीच में हैं
स्वर
उसे मेरा ही कहो—फ़िलहाल׃
(अहा, तुम कितने अच्छे हो कि मूर्ख हो—महात्मा मूर्ख
—इस ज़माने के स्वाँग में उतरे हुए
...एक आदिमतम देवता ׃ स्थिरतम!)
नहीं नहीं नहीं
वह
स्वर ׃
एक ही हाथ ׃ बाएँ आकाश को उठाए हुए है
एक गोल गति इक् करोड़ लाख बार घूम घूम
कर
मुझे लील जाती है
समूचा
अथाहों के दरिया में
अपने अक्स समेत
सच्च
वह स्वर।
चार
तब मेरे लिए पहाड़ अरावली के
पुरातन-तम
खोद-खोद डाले गए होंगे
सदैव के एक भविष्य में अभी से
नग्नतम बिवाइयाँ दरारें
धरती के सीने में अंदर तक चली गई हुई
घूम घूम कर
एक स्थिर चक्कर में
कविता की पंक्तियों की तरह—
अभी से।
पाँच
हाँ मगर
वह
स्वऽ
र
एक फ़नल
धुँधवाता
विशाल आकाश में
और वहीं
मैं
सीढ़ियों के-से
उलझे-पुलझे पथों से
चढ़ रहा हूँ उतर रहा हूँ चढ़ रहा...
तर रहा...
हूँ
और वहीं
एक बड़ा नन्हा-सा
बड़ी गहराइयों वाला
अणु है अणु
नहीं मालूम? अणु
गूँजता हुआ
एक व्यर्थ का अभ्युदय,
याकि
व्यर्थ का तुक— —
क्षण का
निरंतर— —
एक बूँद लहू
और लो मेरा आविर्भाव
कि भवता
कि है-हो-था
अभी तक
वही मैं कोई
एक कविता।
छह
एक विलयनवादी काव्य जोकि केवल
मैं लिखता——लिख सकता——हमेशा नहीं——
वैसा काव्य। जैसा कि इनमें
ध्वनित-अध्वनितः
स्व
—
—
—
—इत्यादि।
समय के
चौराहों के चकित केंद्रों से
उद्भूत होता है कोई : “उसे-व्यक्ति-कहो” ׃
कि यही काव्य है।
आत्मतम।
इसीलिए उसमें अपने को खो दिया
जाना गवारा करता हूँ
क्योंकि वहाँ मेरा एक महीन युग-भाव है
वही... शायद मेरे लिए... मात्र। शायद
मेरे ही अनेक बिंबों के लिए मात्र।
जिनहें “मेरे पाठक कहा जाय” मात्र।
तो। इसमें और कुछ नहीं।
कोई संगीत नहीं। केवल प्रलाप।
केवल तम।
केवल प्रलाप। केवल मैं और आप। अनाप शनाप।
शराब
यानी इंसानियत की तलछट का छोड़ा हुआ
स्वाद।
मुझे दो।
मगर पैमाना हो
फ़ोनिमिक्स
उन भाषाओं का, पश्चिम और पूर्व की, जो
मिलनसीमा को
आर्गनित
करती हैं,
बस
वहीं मेरा कवि :
तुम्हारा अन्यतम व्यक्ति।
नश्शा मुझे नहीं होता। नहीं होता।
मुझे पीने वालों को
होता
है—मेरी कविता को
अगर वो उठा सकें और एक घूँट
पी सकें
अगर।
इसलिए बस
मुझे वही शराब दो। बस।
[—मुझे नश्शा नहीं चाहिए।]
- पुस्तक : टूटी हुई, बिखरी हुई (पृष्ठ 57)
- संपादक : अशोक वाजपेयी
- रचनाकार : शमशेर बहादुर सिंह
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 2004
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