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अधूरी कविता की स्त्री

adhuri kawita ki istri

स्मिता सिन्हा

स्मिता सिन्हा

अधूरी कविता की स्त्री

स्मिता सिन्हा

कहते हैं कोस दस कोस पर बदलती है भाषा

बदलता है मिट्टी पानी भी अपना रंग

मैंने तो देखी

ऐसी औरतें भी

जो महीने दस दिन पर

बदलती है अपनी तरावटें

बदलती हैं उनकी खिलखिलाहटें अपना रूप भी

उम्मीद लगाना भी कठिन है इन दिनों

कि उस धुआँते आकाश में क्या दिखता इन्हें

क्या सुनतीं ये

बाँस के जंगल की सरसराहटों में

कि परिंदों की आँखों का डर उतर आता है इनकी आँखों में

और बदहवास-सी भागती है एक गिलहरी निकल कर इधर-उधर

जिसे पकड़ने में मशग़ूल

वे उलट देती हैं पूरा घर

बिस्तर उलटा, कपड़े उलटे, पर्दे उलटे, बर्तन उलटे...

उलट-पुलट कर गिरते जाते मसालों के डब्बे एक-एक कर इन पर

इस उलटबाँसी में वे कभी भींचती अपनी मुट्ठियाँ

तो कभी खोलती उनको

कसते जाते बाल

बढ़ती जाती चुप्पी

चुपचाप सुनती जातीं

दरवाज़े खिड़कियों की खुसर-फुसर

कि यह ख़ब्ती फिर चढ़ाएँगी हमारी छिटकनियों को

फिर पाटेंगी हमारी दरारों को

बनी रहेंगी घर की चौखटों पर

अपने होने नहीं होने के बीच

देर तक करती रहेंगी बहस

अपने ही पक्ष और प्रतिपक्ष में

ओस के फ़ाहे देते रहेंगे थपकी इनकी थकी आँखों को

और लगती रहेगी गर्म पानी की सेंक इनकी पीठों पर आज फिर देर तक

आज ये फिर से छोड़ देंगी अपनी किसी कविता को अधूरी हमेशा के लिए...

स्रोत :
  • रचनाकार : स्मिता सिन्हा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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