मैं शुरू हुआ मिटने की सीमा-रेखा पर,
रोने में था आरंभ किंतु गीतों में मेरा अंत हुआ।
मैं एक पूर्णता के पथ का कच्चा निशान,
अपनी अपूर्णता में पूर्ण,
मैं एक अधूरी कथा
कला का मरण-गीत, रोने आया।
मेरी मजबूरी तो देखो :
काली पीली आँधी चलती है गोल-गोल,
धूसर बादल नीचे उतरे
जिनमें मुरझाए पलों की है धूल-भरी,
मिट गए अचानक अनजाने अपने अमोल,
बुझ गए दीप पड़ कर पीले
जिन की लौ गरम रखी अब तक।
है अंत हुआ जाता मेरा
इन अंतहीन इतिहासों में :
जाने कैसी दूरी पर से
मुझ पर लंबी छाया पड़ती,
किसकी आधी आवाज़ भरी
मेरे बोझीले गिरते हुए उतारों में।
मैं अधिकारी ना-होने वाली बातों का
मैं अनजाना, मैं हूँ अपूर्ण।
दूरी से, कितने देशों की इस दूरी से,
वह महाकाल के मंदिर की चोटी दिखती
जिस पर छाया था एक साँझ
दूरी की श्यामलता लपेट कर मेघदूत;
वे सोने के सिंहासन की गाती परियाँ,
नवरत्नों का सपना सुंदर
जो मिट कर एक बार फिर से
था मिटा सीकरी के उन झीलों से अनुरंजित महलों में,
ये सब मोती थे टूट गए।
अब एक और तारा टूटा
लंबी लकीर बन अलका से,
फिर समा गया
गंगा की गोरज लहरों में।
जीवन का वह रंगीन चाँद
जिसके उजियाले बिना हुआ है जग निर्धन,
जो सुधा भरा ही डूब गया
काली रेखाओं के आगे
विष की मीठी निद्रा के अंतिम सागर में।
कमज़ोर सूत के ये डोरे
अनजानी दूरी तक ओझल होकर जाते,
नीली-सी लंबी उँगली की
रेखा-छाया उलझी-उलझी-सी दिख जाती
ढीले लगते
पर बंद नहीं होते खिंचने।
सुंदर चीज़ें ही मिटती हैं सबसे पहले,
यह फूल, चाँदनी, रूप, प्यार,
आँसू के अनगिन ताजमहल,
रागों की ठहरी गूँज,
असंभव सपनों की सुंदर मिठास :
स्रष्टा तक मिटता कलाकार के मिटने से,
पर गीतों के इन पिरामिडों,
इन धौलागिर, सुमेरुओं पर
मिट जाती स्वयं मृत्यु आकर!
दिख रहीं मुझे विन्ध्या की अमिट लकीर दूर
वे घने-घने चट्टान-भरे लंबे जंगल,
नर्मदा, बेतवा, क्षिप्रा की अविलंब धार
जिन पर हेमंत कुहासे-सी छायी रहती
युग से युग तक,
अनजाने इतिहासों की वह अविराम याद।
वन की श्यामलता की मिठास
अनजानेपन के रंगों से ही रंजित है,
ऐसी छाँहों में पले हुए
ये चट्टानों के फूल
नहीं गल पाएँगे, धुल पाएँगे
निर्बल वर्षों के बोझीले गीले हिम से।
अब वे वसंत
कितने सहस्र वर्षों की ममी बना आया
बेहिस, अवाक्।
ये शिशिर सरीखी बादल-भरी हवा चलती,
रोमाँ की यादें टूट रहीं,
ये मुझे उड़ाती ले जाती वर्षों पीछे
जाड़ों की संध्या का वह अंतिम प्रहर,
रात, संदली चाँदनी में गोरी-गोरी होती :
जब कालिदास की नगरी में
उन गीतों की छाया में मैं भी बैठा था
पहली, भी अंतिम बार वहीं :
जग ने जिसको मिटने पर ही है पहचाना,
वह चित्र न मुझ पर से उतरा,
उसको ही पूरा करने में
मुझको भी पूर्ण न होने का वरदान मिला;
मैं चलता जाऊँगा इतिहासों के ऊपर
यद्यपि पाषाण हुआ जाता।
- पुस्तक : तार सप्तक (पृष्ठ 156)
- संपादक : अज्ञेय
- रचनाकार : गिरिजाकुमार माथुर
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 2011
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