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अधकपारी

adhakpari

विक्रांत

विक्रांत

अधकपारी

विक्रांत

और अधिकविक्रांत

    ताँबे और तुलसी वाले आँगन में

    अमरूद के पेड़ पर लटका रहने वाला अधकपारी

    भेज दिया गया शहर की ओर—

    उम्मीद से

    वह धुआँ उगलती लाल चिमनी से

    पगडंडी पकड़

    क़ब्रगाह पार कर

    निकल आया चौड़ी सड़क पर

    और पहुँच गया होड़, शोर और शहर में

    टूटे प्लास्टर और नमी से भरे कमरे में

    शरणार्थी-सा ख़ुद को बंद कर

    वह टटोलता रहा अपनी हड्डियाँ,

    मांसपेशियों का आकार

    साफ़ करता रहा दाग़-धब्बे,

    सूखती चमड़ी

    और खिड़की से ताकता रहा—

    शहर और वक़्त

    इतना वक़्त! कितना वक़्त?

    गूढ़-सा,

    मूढ़-सा

    चुप्पी साधे

    रहस्यों को लपेट वह लगाता रहा कालिख के लेप

    और उस पर पोतता रहा मिट्टी

    बावजूद इसके कि उठती है मुर्दागंध

    और चिमनी का धुआँ अपने माइंड-प्लेस में अब भी ढूँढ़ता है—

    ताँबा,

    तुलसी,

    आँगन,

    अमरूद।

    स्रोत :
    • रचनाकार : विक्रांत
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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