अभिलाषा
abhilasha
उर के तरुण तिमिर को हर लो,
नाथ, मुझे देकर आश्वास।
रागी से बना विरागी मन,
है, लेता भारी निःश्वास॥
सूख चुकी आशा की लतिका,
मर्मर ध्वनि करते हैं पात।
भूल कर भी मत कहना ‘नहीं’
होगा तब तो वज्र-निपात॥
नित्य जलाता है दावानल,
त्यों लू भी लहराती है।
रह रह करके वायु भयंकर,
अस्त-व्यस्त कर जाती है॥
नभ-मंडल में घहराते हैं,
दैत्य बने बादल काले।
चमक रही है चपला क्षण-क्षण,
दिखते जीवन के लाले॥
अहो हृदयधन! आओ आओ,
जग रही अब भी आशा।
कर दो पूरी एक बार बस,
इस जीवन की अभिलाषा॥
- पुस्तक : प्रलाप (पृष्ठ 37)
- संपादक : वंदना टेटे
- रचनाकार : सुशीला सामद
- प्रकाशन : प्यारा केरकेट्टा फ़ाउंडेशन
- संस्करण : 2017
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