जानेमन
पहले हुआ करता था ये हिंदी भवन
हम मिला करते थे क्लासों के बाद
शौक़ तुमको था किताबों का बहुत
मैं किया करता था डिस्टर्ब तुम्हें
और फिर घंटों यहीं लॉन में हम
जाने क्या बात किया करते थे
या कि चुपचाप खड़े रहते थे
तुम दबाए हुए छाती से किताब
और सिगरेट के धुएँ में, मैं कहीं खोया हुआ
ऊब जाते थे मेरे दोस्त, तुम्हारी सखियाँ
जानेमन
पहले हुआ करता था ये हिंदी भवन
अब यहाँ लाटरी निकलती है
एम पी डेली एक पी डीलक्स
एम पी डेली एम पी डीलक्स
एक पी सुपर एम पी एक्सप्रेस
अब यहाँ लाटरी निकलती है
लोग आते हैं ठहर जाते हैं
वे खड़े होते हैं चुपचाप थरथराते से
दिल उछलता-सा डूबता-सा दिल
दिल धड़कता-सा सहमता-सा दिल
आँख उत्सुक-सी आँख शरमाती
आँख गिरती-सी आँख उठती-सी
आँख भयभीत आँख आशंकित
सभी आँखों में यहाँ पूछते से
सी आँखों में कहते-सुनते से
आ खड़े होते हैं चुपचाप थरथराते-से
भीतर-भीतर से टूटते जाते
धीमे-धीमे बिखरते घबराते
जेब में टिकिट छूते बार-बार
याद करते हैं आख़िरी नंबर
ख़ुद को समझा के और फुसलाके
जेब से झट निकाल करके टिकिट
देखते कभी आख़री नंबर
और फिर आख़री से पहले का
याद करते हैं उससे पहले का
लाटरी खुलने का रहता है सबको इंतज़ार
जानेमन
पहले हुआ करते था ये हिंदी भवन
अब यहाँ लाटरी निकलती है
फिर बिखर जाते हैं पुरज़े−पुरज़े
फ़ाड़कर फेंक दिएजाते हैं गट्ठे−गट्ठे
लाटरी के ये टिकिट
टिकिट नहीं रुपए हैं
रुपए जो घर से लिए आए थे चोरी−चोरी
रुपए जो बच्चों की ख़ातिर रखे थे आलों में
रुपए राशन के रखे थे जो सुबह अपने पास
लाटरी के लिए कितनो ने लिए कितने उधार
दिल दुखी
पाँव नहीं उठते हैं घर जाने को
चेहरा बीमार लिए मगर चले जाते हैं
फिर मरेगा कोई
और कोई नहीं डूबेगा
कल पढ़ेंगे इसे हम लेके सुबह का अख़बार
जानेमन
पहले हुआ करता था ये हिंदी भवन
अब यहाँ लाटरी निकलती है
- पुस्तक : फ़िलहाल यह आसपास (पृष्ठ 37)
- रचनाकार : विनय दुबे
- प्रकाशन : मेधा बुक्स
- संस्करण : 2004
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