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अब कभी नहीं लिख पाओगी कोई कविता

ab kabhi nahin likh paogi koi kawita

शैलजा पाठक

शैलजा पाठक

अब कभी नहीं लिख पाओगी कोई कविता

शैलजा पाठक

ढलती उम्र की औरतों ने सुना और विरोध जताया

आईने में सदियों का लेखा था

आग से टूटा था एक बार

कपड़े उतारते हुए जबरन

मुँह फेर खड़ा हो गया था दीवार की ओर

बहकती शाम की जवान चीख़ें सुनी थीं इसने

लिखी तो तब भी जा रही थी कोई कविता

जब तीसरी जाइ बेटी साज़िशों के नाम चढ़ी थी

छाती से बहती रही थी कविता

आईने की आँख में गहरा गोल गढ्ढा उगा था

जिसके किनारे काली चादर लिपटी थी

औरत नहीं जता पाई विरोध

तब जब आधी रात को उसे अपनी तेज़ होती साँसों की चक्की में पीसा था

वह लिख रही थी आसमान पर एक कविता

धरती के फेरे लेती तितली पर सवार रंगों की

सवारी कर रही थी

जब हल्दी में सान रही थी अपनी हथेली तब भी

बच्चो को दूर जाते हुए देखा था तब भी

जब घरों की चाभियाँ थमाई थीं तुमने तब भी

उसके पास नहीं था सफ़ेद काग़ज़ नीली स्याही

वह लिखना चाहती तो थी धड़कते दिल की सबसे हसीन कविता

अब जब ढल रही है सूरत

कमर के गिर्द जमा हुई बरसों की बेचैनी जम-सी गई है

कलाइयों में पहनी चूड़ियों से विदा ले चुकी है खनखनाहट

बालों पर सफ़ेद रंग के झरने गिरने लगे

तुमने फिर से छीन लिया मौक़ा कि नहीं लिखी जाएगी तुमसे कोई कविता

तुम क्या जानो प्यार!

रात बिस्तर से बातें करता रहा आईना

हम विरोध जताते हैं

रोटी, नमक, आग और आह की दुनिया से विदा लेते हैं हम आज से

हमने सपनों की ज़मीन तैयार की है

हमने ख़ुशबुओं से हाथ मिलाया

हमनें रंग भर आसमान भरा है आज

बरसों से बंजर ज़मीन की फट रही छाती हमारा ख़्वाब है

हमने कलेजे में उँगलियाँ डुबाई हैं

हमें लिखनी है प्रेम-कविता

ढलती उमर की सबसे बेबाक़ कविता...

स्रोत :
  • रचनाकार : शैलजा पाठक
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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