अब हम ऐसे समय में आ गए हैं
कि झूठ को सच की तरह देख सकते हैं :
उज्ज्वल, अदम्य और स्पष्ट!
जो असल में सच है
वह हमारे समय में पिछड़ता जाता है
और उसे दृश्य से बाहर हकाले जाते देखना हमने बंद कर दिया है।
सच अब हमारे भरोसे या सहारे नहीं है
और हम राहत महसूस करते हैं
कि हमें उसके लिए परेशान नहीं होना पड़ता।
हमें अब किसी अदालत में हलफ़ नहीं उठाना है
क्योंकि अदालत ने
जैसी-तैसी गवाही पर यक़ीन कर हमें दोषी नहीं पाया :
हमने नरसंहार दूर से देखा
पर हमारे साफ़ धुले कपड़ों पर ख़ून का एक भी दाग़ नहीं है।
जब वह सब हुआ तो मौक़े पर हम मौजूद नहीं थे :
हमारा न होना साबित है,
अपने होने को साबित करने की हमें अब दरकार नहीं।
हम बदलाव चाहते थे
और ख़ुशक़िस्मती से दुनिया भी ऐसी बदल गई
कि सच का भय जाता रहा।
हम कर्मठ लोग हैं :
कर्म में विश्वास करते हैं, उसके फल में नहीं।
हमारी कार से कोई पिल्ला दब जाए तो हमें दु:ख ज़रूर होता है
कि ड्राइवर ने सावधानी नहीं बरती।
पर हमें जल्दी होती है
कहीं वक़्त पर पहुँचना ऐसी छोटी-सी वारदात के लिए रुकने से
ज़्यादा ज़रूरी होता है।
वैसे अब हमें सच की ख़ास ज़रूरत नहीं,
झूठ से काम अच्छा निकलता है,
वह सच जैसा अड़ियल भी नहीं है।
- रचनाकार : अशोक वाजपेयी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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