आधी रात को अस्पताल आगमन
aadhi raat ko aspatal agaman
बरगद का पेड़ है, नीचे बैठा हूँ जिसके, अँधेरा है जिसकी टेक ली है
सामने पोस्टमार्टम विभाग की इमारत है जिधर नज़र टिकी हुई है,
इसको कविता नहीं कहता, रुदन कहता हूँ, जो महसूस करता हूँ उसको प्रेम नहीं घृणा।
नाक सूंघ रही है खुली हुई लाश, मिली हुई उससे सड़ती हुई लाश की गंध,
गाती हुई रात की हवा कानों में जा रही है, मुर्दे चीखते नहीं, मरघट में कोई करतल नहीं होता।
सन्नाटा है उस नए कवि के कमरे में, कान में हेडफ़ोन, फ़ोन की स्क्रीन पर पोर्न
जेब में बॉदलेयर, पेट में ब्रेख़्त, नसों में गिंसबर्ग, दिमाग में फ़िलिस्तीन, दिल में लोर्का
आँख में नींद और हाथ में उसका पुरुषत्व, सब गतिमान, सन्नाटा है और अँधेरा है
अँधेरा उसकी पीठ पर भी भरा है और उसके बिस्तर के खाली पड़े तकिए पर सोया हुआ है
समेटा जा सकता है उसको, एक डिप्रेशन की गोली से छह घंटे, फिर अगली गोली।
निष्कर्षत:
आधी रात है और स्त्री का प्रेम अकेला है, जगा हुआ, इंतज़ार करता,
उसकी देह अकेली, हर दाग सहलाए जाने का इंतज़ार करते हुए,
सिंक की छाप मिट जाने का यत्न करती हथेलियाँ
उसकी कमर में डूब चुकी मछलियाँ जागती हैं
आधी रात को दूर कहीं से सुनकर घड़ियाल की आवाज़
चूल्हा ठंडा होता हुआ बनता जा रहा है जी.बी. शॉ का कोई नाटक,
धीमे-धीमे, जूठे बर्तनों का गान नेपथ्य लेता रहेगा
सुबह फिर स्टेज के मध्य आ जाएगी वही स्त्री, यही किरदार फिर उसको घेरे हुए,
आधी रात को भाषा का न होना वरदान है।
शहर एक पिंजरा है आधी रात को, सिर्फ़ महसूस किए जा सकते हैं सींखचे,
मेरे उन पर चोंच मारते रहने से भी
उनका क्या बिगड़ेगा, पानी की आवाज़ पोस्टमार्टम वार्ड के सामने सिर्फ़ मेरी जुगुप्साओं का तुष्टीकरण करती है
प्यास लगेगी तो इस मरघट पर ये बरगद है, इस पर घड़ीघंट टंगे हैं,
उनसे पानी निकालकर पिया जा सकता है,
दुनिया की परिक्रमा करना है यहाँ जीवन जीना, श्राद्ध करते हुए परिक्रमा करना, उसकी जड़ों में डालना मटके से पानी बार-बार, अप्रतिम तौर से पानी का सूखना,
विचार आधी रात को नागफनी के पौधे हो जाते हैं,
लिपटे रहते हैं उससे क्षुधा के नाग
आधी रात को रो रहे हैं, आँसू कहते हैं अखबार से, आधी रात को हंस रही है सरकार
कहता है अख़बार उनसे।
प्यार कॉल होल्ड पर रखकर सो चुका है, उसकी संसद में मेरे खिलाफ़ कोई निंदा-प्रस्ताव पारित हुआ है, घृणा आवेश को जन्म देती है, धिक्कार पैदा करती है रोने से सिकुड़ गई आँखों की चमड़ी, एक ही बल्ब जल रहा है बस, उस पर इतना बड़ा बोझ…जागो, बेताल, उस छोटी रोशनी के अंदर छिपे हुए तुम झूठी उम्मीद के भूत, अवरुद्ध कर दो मेरी सांस की नली, चीखता हूँ आधी रात को, दो हज़ार चौदह की गर्मियों में सूरज पूरा ख़र्च हो चूका, धरती की धुरी एक नोक की तरह चुभती है विश्व बाज़ार को।
अंतत:
जो हो रहा है—समालोचन, संभोग, शिष्टाचार, सबका संविधान सुबह तक समाविष्ट हो जाता है रात की सैर से बचने के संकल्प में और समय होने तक सुदृढ़ रहता है।
- रचनाकार : अंचित
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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