विड़ाल1
प्राचीन काल में वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में बोधिसत्व ने चूहे की योनि में जन्म धारण किया था। वे आकार में सूअर के शावक के समान और बहुत बुद्धिमान् थे। उनके पास कई सौ चूहे रहा करते थे और वे उन सबको अपने साथ लेकर जंगलों में घूमा करते थे।
एक दिन एक गीदड़ ने इन सब चूहों को इधर-उधर घूमते हुए देखकर मन में सोचा कि इन सबको किसी प्रकार छलकर खा जाना चाहिए। यह सोचकर वह चूहों के बिल के पास ही जाकर एक पैर से खड़ा हो गया और सूर्य की ओर मुँह करके वायु पान करने लगा। जब बोधिसत्व आहार ढूँढ़ने के लिए बाहर निकले और उन्होंने उसे इस अवस्था में खड़े देखा, तब उन्होंने सोचा कि जान पड़ता है कि यह गीदड़ सदाचार-संपन्न है; इसलिए उन्होंने उसके पास जाकर पूछा—महाशय, आपका नाम क्या है? गीदड़ ने उत्तर दिया—मेरा नाम धार्मिक है। बोधिसत्व ने पूछा—आप भूमि पर चारों पैर न रखकर केवल एक ही पैर से क्यों खड़े हैं? गीदड़ ने कहा—यदि मैं अपने चारों पैर पृथ्वी पर रख दूँगा, तो वह मेरा भार न सह सकेगी; इसलिए मैं एक ही पैर पर खड़ा हूँ। बोधिसत्व ने पूछा—आपने अपना मुँह क्यों खोल रखा है? गीदड़ ने कहा—मैं अन्न नहीं खाता, केवल वायु खाकर रहता हूँ; इसीलिए मैंने अपना मुँह खोल रखा है। बोधिसत्व ने पूछा—आप सूर्य की ओर क्यों देख रहे हैं? गीदड़ ने कहा—उनको नमस्कार करने के लिए। गीदड़ की ये सब बातें सुनकर बोधिसत्व ने मन में सोचा कि इस गीदड़ में भी कैसी अपूर्व साधुता है। उस दिन से वे नित्य सवेरे और संध्या अपने साथ सब चूहों को लेकर उस गीदड़ संन्यासी को प्रणाम करने के लिए जाने लगे। पर जब सब चूहे उस गीदड़ को प्रणाम करके लौटने लगते थे, तब वह सब के अंत वाले चूहे को चुपचाप पकड़कर खा जाया करता था और इस प्रकार मुँह बना लेता था कि जिसमें मालूम हो कि वह कुछ जानता ही नहीं। इस प्रकार धीरे-धीरे चूहों की संख्या घटने लगी। यह देखकर चूहे सोचने लगे कि पहले इसी बिल में हम लोगों को रहने के लिए स्थान का संकोच होता था; हम लोग इसमें ठसाठस भरे रहा करते थे। पर अब यहाँ इतना स्थान ख़ाली क्यों रहता है; अब यह बिल पहले को भाँति हम लोगों से भर क्यों नहीं जाता। इसका कारण क्या है! जब उनकी समझ में कोई कारण नहीं आया, तब उन लोगों ने यह बात बोधिसत्व से कही। बोधिसत्व भी सोचने लगे कि चूहों के घटने का कारण क्या है। किसी प्रकार गीदड़ पर उनका संदेह हो गया। उन्होंने निश्चय किया कि इस बात का ठीक-ठीक पता लगाना चाहिए। उस दिन जब वे गीदड़ को प्रणाम करके लौटने लगे, तब उन्होंने और सब चूहों को तो आगे रखा और आप सबके पीछे रहे। गीदड़ ने बोधिसत्व को ही पकड़ना चाहा। बोधिसत्व उसकी चेष्ट देखकर उसका भाव समझ गए। उन्होंने घूमकर उससे कहा—मैं देखता हूँ कि तुम्हारा यह व्रतानुष्ठान धर्म के लिए नहीं है। तुम प्राणियों की हिंसा करने के लिए यह धर्म की ध्वजा लिए फिरते हो। यह कहकर उन्होंने नीचे लिखे आशय की गाथा कही—
तुम धर्म की ध्वजा लेकर सब लोगों को ठगते हो और छिपे-छिपे पापाचरण करते हो। तुम्हारे अंदर तो विष है और मुँह पर मधुर वचन हैं। यही विड़ाल व्रत के लक्षण हैं।
इतना कहते हुए बोधिसत्व कूदकर उस गीदड़ की गर्दन पर जा पहुँचे और इस ज़ोर से उसे काटा कि उसका गला दो टुकड़े हो गया और वह तुरंत मर गया। उनके साथ जितने चूहे थे, उन सबने उस गीदड़ का मांस खाकर घर का रास्ता लिया। तब से सब चूहे निर्भय होकर रहने लगे।
- पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 186)
- प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.