वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में बोधिसत्व ने काशी के एक बहुत संपन्न कुल में जन्म लिया था। जब उन्हें कुछ ज्ञान हुआ, तब उन्होंने सोचा कि कामना से ही सब दुःख होते हैं और निष्काम रहने में ही पूर्ण सुख है। इसलिए वे कामनाओं का परित्याग करके हिमालय चले गए और वहाँ उन्होंने प्रवज्या ग्रहण कर ली और ध्यान के बल से पंच अभिज्ञा1 तथा आठों समापत्तियाँ प्राप्त कर लीं। वे सदा ध्यान में मग्न रहते थे। धीरे-धीरे वहाँ के पाँच सौ तपस्वी उनके शिष्य हो गए। उन सत्र शिष्यों को अपने पास बैठाकर वे शिक्षा दिया करते थे।
एक दिन विपधर साँप का बच्चा विचरण करता हुआ इनमें से एक तपस्वी के घर में पहुँचा। उसे देखकर उस तपस्वी के मन में पुत्र-स्नेह उत्पन्न हुआ। उन्होंने उसे उठाकर बाँस की एक पोर या नाली में रख दिया और उसकी रक्षा तथा पालन करने लगे। साँप का बच्चा बाँस की पोर में रहा करता था, इसलिए लोग उसे वेणुक कहा करते थे; और तपस्वी उसका पुत्रवत् पालन करते थे, इसलिए लोग उन्हें वेणुक-पिता कहते थे।
जब बोधिसत्व ने सुना कि एक तपस्वी ने साँप का एक बच्चा पाला है, तब उन्होंने उस तपस्वी को बुलाकर पूछा—क्या यह बात ठीक है कि तुमने साँप का बच्चा पाला है? तपस्वी ने कहा—जी हाँ, गुरुदेव। बोधिसत्व ने कहा—साँप का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। तुम उसे अपने पास मत रखो। तपस्वी ने कहा—महाराज, शिष्य जिस प्रकार आचार्य के लिए प्रिय है, उसी प्रकार साँप का यह बच्चा मेरे लिए प्रिय है। मैं उसे छोड़कर जी नहीं सकूँगा। बोधिसत्व ने कहा—तो फिर जान पड़ता है कि इसी साँप के काटने से तुम्हारा प्राणांत होगा। पर तपस्वी ने बोधिसत्व की बात पर ध्यान नहीं दिया और साँप के बच्चे को नहीं छोड़ा।
इसके थोड़े ही दिनों बाद सब तपस्वी वन्य फल खाने के लिए गए। एक स्थान पर बहुत से फल आदि देखकर सब तपस्वी दो तीन दिन तक वहीं रह गए। वेणुक-पिता भी वेणुक को उसी पोर में बंद करके गए थे। दो तीन दिन बाद लौटने पर वे वेणुक को खोलकर खिलाने लगे। ज्यों ही उन्होंने पोर का मुँह खोलकर कहा—आओ पुत्र, तुम बड़े भूखे हो। त्यों ही भूख के कारण क्रुद्ध साँप ने उनकी उँगली में काट लिया और आप निकलकर जंगल की ओर चला गया।
साँप के काटने से वेणुक-पिता के प्राण निकल गए। तपस्वियों ने यह समाचार बोधिसत्व को दिया। उन्होंने शवदाह करने की आज्ञा दी; और जब दाह हो चुका, तब सब तपस्वियों को एकत्र करके उन्हें उपदेश देने के लिए नीचे लिखे आशय की गाथा कही—
जो स्वेच्छाचारी अपने हितैषी मित्र की बात पर ध्यान नहीं देता, उसके प्राण अवश्य जाते हैं। यह वेणुक-पिता इस बात का प्रमाण है।
इसके उपरांत बोधिसत्व ने ब्रह्मविहार प्राप्त किया और ब्रह्मलोक को चले गए।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.