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सत्यं-किल जातक

satyan kil jatak

अज्ञात

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सत्यं-किल जातक

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    वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त का दुष्टकुमार नामक एक पुत्र था। उसका स्वभाव इतना भीषण और निष्ठुर था कि लोग उससे उतना ही डरते थे जितना आहत विषधर से डरते हैं। लोगों के साथ बातचीत करते-करते वह उनको गालियाँ दे बैठता था और कभी-कभी मार भी देता था। इस कारण वह भीतर बाहर सभी जगह लोगों की आँखों में काँटों के समान खटकता था। उसे देखते ही लोग समझने लगते थे कि मानों कोई राक्षस हम लोगों को निगलने के लिए चला रहा है।

    एक दिन दुष्टकुमार अपने बहुत से साथियों को लेकर जल-क्रीड़ा करने के लिए नदी तट पर गया। वहाँ जाकर सब लोग क्रीड़ा में मत्त हो गए। इतने में ज़ोरों से आँधी आई और पानी बरसने लगा। चारों ओर अंधकार छा गया। यह देखकर दुष्टकुमार ने अपने परिचारकों से कहा—मुझे नदी के मझधार में ले चलो और वहाँ से मुझे स्नान करा लाओ। परिचारकों उसे मँझधार में ले जाकर परामर्श किया कि आओ, हम लोग आज इस पापिष्ठ को यहीं मार डालें। राजा हम लोगों का क्या कर लेंगे। यह सोचकर उन लोगों ने यह कहते हुए राजकुमार को जल में फेंक दिया कि जा, दूर हो दुष्ट और आप लौटकर नदी तट पर गए। जब वे लौट आए, तब और लोग उनसे पूछने लगे—कुमार कहाँ हैं? उन लोगों ने कहा—हमें तो कहीं दिखाई नहीं देते। जान पड़ता है कि वे आँधी देखकर पहले ही प्रासाद को चले गए हैं।

    इसके उपरांत सब लोग राजप्रासाद को लौट गए। राजा ने पूछा—कुमार कहाँ हैं? उन लोगों ने कहा—महारज, हम लोग तो नहीं जानते। जब आँधी आई और पानी बरसने लगा, तब हम लोगों ने सोचा कि कदाचित् वे पहले ही प्रासाद को लौट गए। इसी कारण हम लोग भी चले आए हैं। राजा उसी समय पुरद्वार खोलकर नदी तट पर पहुँचे और चारों ओर घूम-घूमकर पुत्र को ढूँढ़ने लगे; पर कहीं कुमार का पता लगा।

    उधर कुमार की जो दशा हुई, वह सुनिए। जब मेघ के अंधकार के कारण कुछ दिखाई पड़ने लगा, तब उसने अपने आपको बहाव में छोड़ दिया। एक वृक्ष का तना बहा जाता था। वह उसी तने पर जमकर बैठ गया और मृत्यु के भय से अरे कोई मुझे बचाओ। अरे कोई मुझे बचाओ। कह कहकर चिल्लाने लगा।

    वाराणसी के एक बहुत धनाढ्य वणिक ने उस नदी के तट पर चालीस करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ गाड़ रखी थीं। वह बहुत अर्थ लोलुप था; इसलिए मृत्यु के उपरांत वह सर्प बनकर उसी धन के पास एक बिल में रहा करता था। इसी प्रकार एक और वणिक ने तीस करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ गाड़ रखी थीं और धन-तृष्णा की प्रचलता के कारण वह चूड़ा बनकर उसी धन के पास रहा करता था और उसका पहरा दिया करता था। जब अति वृष्टि के कारण नदी में बाढ़ आई, तब साँप और चूहे दोनों के बिलों में पानी भर गया और वे भी नदी में बह चले। बहते-बहते उनको भी वही वृक्ष का तना मिला और उस पर एक ओर साँप और दूसरी ओर चूहा चढ़ बैठा। इसके उपरांत एक तोते ने भी आकर उसी वृक्ष के तने पर आश्रय लिया। वह तोता नदी के किनारे सेमल के एक पेड़ पर रहा करता था। बाढ़ के कारण वह वृक्ष टूटकर नदी में गिर पड़ा था। तोते ने उड़ जाना चाहा था, पर उसके उड़ते समय ज़ोरों से पानी बरसने लगा और वह उसी वृक्ष के तने पर गिर पड़ा। इस प्रकार ये चार प्राणी उस एक ही तने पर बहते हुए चल पड़े। इतने में रात हो गई।

    जिस समय की यह बात है, उस समय बोधिसत्व ने एक उदीच्य ब्राह्मण कुल में जन्म लिया था और बड़े होने पर प्रव्रज्या ग्रहण करके वे उसी नदी के तट पर एक निर्जन स्थान में कुटी बनाकर रहा करते थे। वे गत के समय बाहर निकलकर इधर-उधर टहल रहे थे; इतने में उन्हें उस राजकुमार का आर्त्तनाद सुनाई दिया। उन्होंने सोचा कि मेरे जैसे दया-दाक्षिण्य के व्रती मुनि के पास रहते हुए यदि यह मनुष्य मर जाएगा, तो यह बहुत ही अनुताप की बात होगी। अतः जिस प्रकार होगा, मैं इसका उद्धार करूँगा। यह सोचकर उन्होंने उसको आश्वासन देते हुए कहा—डरो मत, डरो मत, और वे नदी में कूद पड़े। उनके शरीर में हाथी के समान वल था। वे चट उस तने को खींचकर तट पर ले आए और उस पर से राजकुमार को उठा लिया। इसके उपरांत उन्होंने साँप, चूहे और तोते को देखा। उन सबको भी वे उठाकर अपने आश्रम में ले गए और वहाँ उन्होंने आग सुलगाकर उन सब प्राणियों को सेंकना आरंभ किया। पर पहले उन्होंने साँप, चूहे और तोते को सेंका था और तब राजकुमार को; क्योंकि उन्होंने सोचा कि मनुष्य की अपेक्षा ये तीनों प्राणी दुर्बल हैं; इसलिए पहले इन्हीं की परिचर्या करनी चाहिए। जिस समय वे फल आदि लाए, उस समय भी उन्होंने यही सोचकर पहले उन तीनों जीवों को और तब राजकुमार को भोजन कराया। यह देखकर दुष्टकुमार को बहुत क्रोध आया। उसने सोचा कि 'मैं राजपुत्र हूँ और यह भंड तपस्वी मेरी अपेक्षा इन जंतुओं का अधिक आदर करता है। बस उसके मन में बोधिसत्व के प्रति घोर घृणा उत्पन्न हो गई।

    बोधिसत्व की सेवा शुश्रूषा के कारण कुछ ही दिनों में राजकुमार और वे तीनों जंतु स्वस्थ और सबल हो गए। इतने में बाढ़ भी उतर गई। सब लोग वहाँ से चलने को उद्यत हुए। चलते समय साँप ने बोधिसत्व से कहा—आपने मेरे साथ बहुत उपकार किया है। मैं निर्धन नहीं हैं; क्योंकि अमुक स्थान में मेरी चालीस करोड़ स्वर्णमुद्राएँ गड़ी हैं। यदि आपको कभी आवश्यकता हो, तो आप वह सारा धन अपना ही समझिएगा। आप वहाँ पहुँचकर साँप, साँप कह‌कर पुकारिएगा। मैं तुरंत आपकी सेवा में उपस्थित होकर आपको वह धन दूँगा। चूहे ने कहा—आप मेरे बिल के पास पहुँचकर चूहे, चूहे” कहकर पुकारिएगा। मैं तुरंत बाहर निकलकर आपको अपनी तीस करोड़ स्वर्णमुद्राएँ दूँगा। तोते ने कहा—महाराज, मेरे पास धन संपत्ति कुछ भी नहीं है। तो भी यदि आपको कभो अच्छे धान की आवश्यकता हो, तो आप अमुक स्थान पर पहुँचकर तोते, तोते पुकारिएगा। मैं अपने साथियों की सहायता से आपको गाड़ियों बढ़िया धान ला दूँगा। मित्रद्रोही राजकुमार ने सोचा था कि जब कभी यह मेरे फँदे में फँसेगा, तब मैं इसे मार ही डालूँगा। पर फिर भी चलते समय उसने अपने मन का वह भाव छिपाकर कहा—जिस समय मैं राजा होऊँगा, उस समय आप कृपाकर एक बार मेरे राजभवन में पधारिएगा। मैं अन्न, वस्त्र, शय्या और भैषज्य इन चारों प्रकार के उपचारों से आपकी पूजा करूँगा। इसके कुछ ही दिनों के उपरांत वह दुष्टकुमार वाराणसी का राजा हो गया।

    एक दिन बोधिसत्व के जी में आया कि चलकर देखना चाहिए कि ये चारों अपनी-अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार कार्य करते हैं या नहीं। पहले वे साँप के पास पहुँचकर साँप, साँप चिल्लाने लगे। उनकी आवाज़ सुनते ही साँप बाहर निकल आया और प्रणाम करके बोला—महाराज, यह चालीस करोड़ मुद्राएँ प्रस्तुत हैं। आप ले जा सकते हैं। बोधिसत्व ने कहा—अच्छा, जब मुझे आवश्यकता होगी, तब मैं तुमसे कहूँगा। इसके उपरांत वे वहाँ से चलकर चूहे के बिल के पास पहुँचे और उसे पुकारा। वह भी साँप की भाँति चट बाहर निकल आया और अपना धन समर्पित करने लगा। इसके उपरांत बोधिसत्व उस तोते के पास पहुँचे और उसे पुकारने लगे। वह अपने वृक्ष पर ही बैठा हुआ था। उनकी आवाज़ सुनते ही वह नीचे उतर आया और बहुत ही आदरपूर्वक कहने लगा—महाराज, यदि आज्ञा हो तो मैं अभी अपने साथियों को लेकर जाऊँ और हिमालय की तराई में से आपके लिए अच्छे से अच्छा स्वयंजात धान लेता आऊँ।” बोधिसत्व ने कहा—अभी तो मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। जब आवश्यकता होगी, तब मैं तुम्हारी इस बात का स्मरण रखूँगा। अब तुम अपने स्थान पर जाकर बैठो।

    तोते से विदा होकर बोधिसत्व राजा की परीक्षा लेने के लिए वाराणसी पहुँचे और राजोद्यान में जा ठहरे। दूसरे दिन उन्होंने तपस्वियों के वेश में भिक्षाचर्या के लिए नगर में प्रवेश किया। उसी समय वह मित्रद्रोही राजा अनेक प्रकार के अलंकार आदि पहनकर हाथी पर सवार होकर अपने साथियों के साथ नगर के प्रदक्षिण के लिए बाहर निकला था। बोधिसत्व को दूर से ही देखकर उस दुष्ट ने मन में सोचा—यह वही भंड तपस्वी है और मेरे सिर पर चढ़कर चव्य-चूष्य भोजन करने के लिए आया है। इसने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसकी चर्चा का समय ही आने देना चाहिए; और उससे पहले ही इसका सिर कटवा देना चाहिए। यह सोचकर उसने अपने अनुचरों की ओर देखा। वे—महाराज, क्या आज्ञा है। कहकर उसके आदेश की प्रतीक्षा करने लगे। उसने कहा—यह भंड तपस्वी भिक्षा के लिए मुझे तंग करने आया है। यह मेरे पास तक पहुँचने पावे। इसे तुरंत पकड़कर बाँध लो और चौमुहानी-चौमुहानी पर खड़ा करके मारो। तब इसे नगर के बाहर श्मशान पर ले जाओ। वहाँ इसका सिर धड़ से अलग कर दो और तब कटा हुआ धड़ सूली में टाँग दो।

    सेवक लोग जो आज्ञा कहकर बोधिसत्व को पकड़कर श्मशान की ओर ले चले। मार्ग में वे चौमुहानी पर खड़े हो जाते थे और कोड़ों से उनको मारते थे। पर बोधिसत्व तो रोते थे और चिल्लाते थे। वे रह रहकर इस आशय की गाथा कहते जाते थे—यदि मनुष्य और काठ दोनों साथ ही पानी में बहे जाते हों, लो लोग कहते हैं कि काठ निकाल लो और मनुष्य को छोड़ दो। लोगों का यह कहना बहुत ठीक है। इसका अभिप्राय आज मेरी समझ में आया। यदि तुम काठ को निकालोगे, तो वह तुम्हारे काम आवेगा; पर यदि मनुष्य को निकालोगे, तो वह तुम्हारा शत्रु हो जाएगा।

    राजा के सेवक जिस समय बोधिसत्व को मारते थे, उस समय वे यही गाथा कहते थे। एक स्थान पर उनको देखकर बहुत से लोग एकत्र हो गए थे। उनमें से कुछ लोग विज्ञ थे। वे पूछने लगे—क्यों महाराज, क्या आपने हमारे राजा का कभी कोई उपकार किया था? इस पर बोधिसत्व ने विस्तारपूर्वक सब समाचार सुनाकर कहा—बस उसी भीषण बाढ़ में से बहते हुए तुम्हारे राजा को निकालने का यह परिणाम है। उस समय मैंने बुद्धिमानों के उपदेश के अनुसार काम नहीं किया था; इसीलिए इस समय मैं यह बात कह रहा हूँ।

    बोधिसत्व के मुँह से ये सब बातें सुनकर ब्राह्मण, क्षत्रिय सभी नगर-निवसी कहने लगे—यह राजा कैसा पापिष्ठ है! इन धर्म-परायण तपस्वी ने उसके प्राण बचाए थे। वह इनकी पूजा करके पलटे इनके साथ इस प्रकार का अत्याचार कर रहा है। ऐसे राजा से हम लोगों का भला क्या उपकार होगा! चलो, इस नराधम को अभी पकड़कर मारो। बस सब लोगों ने क्रोध के आवेश में जाकर राजा को चारों ओर से घेर लिया और तीर, शक्ति, मुद्गर, पत्थर जो जिसे मिला, उसी से वह राजा को मारने लगा; और इतना मारा कि उसके प्राण निकल गए। इसके उपरांत उन लोगों ने घसीटकर उसका मृत शरीर एक गड्ढ़े में फेंक दिया और बोधिसत्व को उसके स्थान पर सिंहासन पर बैठा दिया।

    राजपद पाकर बोधिसत्व धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे। एक दिन उनके जी में आया कि एक बार साँप, चूहे और तोते की और एक प्रकार से परीक्षा लेनी चाहिए। अतः वे साँप के बिल के पास पहुँचे और उसे पुकारने लगे। साँप बाहर निकल कर प्रणाम करके बोला—प्रभु, यह आपका धन है। इसे कृपाकर ग्रहण कीजिए। बोधिसत्व ने वह धन लेकर अपने सेवकों को दे दिया, और चूहे के पास पहुँचकर उसे पुकारने लगे। चूहे ने भी तुरंत अपनी तीस करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ उनकी सेवा में समर्पित कर दीं। वह धन भी अपने अनुचरों को देकर वे तोते के वृक्ष के पास पहुँचकर उसे बुलाने लगे। तोते ने भी चट आकर उनको प्रणाम किया और कहा—यदि आज्ञा हो तो जाकर धान ले आऊँ। बाधिसत्व ने कहा—जब आवश्यकता होगी तब कहूँगा। चलो, तुम लोगों को राजधानी में ले चलूँ। अब वे सत्तर करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ, साँप, चूहे और तोते को अपने साथ लेकर वाराणसी की ओर चले। एक मनोरम प्रासाद में पहुँचकर वह सब धन उन्होंने वहाँ रखवा दिया और साँप के रहने के लिए सोने की नली, चूहे के रहने के लिए स्फटिक का बिल और तोते के रहने के लिए सोने का पिंजरा बनवाया और उनमें उन्हें रख दिया। अब वे लोग भी पुण्य कृत्य करने लगे। इस प्रकार सब लोग प्रीतिपूर्वक अपना समय बिताने लगे और सब ने यथा समय अपने-अपने कर्मों का फल भोगने के लिए अपनी भव-लीला संवरण की।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 107)
    • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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