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पंचायुध जातक

panchyudh jatak

अज्ञात

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पंचायुध जातक

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    वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में बोधिसत्व ने महिषी के गर्भ में जन्म लिया था। उनके नामकरण के दिन उनके माता-पिता ने आठ सौ दैवज्ञ ब्राह्मणों को यथेष्ट भेंट देकर पूछा कि इस बालक का भाग्य कैसा होगा। दैवज्ञों ने बोधिसत्व को सुलक्षण संपन्न देखकर उत्तर दिया—महाराज, यह कुमार आपकी मृत्यु के उपरांत राजपद प्राप्त करेगा और सर्वगुण संपन्न तथा प्रबल प्रतापी होगा। पंचविध आयुधों1 के प्रभाव से इसका यश सारे देश में फैलेगा। सारे जंबू द्वीप में इसकी समता करनेवाला कोई न होगा। यह भविष्यद् वाणी सुनकर उनके माता-पिता ने उनका नाम पंचायुध कुमार रखा।

    जब बोधिसत्व सोलह वर्ष के हुए और उनको हिताहित समझने का विवेक हुआ, तब एक दिन ब्रह्मदत्त ने उनको बुलाकर कहा—बेटा अब तुम कुछ विद्या प्राप्त करो। बोविसत्व ने पूछा—पिता जी, में किससे विद्या प्राप्त करूँ? राजा ने कहा—गांधार राज्य की तक्षशिला नगरी में एक देशविख्यात आचार्य रहते हैं। तुम उन्हीं के पास जाकर विद्या पढ़ो और उनको एक सहस्त्र मुद्रा दक्षिणा दो।

    तक्षशिला जाकर बोधिसत्व विद्या पढ़ने लगे। अध्ययन समाप्त करने के उपरांत जब वे वाराणसी लौटने लगे; तब आचार्य ने उनको पंचविध आयुध दिए। बोधिसत्व ने वे आयुध लेकर आचार्य को प्रणाम किया और वाराणसी के लिए यात्रा की। मार्ग में एक वन पड़ता था जिसमें श्लेषलोम नामक एक यक्ष रहा करता था। जब बोधिसत्व उस वन के पास पहुँचे, तब जिन-जिन लोगों ने उनको देखा, उन-उन लोगों ने उनको आगे बढ़ने से रोका और कहा—महाराज, आप इस वन में प्रवेश न करे। इसमें श्लेषलोम नामक एक यक्ष रहता है। वह जिसे देखता है, उसे मार डालता है। पर बोधिसत्व अपने बल से परिचित थे। उन्होंने निर्भीकतापूर्वक सिंह की भाँति उस वन में प्रवेश किया और उसके मध्य भाग में जा पहुँचे। उस समय एक यक्ष बहुत ही भीषण मूर्ति धारण करके उनके सामने आया। उसका शरीर ताल के वृक्ष के समान, सिर कूटागार2 के समान, दोनों आँखें गमलों के समान, ऊपर के दो दाँत दो मूलियों के समान, मुख बाज पक्षी के मुख के समान, उदर अनेक प्रकार के रंगों से चित्रित और हाथ तथा पैर नील वर्ण के थे। उसने बोधिसत्व से कहा—कहाँ जा रहे हो? ठहरो, तुम मेरे खाद्य हो। बोधिसत्व ने कहा—देखो, मैं अपना बल समझकर ही इस वन में आया हूँ। तुम मेरे सामने चले आए, यह कोई बुद्धिमत्ता का काम नहीं किया; क्योंकि मैं विषक्ति वाण चलाकर तुम को वहीं गिरा दूँगा, जहाँ तुम इस समय खड़े हो। इतना कहकर उन्होंने शरासन में से विषाक्त शर निकाला और संधान करके यक्ष पर फेंका। पर वह शेर यक्ष के रोएँ में बिंधकर भूलने लगा। इसके उपरांत बोधिसत्व ने एक-एक करके पचास वाण चलाए; पर वे सभी वाण यक्ष के रोओं में ही बिंधकर रह गए, उसके शरीर में एक भी वाण न बिंध सका। यक्ष ने एक बार अपना शरीर हिलाकर वे सब वाण झटकारकर अपने पैरों के पास गिरा दिए और बोधिसत्व को पकड़ने के लिए वह आगे बढ़ा। बोधिसत्व ने हुंकार करते हुए कोप से खंग निकालकर उस पर प्रहार किया। वह खंग तैंतीस अंगुल लंबा था। पर वह भी यक्ष के रोओं को ही स्पर्श करके रह गया। इसके उपरांत बोधिसत्व ने पहले शक्ति से और तब मुद्गर से प्रहार किया। पर ये दोनों भी उस यक्ष के रोओं तक पहुँचकर ही रह गए और उन्ही में फँस गए। उस समय बोधिसत्व ने सिंह की भाँति गरजकर कहा—यक्ष, कदाचित् तुम यह नहीं जानते कि मेरा नाम पंचायुधकुमार है। तुम यह न समझना कि मैंने केवल धनुष वाण पर ही निर्भर करके इस वन में प्रवेश किया है। मेरे शरीर में भी विलक्षण बल हैं। अब में केवल एक मुक्के से तुम्हारी हड्डी पसली चूर-चूर करता हूँ। पर जब उन्होंने दाहिने हाथ के मुक्के से प्रहार किया, तब उनका दाहिना हाथ भी उसके रोओं में फँस गया। तब उन्होंने बाएँ हाथ से प्रहार किया, पर बायाँ हाथ भी फँस गया। उन्होंने दाहिने पैर से आघात किया, वह भी फँस गया; बाएँ पैर से आघात किया, वह भी फँस गया। परंतु उस समय भी बोधिसत्व हतोत्साह नहीं हुए। उन्होंने यह कहते हुए कि लो, अबकी तुम्हें में चूर-चूर किए देता हूँ। मस्तक से उस पर प्रहार किया। पर उनका मस्तक भी उसके रोओं में फँसकर रह गया। 

    इस प्रकार बोधिसत्व के पाँचों अंग उस यक्ष के रोओं में फँस गए और वे उसके शरीर में झूलने लगे। परंतु उनका मानसिक तेज अब भी ज्यों का त्यों था। अद्वितीय वीर जान पड़ता है। यज्ञ ने सोचा कि यह पुरुष मेरे जैसे यक्ष के हाथ में पड़कर भी यह विचलित नहीं हुआ। मैं इतने दिनों से इस वन में मनुष्य पकड़-पकड़ कर खाया करता हूँ, पर आज तक मैंने ऐसा निर्भीक मनुष्य नहीं देखा। इसका कारण क्या है कि इसे मुझसे कुछ भी भय नहीं लगता। उसे बोधिसत्व को खा जाने का साहस नहीं हुआ। उसने पूछा—क्यों जी, क्या तुम्हें मृत्यु का भय नहीं लगता?

    बोधिसत्व ने उत्तर दिया भला मृत्यु से मुझे भय क्यों होने लगा! यह तो निश्चय ही है कि एक बार जन्म लेना पड़ता है और एक बार मरना पड़ता है। इसके अतिरिक्त मेरे उदर में वज्रायुध3 है। 'तुम मुझे खा सकते हो, पर वह वज्रायुध तुम नहीं पचा सकते। वह तुम्हारी आँतें फाड़ डालेगा; इसलिए मेरी मृत्यु से तुम्हारी भी मृत्यु निश्चित है।

    बोधिसत्व की ये बातें सुनकर यक्ष सोचने लगा कि यह ब्राह्मणकुमार सत्य कह रहा है। ऐसे पुरुष-सिंह के शरीर का मूँग बराबर मांस भो नैं न पचा सकूँगा। इसे छोड़ ही देना ठीक है। इस प्रकार मन में डरकर उसने बोधिसत्व से कहा—ब्राह्मणकुमार, तुम पुरुष सिंह हो। तुम मेरे हाथों से राहुग्रस्त चंद्रमा के समान मुक्त होकर अपनी ज्ञाति और परिवार के लोगों के आनंद को वृद्धि करने के लिए अपने घर जाओ।

    बोधिसत्व ने कहा—यक्ष, मैं तो जाता हूँ; पर तुम्हारी क्या गति होगी? अपने पूर्वजन्मों के अकुशल या अनुचित कृत्यों के कारण इस जन्म में तुम अति लोभी, हिंसापरायण, रक्तमांसभोजी यक्ष हुए हो। यदि इस जन्म में भी तुम इसी प्रकार के अकुशल कर्मों में प्रवृत्त रहोगे, तो तुम्हें एक अंधकार में से दूसरे अंधकार में जाना पड़ेगा। पर जब तुमने मेरे दर्शन कर लिए, तब तुम ऐसे अकुशल कर्मों में आसक्त नहीं रह सकते। प्राणियों की हत्या करना महापाप है। इसका अनिवार्य परिणाम यह होता है कि निरय में जाना पड़ता है, तिर्यग्योनि में जन्म लेना पड़ता है, प्रेत या असुर बनना पड़ता है। यदि दैवात् कभी मनुष्य की योनि में भी जन्म हो गया, तो आयु बहुत ही कम होती है।

    बोधिसत्व ने इस प्रकार के उपदेश देकर उस यक्ष को पाँचों दुःशील कर्मों के अशुभ फल और पंचशील के शुभ फल बतलाए। इस प्रकार अनेक उपायों से उन्होंने यक्ष के मन में परलोक का भय उत्पन्न किया और उसे संयमी तथा पंचशील परायण बना दिया। इसके उपरांत उन्होंने उसे उस वन के देवता के पद पर स्थापित कर दिया, उसे पूजा और उपहार ग्रहण करने का अधिकारी बना दिया और उसे अप्रमत्त रहने के लिए सचेत करके वे उस वन से चले गए। मार्ग में जिन लोगों से उनकी भेंट हुई, उन लोगों को उन्होंने यह भी बता दिया कि यक्ष की प्रकृति में किस प्रकार का परिवर्तन हो गया है।

    अंत में पंचायुधकुमार ने वाराणसी में पहुँचकर अपने माता-पिता को प्रणाम किया। उन्होंने उत्तरकाल में स्वयं राजपद प्राप्त करके धर्मपूर्वक प्रजापालन किया और दानादि पुण्य कृत्य करते हुए वे अपने कर्मों का फल भोगने के लिए दूसरे लोक को चले गए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 96)
    • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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