प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
द्रौपदी के स्वयंवर में जो कुछ हुआ था, उसकी ख़बर जब हस्तिनापुर पहुँची तो विदुर बड़े ख़ुश हुए। धृतराष्ट्र के पास दौड़े गए और बोले—“पांडव अभी जीवित हैं। राजा द्रुपद की कन्या को स्वयंवर में अर्जुन ने प्राप्त किया है। पाँचों भाइयों ने विधिपूर्वक द्रौपदी के साथ ब्याह कर लिया है और कुंती के साथ वे सब द्रुपद के यहाँ कुशल से हैं।”
यह सुनकर धृतराष्ट्र हर्ष प्रकट करते हुए बोले—“भाई विदुर! तुम्हारी बातों से मुझे असीम आनंद हो रहा है। राजा द्रुपद की बेटी हमारी बहू बन गई है, यह बड़ा ही अच्छा हुआ।”
उधर दुर्योधन को जब मालूम हुआ कि पांडवों ने लाख के घर की भीषण आग से किसी तरह बचकर और एक बरस तक कहीं छिपे रहने के बाद अब पराक्रमी पांचालराज की कन्या से ब्याह कर लिया है और अब वे पहले से भी अधिक शक्तिशाली बन गए हैं, तो उनके प्रति उसके मन में ईर्ष्या की आग और अधिक प्रबल हो उठी। दबा हुआ वैर फिर से जाग उठा। दुर्योधन और दु:शासन ने शकुनि को अपना दुखड़ा सुनाया—“मामा अब क्या करें? अब तो द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न और शिखंडी भी उनके साथी बन गए हैं।”
उसके बाद कर्ण और दुर्योधन धृतराष्ट्र के पास गए और एकांत में उनसे दुर्योधन ने कहा—“पिता जी, जल्दी ही हम ऐसा कोई उपाय करें, जिससे हम सदा के लिए निश्चित हो सकें।
धृतराष्ट्र ने कहा, “बेटा, तुम बिल्कुल ठीक कहते हो। तुम्हीं बताओ, अब क्या करना चाहिए?”
दुर्योधन ने कहा, “तो फिर हमें कोई ऐसा उपाय करना चाहिए, जिससे पांडव यहाँ आएँ ही नहीं, क्योंकि यदि वे इधर आए, तो ज़रूर राज्य पर भी अपना अधिकार ज़माना चाहेंगे।”
इस पर कर्ण को हँसी आ गई। उसने कहा—“दुर्योधन! अब एक साल बाहर रहने और दुनिया देख लेने से उन्हें काफ़ी अनुभव प्राप्त हो चुका है। एक शक्ति संपन्न राजा के यहाँ उन्होंने शरण ली है। तिस पर उनके प्रति तुम्हारा वैरभाव उनसे छिपा नहीं है। इसलिए छल-प्रपंच से अब काम नहीं बनेगा। आपस में फूट डालकर भी उनको हराना संभव नहीं। राजा द्रुपद धन के प्रलोभन में पड़ने वाले व्यक्ति भी नहीं हैं। लालच देकर उनको अपने पक्ष में करने का विचार बेकार है। पांडवों का साथ वे कभी नहीं छोड़ेंगे द्रौपदी के मन में पांडवों के प्रति घृणा पैदा हो ही नहीं सकती। ऐसे विचार की ओर ध्यान देना भी ठीक नहीं है। हमारे पास केवल एक ही उपाय रह गया है और वह यह है कि पांडवों की ताक़त बढ़ने से पहले उन पर हमला कर दिया जाए।” कर्ण तथा अपने बेटों की परस्पर विरोधी बातें सुनकर धृतराष्ट्र इस बारे में कोई निर्णय नहीं ले सके। वे पितामह भीष्म तथा आचार्य द्रोण को बुलाकर उनसे सलाह-मशविरा करने लगे। पांडु पुत्रों के जीवित रहने की ख़बर पाकर पितामह भीष्म के मन में भी आनंद की लहरें उठ रही थीं।
भीष्म ने कहा—“बेटा! वीर पांडवों के साथ संधि करके आधा राज्य उन्हें दे देना ही उचित है।” आचार्य द्रोण ने भी यही सलाह दी। अंग नरेश कर्ण भी इस अवसर पर धृतराष्ट्र के दरबार में उपस्थित था। पांडवों को आधा राज्य देने की सलाह उसे बिलकुल अच्छी न लगी। दुर्योधन के प्रति कर्ण के हृदय में अपार स्नेह था। इस कारण द्रोणाचार्य की सलाह सुनकर उसके क्रोध की सीमा न रही। वह धृतराष्ट्र से बोला—“राजन्! मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि आचार्य द्रोण भी आपको ऐसी कुमंत्रणा देते हैं! राजन्! शासकों का कर्तव्य है कि मंत्रणा देने वालों की नीयत को पहले परख लें, फिर उनकी मंत्रणा पर ध्यान दें।” कर्ण की इन बातों से द्रोणाचार्य क्रोधित हो गरजकर बोले—“दुष्ट कर्ण तुम राजा को ग़लत रास्ता बता रहे हो। यह निश्चित है कि यदि राजा धृतराष्ट्र ने मेरी तथा पितामह भीष्म की सलाह न मानी और तुम जैसों की सलाह पर चले, तो फिर कौरवों का नाश होने वाला है।”
इसके बाद धृतराष्ट्र ने धर्मात्मा विदुर से सलाह ली। विदुर ने कहा—“हमारे कुल के नायक भीष्म तथा आचार्य द्रोण ने जो बताया है, वही श्रेयस्कर है। कर्ण की सलाह किसी काम की नहीं है।”
अंत में सब सोच-विचारकर धृतराष्ट्र ने पांडु के पुत्रों को आधा राज्य देकर संधि कर लेने का निश्चय किया और पांडवों को द्रौपदी तथा कुंती सहित सादर लिवा लाने के लिए विदुर को पांचाल देश भेजा। विदुर पांचाल देश को रवाना हो गए। पांचाल देश में पहुँचकर विदुर ने राजा द्रुपद को अमूल्य उपहार भेंट करके उनका सम्मान किया और राजा धृतराष्ट्र की तरफ़ से अनुरोध किया कि पांडवों को द्रौपदी सहित हस्तिनापुर जाने की अनुमति दें। विदुर का अनुरोध सुनकर राजा द्रुपद के मन में शंका हुई। उनको धृतराष्ट्र पर विश्वास न हुआ। सिर्फ़ इतना कह दिया कि पांडवों की जैसी इच्छा हो, वही करना ठीक होगा। तब विदुर ने माता कुंती के पास जाकर अपने आने का कारण उन्हें बताया कुंती के मन में भी शंका हुई कि कहीं पुत्रों पर फिर कोई आफ़त न आ जाए।
विदुर ने उन्हें समझाया और धीरज देते हुए कहा—“देवी, आप निश्चित रहें। आपके बेटों का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। वे संसार में ख़ूब यश कमाएँगे और विशाल राज्य के स्वामी बनेंगे। आप सब बेखटके हस्तिनापुर चलिए।”
आख़िर द्रुपद राजा ने भी अनुमति दे दी और विदुर के साथ कुंती और द्रौपदी समेत पांडव हस्तिनापुर को रवाना हो गए।
उधर हस्तिनापुर में पांडवों के स्वागत की बड़ी धूमधाम से तैयारियाँ होने लगीं। जैसा कि पहले ही निश्चय हो चुका था, युधिष्ठिर का यथाविधि राज्याभिषेक हुआ और आधा राज्य पांडवों के अधीन किया गया। राज्याभिषेक के उपरांत युधिष्ठिर को आशीर्वाद देते हुए धृतराष्ट्र ने कहा—“बेटा युधिष्ठिर! मेरे अपने बेटे बड़े दुरात्मा हैं। एक साथ रहने से संभव है कि तुम लोगों के बीच वैर बढ़े। इस कारण मेरी सलाह है। कि तुम खांडवप्रस्थ को अपनी राजधानी बना लेना और वहीं से राज करना। खांडवप्रस्थ वह नगरी है, जो पुरु नहुष एवं ययाति जैसे हमारे प्रतापी पूर्वजों की राजधानी रही है। हमारे वंश की पुरानी राजधानी खांडवप्रस्थ को फिर से बसाने का यश और श्रेय तुम्हीं को प्राप्त हो।”
धृतराष्ट्र के मीठे वचन मानकर पांडवों ने खांडवप्रस्थ के भग्नावशेषों पर, जोकि उस समय तक निर्जन वन बन चुका था, निपुण शिल्पकारों एक नए नगर का निर्माण कराया। सुंदर भवनों, अभेद्य दुर्गा आदि से सुशोभित उस नगर का नाम इंद्रप्रस्थ रखा गया। इंद्रप्रस्थ की शान एवं सुंदरता ऐसी हो गई कि सारा संसार उसकी प्रशंसा करते न थकता था। अपनी राजधानी में द्रौपदी और माता कुंती के साथ पाँचों पांडव तेईस बरस तक सुखपूर्वक जीवन बिताते हुए न्यायपूर्वक राज्य करते रहे।
draupadi ke svyanvar mein jo kuch hua tha, uski khabar jab hastinapur pahunchi to vidur baDe khush hue. dhritarashtr ke paas dauDe ge aur bole—“panDav abhi jivit hain. raja drupad ki kanya ko svyanvar mein arjun ne praapt kiya hai. panchon bhaiyon ne vidhipurvak draupadi ke saath byaah kar liya hai aur kunti ke saath ve sab drupad ke yahan kushal se hain. ”
ye sunkar dhritarashtr harsh prakat karte hue bole—“bhai vidur! tumhari baton se mujhe asim anand ho raha hai. raja drupad ki beti hamari bahu ban gai hai, ye baDa hi achchha hua. ”
udhar duryodhan ko jab malum hua ki panDvon ne laakh ke ghar ki bhishan aag se kisi tarah bachkar aur ek baras tak kahin chhipe rahne ke baad ab parakrami panchalraj ki kanya se byaah kar liya hai aur ab ve pahle se bhi adhik shaktishali ban ge hain, to unke prati uske man mein iirshya ki aag aur adhik prabal ho uthi. daba hua vair phir se jaag utha. duryodhan aur duhshasan ne shakuni ko apna—“mama ab kya karen? ab to dukhDa sunaya drupadakumar dhrishtadyumn aur shikhanDi bhi unke sathi ban ge hain. ”
uske baad karn aur duryodhan dhritarashtr ke paas ge aur ekaant mein unse duryodhan ne kaha—“pita ji, jaldi hi hum aisa koi upaay karen, jisse hum sada ke liye nishchit ho saken.
dhritarashtr ne kaha, “beta, tum bilkul theek kahte ho. tumhin batao, ab kya karna chahiye?”
duryodhan ne kaha, “to phir hamein koi aisa upaay karna chahiye, jisse panDav yahan ayen hi nahin, kyonki yadi ve idhar aaye, to zarur rajya par bhi apna adhikar zamana chahenge. ”
is par karn ko hansi aa gai. usne kaha—“duryodhan! ab ek saal bahar rahne aur duniya dekh lene se unhen kafi anubhav praapt ho chuka hai. ek shakti sampann raja ke yahan unhonne sharan li hai. tis par unke prati tumhara vairbhav unse chhipa nahin hai. isliye chhal prpanch se ab kaam nahin banega. aapas mein phoot Dalkar bhi unko harana sambhav nahin. raja drupad dhan ke pralobhan mein paDnevale vyakti bhi nahin hain. lalach dekar unko apne paksh mein karne ka vichar bekar hai. panDvon ka saath ve kabhi nahin chhoDenge draupadi ke man mein panDvon ke prati ghrina paida ho hi nahin sakti. aise vichar ki or dhyaan dena bhi theek nahin hai. hamare paas keval ek hi upaay rah gaya hai aur wo ye hai ki panDvon ki taqat baDhne se pahle un par hamla kar diya jaye. ” karn tatha apne beton ki paraspar virodhi baten sunkar dhritarashtr is bare mein koi nirnay nahin le sake. ve pitamah bheeshm tatha acharya dron ko bulakar unse salah mashavira karne lage. panDu putron ke jivit rahne ki khabar pakar pitamah bheeshm ke man mein bhi anand ki lahren uth rahi theen.
bheeshm ne kaha—“beta! veer panDvon ke saath sandhi karke aadha rajya unhen de dena hi uchit hai. ” acharya dron ne bhi yahi salah di. ang naresh karn bhi is avsar par dhritarashtr ke darbar mein upasthit tha. panDvon ko aadha rajya dene ki salah use bilkul achchhi na lagi. duryodhan ke prati karn ke hriday mein apar sneh tha. is karan dronacharya ki salah sunkar uske krodh ki sima na rahi. wo dhritarashtr se bola—“rajan! mujhe ye dekhkar baDa ashcharya ho raha hai ki acharya dron bhi aapko aisi kumantrna dete hain! rajan! shaskon ka kartavya hai ki mantrna denevalon ki niyat ko pahle parakh len, phir unki mantrna par dhyaan den. ” karn ki in baton se dronacharya krodhit ho garajkar bole—“dusht karn tum raja ko ghalat rasta bata rahe ho. ye nishchit hai ki yadi raja dhritarashtr ne meri tatha jaison ne pitamah bheeshm ki salah na mani aur tum ki salah par chale, to phir kaurvon ka naash honevala hai. ”
iske baad dhritarashtr ne dharmatma vidur se salah li. vidur ne kaha—“hamare kul ke nayak bheeshm tatha acharya dron ne jo bataya hai, vahi shreyaskar hai. karn ki salah kisi kaam ki nahin hai. ”
ant mein sab soch vicharkar dhritarashtr ne panDu ke putron ko aadha rajya dekar sandhi kar lene ka nishchay kiya aur panDvon ko draupadi tatha kunti sahit sadar liva lane ke liye vidur ko panchal desh bheja. vidur panchal desh ko ravana ho ge. panchal desh mein pahunchakar vidur ne raja drupad ko amulya uphaar bhent karke unka samman kiya aur raja dhritarashtr ki taraf se anurodh kiya ki panDvon ko draupadi sahit hastinapur jane ki anumti den. vidur ka anurodh sunkar raja drupad ke man mein shanka hui. unko dhritarashtr par vishvas na hua. sirf itna kah diya ki panDvon ki jaisi ichchha ho, vahi karna theek hoga. tab vidur ne mata kunti ke paas jakar apne aane ka karan unhen bataya kunti ke man mein bhi shanka hui ki kahin putron par phir koi aafat na aa jaye.
vidur ne unhen samjhaya aur dhiraj dete hue kaha—“devi, aap nishchit rahen. aapke beton ka koi kuch nahin bigaD sakega. ve sansar mein khoob yash kamayenge aur vishal rajya ke svami banenge. aap sab bekhatke hastinapur chaliye. ”
akhir drupad raja ne bhi anumti de di aur vidur ke saath kunti aur draupadi samet panDav hastinapur ko ravana ho ge.
udhar hastinapur mein panDvon ke svagat ki baDi dhumdham se taiyariyan hone lagin. jaisaki pahle hi nishchay ho chuka tha, yudhishthir ka yathavidhi rajyabhishek hua aur aadha rajya panDvon ke adhin kiya gaya. rajyabhishek ke upraant yudhishthir ko ashirvad dete hue dhritarashtr ne kaha—“beta yudhishthir! mere apne bete baDe duratma hain. ek saath rahne se sambhav hai ki tum logon ke beech vair baDhe. is karan meri salah hai. ki tum khanDvaprasth ko apni rajdhani bana lena aur vahin se raaj karna. khanDvaprasth wo nagri hai, jo puru nahush evan yayati jaise hamare pratapi purvjon ki rajdhani rahi hai. hamare vansh ki purani rajdhani khanDvaprasth ko phir se basane ka yash aur shrey tumhin ko praapt ho. ”
dhritarashtr ke mithe vachan mankar panDvon ne khanDvaprasth ke bhagnavsheshon par, joki us samay tak nirjan van ban chuka tha, nipun shilpkaron ek ne nagar ka nirman karaya. sundar bhavnon, abhedya durga aadi se sushobhit us nagar ka naam indraprastha rakha gaya. indraprastha ki shaan evan sundarta aisi ho gai ki sara sansar uski prshansa karte na thakta tha. apni rajdhani mein draupadi aur mata kunti ke saath panchon panDav teis baras tak sukhpurvak jivan bitate hue nyaypurvak rajya karte rahe.
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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