प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
धृतराष्ट्र की बात मानकर विदुर पांडवों के पास आए। उनको देखकर महाराज युधिष्ठिर उठे और उनका यथोचित स्वागत-सत्कार किया। विदुर आसन पर बैठते हुए शांति से बोले—“हस्तिनापुर में खेल के लिए एक सभा मंडप बनाया गया है, जो तुम्हारे मंडप के समान ही सुंदर है राजा धृतराष्ट्र की ओर से उसे देखने चलने के लिए मैं तुम लोगों को न्यौता देने आया हूँ। राजा धृतराष्ट्र की इच्छा है कि तुम सब भाइयों सहित वहाँ आओ, उस मंडप को देखो और दो हाथ चौसर भी खेल जाओ।”
युधिष्ठिर ने कहा—“चाचा जी! चौसर का खेल अच्छा नहीं है। उससे आपस में झगड़े पैदा होते हैं। समझदार लोग उसे पसंद नहीं करते हैं। लेकिन इस मामले में हम तो आप ही के आदेशानुसार चलने वाले हैं। आपकी सलाह क्या है?”
विदुर बोले—“यह तो किसी से छिपा नहीं है कि चौसर का खेल सारे अनर्थ की जड़ होता है। मैंने तो भरसक कोशिश की थी कि इसे न होने दूँ, किंतु राजा ने आज्ञा दी है कि तुम्हें खेल के लिए न्यौता दे ही आऊँ इसलिए आना पड़ा। अब तुम्हारी जो इच्छा हो करो।”
राजवंशों की रीति के अनुसार किसी को भी खेल के लिए बुलावा मिल जाने पर उसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता था। इसके अलावा युधिष्ठिर को डर था कि कहीं खेल में न जाने को ही धृतराष्ट्र अपना अपमान न समझ लें और यही बात कहीं लड़ाई का कारण न बन जाए। इन्हीं सब विचारों से प्रेरित होकर समझदार युधिष्ठिर ने न्यौता स्वीकार कर लिया, यद्यपि विदुर ने उन्हें चेता दिया था। युधिष्ठिर अपने परिवार के साथ हस्तिनापुर पहुँच गए। नगर के पास ही उनके लिए एक सुंदर विश्राम गृह बना था। वहाँ ठहरकर उन्होंने आराम किया। अगले दिन सुबह नहा-धोकर सभा मंडप में जा पहुँचे।
कुशल समाचार पूछने के बाद शकुनि ने कहा—“युधिष्ठिर, खेल के लिए चौपड़ बिछा हुआ है। चलिए, दो हाथ खेल लें।”
युधिष्ठिर बोले—“राजन्, यह खेल ठीक नहीं है! बाज़ी जीत लेना साहस का काम नहीं है। जुआ खेलना धोखा देने के समान है। आप तो यह सब बातें जानते ही हैं।”
वह बोला—“आप भी क्या कहते हैं, महाराज! यह भी कोई धोखे की बात है! हाँ, यह कहिए कि आपको हार जाने का डर लग रहा है।”
युधिष्ठिर कुछ गर्म होकर बोले—“राजन्! ऐसी बात नहीं है। अगर मुझे खेलने को कहा गया, तो मैं ना नहीं करूँगा। आप कहते हैं, तो मैं तैयार हूँ। मेरे साथ खेलेगा कौन?”
दुर्योधन तुरंत बोल उठा—“मेरी जगह खेलेंगे तो मामा शकुनि किंतु दाँव लगाने के लिए जो धन-रत्नादि चाहिए, वह मैं दूँगा।”
युधिष्ठिर बोले—“मेरी राय यह है कि किसी एक की जगह दूसरे को नहीं खेलना चाहिए। यह खेल के साधारण नियमों के विरुद्ध है।”
“अच्छा तो अब दूसरा बहाना बना लिया।” शकुनि ने हँसते हुए कहा।
युधिष्ठिर ने कहा—“ठीक है। कोई बात नहीं, मैं खेलूँगा।” और खेल शुरू हुआ। सारा मंडप दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था। द्रोण, भीष्म, कृप, विदुर, धृतराष्ट्र जैसे वयोवृद्ध भी उपस्थित थे। वे उसे रोक नहीं सके थे। उनके चेहरों पर उदासी छाई हुई थी। अन्य कौरव राजकुमार बड़े चाव से खेल को देख रहे थे।
पहले रत्नों की बाज़ी लगी, फिर सोने-चाँदी के खज़ानों की। उसके बाद रथों और घोड़ों की। तीनों दाँव युधिष्ठिर हार गए। शकुनि का पासा मानो उसके इशारों पर चलता था। खेल में युधिष्ठिर बारी-बारी से अपनी गायें, भेड़, बकरियाँ, दास-दासी, रथ, घोड़े, सेना, देश, देश की प्रजा सब खो बैठे। भाइयों के शरीरों पर जो आभूषण और वस्त्र थे, उनको भी बाज़ी पर लगा दिया और हार गए।
“और कुछ बाक़ी है? शकुनि ने पूछा।
“यह साँवले रंग का सुंदर युवक, मेरा भाई नकुल खड़ा है। वह भी मेरा ही धन है। इसकी बाज़ी लगाता हूँ। चलो!” युधिष्ठिर ने जोश के साथ कहा।
शकुनि ने कहा—“अच्छा तो यह बात है! तो यह लीजिए। आपका प्यारा राजकुमार अब हमारा हो गया! कहते-कहते शकुनि ने पासा फेंका और बाज़ी मार ली।
युधिष्ठिर ने कहा—“यह मेरा भाई सहदेव, जिसने सारी विद्याओं का पार पा लिया है। इसकी बाज़ी लगाना उचित तो नहीं है, फिर भी लगाता हूँ। चलो देखा जाएगा।”
“यह चला और वह जीता” कहते हुए शकुनि ने पासा फेंका। सहदेव को भी युधिष्ठिर गँवा बैठे।
अब दुरात्मा शकुनि को आशंका हुई कि कहीं युधिष्ठिर खेल बंद न कर दें। बोला—“युधिष्ठिर शायद आपकी निगाह में भीमसेन और अर्जुन माद्री के बेटों से ज़्यादा मूल्यवान हैं। सो उनको बाज़ी पर आप लगाएँगे नहीं।”
युधिष्ठिर ने कहा—“मूर्ख शकुनि! तुम्हारी चाल यह मालूम होती है कि हम भाइयों में आपस में फूट पड़ जाए! सो तुम क्या जानो कि हम पाँचों भाइयों के संबंध क्या हैं? पराक्रम में जिसका कोई सानी नहीं है, उस अपने भाई अर्जुन को मैं दाँव पर लगाता हूँ। चलो।”
शकुनि यही तो चाहता था। “तो यह चला”, कहते हुए पासा फेंका और अर्जुन भी हाथ से निकल गया। असीम दुर्दैव मानो युधिष्ठिर को बेबस कर रहा था और उन्हें पतन की ओर बलपूर्वक लिए जा रहा था। वह बोले—“राजन्! शारीरिक बल में संसार भर में जिसका कोई जोड़ीदार नहीं है, अपने उस भाई को मैं दाँव पर लगाता हूँ।” यह कहते कहते युधिष्ठिर भीमसेन से भी हाथ धो बैठे।
दुष्टात्मा शकुनि ने तब भी नहीं छोड़ा। पूछा—“और कुछ?”
युधिष्ठिर ने कहा—“हाँ! यदि इस बार तुम जीत गए, तो मैं ख़ुद तुम्हारे अधीन हो जाऊँगा।”
“लो, यह जीता!” कहते हुए शकुनि ने पासा फेंका और यह बाज़ी भी ले गया।
इस पर शकुनि सभा के बीच उठ खड़ा हुआ और पाँचों पांडवों को एक-एक करके पुकारा और घोषणा की कि वे अब उसके ग़ुलाम हो चुके हैं। शकुनि को दाद देनेवालों के हर्षनाद से और पांडवों की इस दुर्दशा पर तरस खानेवालों के हाहाकार से सारा सभा मंडप गूँज उठा। सभा में इस तरह खलबली मचने के बाद शकुनि ने युधिष्ठिर से कहा—“एक और चीज़ है, जो तुमने अभी हारी नहीं है। उसकी बाज़ी लगाओ, तो तुम अपने-आपको भी छुड़ा सकते हो। अपनी पत्नी द्रौपदी को तुम दाँव पर क्यों नहीं लगाते?” और जुए के नशे में चूर युधिष्ठिर के मुँह से निकल पड़ा “चलो अपनी पत्नी द्रौपदी की भी मैंने बाज़ी लगाई!” उनके मुँह से यह निकल तो गया, पर उसके परिणाम को सोचकर वह विकल हो उठे कि 'हाय यह मैंने क्या कर डाला!’
युधिष्ठिर की इस बात पर सारी सभा में एकदम हाहाकार मच गया। जहाँ वृद्ध लोग बैठे थे, उधर से धिक्कार की आवाज़ें आने लगीं। लोग बोले—“छिः-छिः, कैसा घोर पाप है!” कुछ ने आँसू बहाए और कुछ लोग परेशानी के मारे पसीने से तर-बतर हो गए। दुर्योधन और उसके भाइयों ने बड़ा शोर मचाया। पर युयुत्सु नाम का धृतराष्ट्र का एक बेटा शोक संतप्त हो उठा और ठंडी आह भरकर उसने सिर झुका लिया।
शकुनि ने पासा फेंककर कहा—“यह लो, यह बाज़ी भी मेरी ही रही।”
बस, फिर क्या था? दुर्योधन ने विदुर को आदेश देते हुए कहा—“आप अभी रनवास में जाएँ और द्रौपदी को यहाँ ले आएँ। उससे कहें कि जल्दी आए।”
विदुर बोले—“मूर्ख! नाहक क्यों मृत्यु को न्यौता देने चला है। अपनी विषम परिस्थिति का तुम्हें ज्ञान नहीं है।”
दुर्योधन को यों फटकारने के बाद विदुर सभासदों की ओर देखकर कहा “अपने को हार चुकने के बाद युधिष्ठिर को कोई अधिकार नहीं था कि वह पांचालराज की बेटी को दाँव पर लगाए।”
विदुर की बातों से दुर्योधन बौखला उठा। अपने सारथी प्रातिकामी को बुलाकर कहा—“विदुर तो हमसे जलते हैं और पांडवों से डरते हैं। रनवास में जाओ और द्रौपदी को बुला लाओ।”
आज्ञा पाकर प्रातिकामी रनवास में गया और द्रौपदी से बोला—“द्रुपदराज की पुत्री! चौसर के खेल में युधिष्ठिर आपको दाँव में हार बैठे हैं। आप अब राजा दुर्योधन के अधीन हो गई हैं। राजा की आज्ञा है कि अब आपको धृतराष्ट्र के महल में दासी का काम करना है। मैं आपको ले जाने के लिए आया हूँ।”
सारथी ने जुए के खेल में जो कुछ हुआ था, उसका सारा हाल कह सनाया।
वह प्रातिकामी से बोली—“रथवान! जाकर उन हारने वाले जुए के खिलाड़ी से पूछो कि पहले वह अपने को हारे थे या मुझे? सारी सभा में यह प्रश्न उनसे करना और जो उत्तर मिले, वह मुझे आकर बताओ। उसके बाद मुझे ले जाना।”
प्रातिकामी ने जाकर भरी सभा के सामने युधिष्ठिर से वही प्रश्न किया, जो द्रौपदी ने उसे बताया था। इस पर दुर्योधन ने प्रातिकामी से कहा—“द्रौपदी से जाकर कह दो कि वह स्वयं ही आकर अपने पति से यह प्रश्न कर ले।”
प्रातिकामी दुबारा रनवास में गया और द्रौपदी के आगे झुककर बड़ी नम्रता से बोला—“देवि! दुर्योधन की आज्ञा है कि आप सभा में आकर स्वयं ही युधिष्ठिर से प्रश्न कर लें।”
द्रौपदी ने कहा—“नहीं, मैं वहाँ नहीं जाऊँगी। अगर युधिष्ठिर जवाब नहीं देते, तो सभा में जो सज्जन विद्यमान हैं, उन सबको तुम मेरा प्रश्न जाकर सुनाओ और उसका उत्तर आकर मुझे बताओ।”
प्रातिकामी लौटकर फिर सभा में गया और सभासदों को द्रौपदी का प्रश्न सुनाया। यह सुनकर दुर्योधन झल्ला उठा। अपने भाई दुःशासन से बोला—“दुःशासन, यह सारथी भीमसेन से डरता मालूम होता है। तुम्हीं जाकर उस घमंडी औरत को ले आओ।”
दुरात्मा दुःशासन के लिए इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी। उसने द्रौपदी के गुँथे हुए बाल बिखेर डाले, गहने तोड़-फोड़ दिए और उसके बाल पकड़कर बलपूर्वक घसीटता हुआ सभा की ओर ले जाने लगा। द्रौपदी विकल हो उठी। द्रौपदी की ऐसी दीन अवस्था देखकर धृतराष्ट्र के एक बेटे विकर्ण को बड़ा दुख हुआ।
उससे नहीं रहा गया। वह बोला—“उपस्थित वीरो! सुनिए, चौसर के खेल के लिए युधिष्ठिर को धोखे से बुलावा दिया गया था। वह धोखा खाकर इस जाल में फँस गए और अपनी स्त्री तक की बाज़ी लगा दी। यह सारा कार्य न्यायोचित नहीं है। दूसरी बात यह है कि द्रौपदी अकेले युधिष्ठिर की ही पत्नी नहीं है, बल्कि पाँचों पांडवों की पत्नी है। इसलिए उसको दाँव पर लगाने का अकेले युधिष्ठिर को कोई हक़ नहीं था। इसके अलावा ख़ास बात यह है कि एक बार जब युधिष्ठिर ख़ुद को ही दाँव में हार गए थे, तो उनको द्रौपदी की बाज़ी लगाने का अधिकार ही क्या था? मेरी एक और आपत्ति यह है कि शकुनि ने द्रौपदी का नाम लेकर युधिष्ठिर को उसकी बाज़ी लगाने के लिए उकसाया था। लोगों ने चौसर के खेल के जो नियम बना रखें हैं, यह उनके बिलकुल विरुद्ध है। इन सब बातों के आधार पर मैं इस सारे खेल को नियम विरुद्ध ठहराता हूँ। मेरी राय में द्रौपदी नियमपूर्वक नहीं जीती गई है।”
युवक विकर्ण के भाषण से वहाँ उपस्थित लोगों के विवेक पर से भ्रम का पर्दा हट गया। सभा में बड़ा कोलाहल मच गया। यह सब देखकर कर्ण उठ खड़ा हुआ और क्रुद्ध होकर बोला—“विकर्ण, अभी तुम बच्चे हो। सभा में इतने बड़े-बूढ़ों के होते हुए तुम कैसे बोल पड़े! तुम्हें यहाँ बोलने और तर्क-वितर्क करने का कोई अधिकार नहीं हैं।”
यह देखकर दु:शासन द्रौपदी के पास गया और उसका वस्त्र पकड़कर खींचनें लगा। ज्यों-ज्यों वह खींचता गया त्यों-त्यों वस्त्र भी बढ़ता गया। अंत में खींचते-खींचते की दोनों भुजाएँ थक गई। हाँफता हुआ वह थकान से चूर होकर बैठ गया। सभा के लोगों में कंपकंपी-सी फैल गई और धीमे स्वर में बातें होने लगीं। इतने में भीमसेन उठा। उसके होंठ मारे क्रोध के फड़क रहे थे। ऊँचे स्वर में उसने यह भयानक प्रतिज्ञा की, “उपस्थित सज्जनो! मैं शपथ खाकर कहता हूँ कि जब तक, भरत वंश पर बट्टा लगाने वाले इस दुरात्मा दुःशासन की छाती चीर न लूँगा, तब तक इस संसार को छोड़कर नहीं जाऊँगा।” भीमसेन की इस प्रतिज्ञा को सुनकर उपस्थित लोगों के हृदय भय के मारे थर्रा उठे।
इन सब लक्षणों से धृतराष्ट्र ने समझ लिया कि यह सब ठीक नहीं हुआ है। उन्होंने अनुभव किया कि जो कुछ हो चुका है, उसका परिणाम शुभ नहीं होगा। यह उनके पुत्रों और कुल के विनाश का कारण बन जाएगा। उन्होंने परिस्थिति को सँभालने के इरादे से द्रौपदी को बड़े प्रेम से अपने पास बुलाया और शांत किया तथा सांत्वना दी। उसके बाद वह युधिष्ठिर की ओर मुड़कर बोले—“युधिष्ठिर तुम तो अजातशत्रु हो। उदार हृदय के भी हो। दुर्योधन की इस कुचाल को क्षमा करो और इन बातों को मन से निकाल दो और भूल जाओ अपना राज्य तथा संपत्ति आदि सब ले जाओ और इंद्रप्रस्थ जाकर सुखपूर्वक रहो!”
धृतराष्ट्र की इन मीठी बातों को सुनकर पांडवों के दिल शांत हो गए और यथोचित अभिवादनादि के उपरांत द्रौपदी और कुंती सहित सब पांडव इंद्रप्रस्थ के लिए विदा हो गए। पांडवों के विदा हो जाने के बाद कौरवों में बड़ी हलचल मच गई। पांडवों के इस प्रकार अपने पंजे साफ़ निकल जाने के कारण कौरव बड़ा क्रोध-प्रदर्शन करने लगे और दु:शासन तथा शकुनि के उकसाने पर के उकसाने पर दुर्योधन पुनः अपने पिता धृतराष्ट्र के सिर पर सवार हो गया और पांडवों को खेल के लिए एक बार और बुलाने को उनको राज़ी कर लिया। युधिष्ठिर को खेल के लिए बुलाने को फिर दूत भेजा गया। पिछली घटना के कारण दुखी होते हुए भी युधिष्ठिर को यह निमंत्रण स्वीकार करना पड़ा। युधिष्ठिर हस्तिनापुर लौटे और शनि के साथ फिर चौपड़ खेला। इस बार खेल में यह शर्त थी कि हारा हुआ दल अपने भाइयों के साथ बारह वर्ष तक वनवास करेगा तथा उसके उपरांत एक वर्ष अज्ञातवास में रहेगा। यदि इस एक वर्ष में उनका पता चल जाएगा, तो उन सबको बारह वर्ष का वनवास फिर से भोगना होगा। इस बार भी युधिष्ठिर हार गए और पांडव अपने किए वादे के अनुसार वन में चले गए।
dhritarashtr ki baat mankar vidur panDvon ke paas aaye. unko dekhkar maharaj yudhishthir uthe aur unka yathochit svagat satkar kiya. vidur aasan par baithte hue shanti se bole—“hastinapur mein khel ke liye ek sabha manDap banaya gaya hai, jo tumhare manDap ke saman hi sundar hai raja dhritarashtr ki or se use dekhne chalne ke liye main tum logon ko nyauta dene aaya hoon. raja dhritarashtr ki ichchha hai ki tum sab bhaiyon sahit vahan aao, us manDap ko dekho aur do haath chausar bhi khel jao. ”
yudhishthir ne kaha—“chacha jee! chausar ka khel achchha nahin hai. usse aapas mein jhagDe paida hote hain. samajhdar log use pasand nahin karte hain. lekin is mamle mein hum to aap hi ke adeshanusar chalnevale hain. apaki salah kya hai?”
vidur bole—“yah to kisi se chhipa nahin hai ki chausar ka khel sare anarth ki jaD hota hai. mainne to bharsak koshish ki thi ki ise na hone doon, kintu raja ne aagya di hai ki tumhein khel ke liye nyauta de hi auun isliye aana paDa. ab tumhari jo ichchha ho karo. ”
rajvanshon ki riti ke anusar kisi ko bhi khel ke liye bulava mil jane par use asvikar nahin kiya ja sakta tha. iske alava yudhishthir ko Dar tha ki kahin khel mein na jane ko hi dhritarashtr apna apman na samajh len aur yahi baat kahin laDai ka karan na ban jaye. inhin sab vicharon se prerit hokar samajhdar yudhishthir ne nyauta svikar kar liya, yadyapi vidur ne unhen cheta diya tha. yudhishthir apne parivar ke saath hastinapur pahunch ge. nagar ke paas hi unke liye ek sundar vishram grih bana tha. vahan thaharkar unhonne aram kiya. agle din subah nha dhokar sabha manDap mein ja pahunche.
kushal samachar puchhne ke baad shakuni ne kaha—“yudhishthir, khel ke liye chaupaD bichha hua hai. chaliye, do haath khel len. ”
yudhishthir bole—“rajan, ye khel theek nahin hai! bazi jeet lena sahas ka kaam nahin hai. jua khelna dhokha dene ke saman hai. aap to ye sab baten jante hi hain. ”
wo bola—“ap bhi kya kahte hain, maharaj! ye bhi koi dhokhe ki baat hai! haan, ye kahiye ki aapko haar jane ka Dar lag raha hai. ”
yudhishthir kuch garm hokar bole—“rajan! aisi baat nahin hai. agar mujhe khelne ko kaha gaya, to main na nahin karunga. aap kahte hain, to main taiyar hoon. mere saath khelega kaun?”
duryodhan turant bol utha—“meri jagah khelenge to mama shakuni kintu daanv lagane ke liye jo dhan ratnadi chahiye, wo main dunga. ”
yudhishthir bole—“meri raay ye hai ki kisi ek ki jagah dusre ko nahin khelna chahiye. ye khel ke sadharan niymon ke viruddh hai. ”
“achchha to ab dusra bahana bana liya. ” shakuni ne hanste hue kaha.
yudhishthir ne kaha—“thik hai. koi baat nahin, main khelunga. ” aur khel shuru hua. sara manDap darshkon se khachakhach bhara hua tha. dron, bheeshm, krip, vidur, dhritarashtr jaise vayovriddh bhi upasthit the. ve use rok nahin sake the. unke chehron par udasi chhai hui thi. anya kaurav rajakumar baDe chaav se khel ko dekh rahe the.
pahle ratnon ki bazi lagi, phir sone chandi ke khazanon ki. uske baad rathon aur ghoDon ki. tinon daanv yudhishthir haar ge. shakuni ka pasa mano uske isharon par chalta tha. khel mein yudhishthir bari bari se apni gayen, bheD, bakriyan, daas dasi, rath, ghoDe, sena, desh, desh ki praja sab kho baithe. bhaiyon ke shariron par jo abhushan aur vastra the, unko bhi bazi par laga diya aur haar ge.
“aur kuch baqi hai? shakuni ne puchha.
“yah sanvle rang ka sundar yuvak, mera bhai nakul khaDa hai. wo bhi mera hi dhan hai. iski bazi lagata hoon. chalo!” yudhishthir ne josh ke saath kaha.
shakuni ne kaha—“achchha to ye baat hai! to ye lijiye. aapka pyara rajakumar ab hamara ho gaya! kahte kahte shakuni ne pasa phenka aur bazi maar li.
yudhishthir ne kaha—“yah mera bhai sahdev, jisne sari vidyaon ka paar pa liya hai. iski bazi lagana uchit to nahin hai, phir bhi lagata hoon. chalo dekha jayega. ”
“yah chala aur wo jita” kahte hue shakuni ne pasa phenka. sahdev ko bhi yudhishthir ganva baithe.
ab duratma shakuni ko ashanka hui ki kahin yudhishthir khel band na kar den. bola—“yudhishthir shayad apaki nigah mein bhimasen aur arjun madri ke beton se jyada mulyavan hain. so unko baji par aap lagayenge nahin. ”
yudhishthir ne kaha—“murkh shakuni! tumhari chaal ye malum hoti hai ki hum bhaiyon mein aapas mein phoot paD jaye! so tum kya jano ki hum panchon bhaiyon ke sambandh kya hain? parakram mein jiska koi sani nahin hai, us apne bhai arjun ko main daanv par lagata hoon. chalo. ”
shakuni yahi to chahta tha. “to ye chala”, kahte hue pasa phenka aur arjun bhi haath se nikal gaya. asim durdaiv mano yudhishthir ko bebas kar raha tha aur unhen patan ki or balpurvak liye ja raha tha. wo bole—“rajan! sharirik bal mein sansarbhar mein jiska koi joDidar nahin hai, apne us bhai ko main daanv par lagata hoon. ” ye kahte kahte yudhishthir bhimasen se bhi haath dho baithe.
dushtatma shakuni ne tab bhi nahin chhoDa. puchha—“aur kuchh?”
yudhishthir ne kaha—“han! yadi is baar tum jeet ge, to main khud tumhare adhin ho jaunga. ”
“lo, ye jita!” kahte hue shakuni ne pasa phenka aur ye bazi bhi le gaya.
is par shakuni sabha ke beech uth khaDa hua aur panchon panDvon ko ek ek karke pukara aur ghoshna ki ki ve ab uske gulam ho chuke hain. shakuni ko daad denevalon ke harshanad se aur panDvon ki is durdasha par taras khanevalon ke hahakar se sara sabha manDap goonj utha. sabha mein is tarah khalbali machne ke baad shakuni ne yudhishthir se kaha—“ek aur cheez hai, jo tumne abhi hari nahin hai. uski bazi lagao, to tum apne aapko bhi chhuDa sakte ho. apni patni draupadi ko tum daanv par kyon nahin lagate?” aur jue ke nashe mein choor yudhishthir ke munh se nikal paDa “chalo apni patni draupadi ki bhi mainne bazi lagai!” unke munh se ye nikal to gaya, par uske parinam ko sochkar wo vikal ho uthe ki haay ye mainne kya kar Dala!’
yudhishthir ki is baat par sari sabha mein ekdam hahakar mach gaya. jahan vriddh log baithe the, udhar se dhikkar ki avazen aane lagin. log bole—“chhiः chhiः, kaisa ghor paap hai!” kuch ne ansu bahaye aur kuch log pareshani ke mare pasine se tar batar ho ge. duryodhan aur uske bhaiyon ne baDa shor machaya. par yuyutsu naam ka dhritarashtr ka ek beta shok santapt ho utha aur thanDi aah bharkar usne sir jhuka liya.
shakuni ne pasa phenkkar kaha—“yah lo, ye bazi bhi meri hi rahi. ”
bas, phir kya tha? duryodhan ne vidur ko adesh dete hue kaha—“ap abhi ranvas mein jayen aur draupadi ko yahan le ayen. usse kahen ki jaldi aaye. ”
vidur bole—“murkh! nahak kyon mrityu ko nyauta dene chala hai. apni visham paristhiti ka tumhein gyaan nahin hai. ”
duryodhan ko yon phatkarne ke baad vidur sabhasdon ki or dekhkar kaha “apne ko haar chukne ke baad yudhishthir ko koi adhikar nahin tha ki wo panchalraj ki beti ko daanv par lagaye. ”
vidur ki baton se duryodhan baukhla utha. apne sarthi pratikami ko bulakar kaha—“vidur to hamse jalte hain aur panDvon se Darte hain. ranvas mein jao aur draupadi ko bula lao. ”
aagya pakar pratikami ranvas mein gaya aur draupadi se bola—“drupadraj ki putri! chausar ke khel mein yudhishthir aapko daanv mein haar baithe hain. aap ab raja duryodhan ke adhin ho gai hain. raja ki aagya hai ki ab aapko dhritarashtr ke mahl mein dasi ka kaam karna hai. main aapko le jane ke liye aaya hoon. ”
sarthi ne jue ke khel mein jo kuch hua tha, uska sara haal kah sanaya.
wo pratikami se boli—“rathvan! jakar un harnevale jue ke khilaDi se puchho ki pahle wo apne ko hare the ya mujhe? sari sabha mein ye parashn unse karna aur jo uttar mile, wo mujhe aakar batao. uske baad mujhe le jana. ”
pratikami ne jakar bhari sabha ke samne yudhishthir se vahi parashn kiya, jo draupadi ne use bataya tha. is par duryodhan ne pratikami se kaha—“draupadi se jakar kah do ki wo svayan hi aakar apne pati se ye parashn kar le. ”
pratikami dobara ranvas mein gaya aur draupadi ke aage jhukkar baDi namrata se bola—“devi! duryodhan ki aagya hai ki aap sabha mein aakar svayan hi yudhishthir se parashn kar len. ”
draupadi ne kaha—“nahin, main vahan nahin jaungi. agar yudhishthir javab nahin dete, to sabha mein jo sajjan vidyaman hain, un sabko tum mera parashn jakar sunao aur uska uttar aakar mujhe batao. ”
pratikami lautkar phir sabha mein gaya aur sabhasdon ko draupadi ka parashn sunaya. ye sunkar duryodhan jhalla utha. apne bhai duःshasan se bola—“duःshasan, ye sarthi bhimasen se Darta malum hota hai. tumhin jakar us ghamanDi aurat ko le aao. ”
duratma duःshasan ke liye isse achchhi baat aur kya ho sakti thi. usne draupadi ke gunthe hue baal bikher Dale, gahne toD phoD diye aur uske baal pakaDkar balpurvak ghasitta hua sabha ki or le jane laga. draupadi vikal ho uthi. draupadi ki aisi deen avastha dekhkar dhritarashtr ke ek bete vikarn ko baDa dukh hua.
usse nahin raha gaya. wo bola—“upasthit viro! suniye, chausar ke khel ke liye yudhishthir ko dhokhe se bulava diya gaya tha. wo dhokha khakar is jaal mein phans ge aur apni stri tak ki bazi laga di. ye sara karya nyayochit nahin hai. dusri baat ye hai ki draupadi akele yudhishthir ki hi patni nahin hai, balki panchon panDvon ki patni hai. isliye usko daanv par lagane ka akele yudhishthir ko koi haq nahin tha. iske alava khaas baat ye hai ki ek baar jab yudhishthir khud ko hi daanv mein haar ge the, to unko draupadi ki bazi lagane ka adhikar hi kya tha? meri ek aur apatti ye hai ki shakuni ne draupadi ka naam lekar yudhishthir ko uski bazi lagane ke liye uksaya tha. logon ne chausar ke khel ke jo niyam bana rakhen hain, ye unke bilkul viruddh hai. in sab baton ke adhar par main is sare khel ko niyam viruddh thahrata hoon. meri raay mein draupadi niyampurvak nahin jiti gai hai. ”
yuvak vikarn ke bhashan se vahan upasthit logon ke vivek par se bhram ka parda hat gaya. sabha mein baDa kolahal mach gaya. ye sab dekhkar karn uth khaDa hua aur kruddh hokar bola—“vikarn, abhi tum bachche ho. sabha mein itne baDe buDhon ke hote hue tum kaise bol paDe! tumhein yahan bolne aur tark vitark karne ka koi adhikar nahin hain. ”
ye dekhkar duhshasan draupadi ke paas gaya aur uska vastra pakaDkar khinchnen laga. jyon jyon wo khinchta gaya tyon tyon vastra bhi baDhta gaya. ant mein khinchte khinchte ki donon bhujayen thak gai. hanphata hua wo thakan se choor hokar baith gaya. sabha ke logon mein kampkampi si phail gai aur dhime svar mein baten hone lagin. itne mein bhimasen utha. uske honth mare krodh ke phaDak rahe the. uunche svar mein usne ye bhayanak prtigya ki, “upasthit sajjno! main shapath khakar kahta hoon ki jab tak, bharat vansh par batta laganevale is duratma duःshasan ki chhati cheer na lunga, tab tak is sansar ko chhoDkar nahin jaunga. ” bhimasen ki is prtigya ko sunkar upasthit logon ke hriday bhay ke mare tharra uthe.
in sab lakshnon se dhritarashtr ne samajh liya ki ye sab theek nahin hua hai. unhonne anubhav kiya ki jo kuch ho chuka hai, uska parinam shubh nahin hoga. ye unke putron aur kul ke vinash ka karan ban jayega. unhonne paristhiti ko sanbhalane ke irade se draupadi ko baDe prem se apne paas bulaya aur shaant kiya tatha santvna di. uske baad wo yudhishthir ki or muDkar bole—“yudhishthir tum to ajatashatru ho. udaar hriday ke bhi ho. duryodhan ki is kuchal ko kshama karo aur in baton ko man se nikal do aur bhool jao apna rajya tatha sampatti aadi sab le jao aur indraprastha jakar sukhpurvak raho!”
dhritarashtr ki in mithi baton ko sunkar panDvon ke dil shaant ho ge aur yathochit abhivadnadi ke upraant draupadi aur kunti sahit sab panDav indraprastha ke liye vida ho ge. panDvon ke vida ho jane ke baad kaurvon mein baDi halchal mach gai. panDvon ke is prakar apne panje saaf nikal jane ke karan kaurav baDa krodh pradarshan karne lage aur duhshasan tatha shakuni ke uksane par ke uksane par duryodhan punः apne pita dhritarashtr ke sir par savar ho gaya aur panDvon ko khel ke liye ek baar aur bulane ko unko razi kar liya. yudhishthir ko khel ke liye bulane ko phir doot bheja gaya. pichhli ghatna ke karan dukhi hote hue bhi yudhishthir ko ye nimantran svikar karna paDa. yudhishthir hastinapur laute aur shani ke saath phir chaupaD khela. is baar khel mein ye shart thi ki hara hua dal apne bhaiyon ke saath barah varsh tak vanvas karega tatha uske upraant ek varsh agyatvas mein rahega. yadi is ek varsh mein unka pata chal jayega, to un sabko barah varsh ka vanvas phir se bhogna hoga. is baar bhi yudhishthir haar ge aur panDav apne kiye vade ke anusar van mein chale ge.
dhritarashtr ki baat mankar vidur panDvon ke paas aaye. unko dekhkar maharaj yudhishthir uthe aur unka yathochit svagat satkar kiya. vidur aasan par baithte hue shanti se bole—“hastinapur mein khel ke liye ek sabha manDap banaya gaya hai, jo tumhare manDap ke saman hi sundar hai raja dhritarashtr ki or se use dekhne chalne ke liye main tum logon ko nyauta dene aaya hoon. raja dhritarashtr ki ichchha hai ki tum sab bhaiyon sahit vahan aao, us manDap ko dekho aur do haath chausar bhi khel jao. ”
yudhishthir ne kaha—“chacha jee! chausar ka khel achchha nahin hai. usse aapas mein jhagDe paida hote hain. samajhdar log use pasand nahin karte hain. lekin is mamle mein hum to aap hi ke adeshanusar chalnevale hain. apaki salah kya hai?”
vidur bole—“yah to kisi se chhipa nahin hai ki chausar ka khel sare anarth ki jaD hota hai. mainne to bharsak koshish ki thi ki ise na hone doon, kintu raja ne aagya di hai ki tumhein khel ke liye nyauta de hi auun isliye aana paDa. ab tumhari jo ichchha ho karo. ”
rajvanshon ki riti ke anusar kisi ko bhi khel ke liye bulava mil jane par use asvikar nahin kiya ja sakta tha. iske alava yudhishthir ko Dar tha ki kahin khel mein na jane ko hi dhritarashtr apna apman na samajh len aur yahi baat kahin laDai ka karan na ban jaye. inhin sab vicharon se prerit hokar samajhdar yudhishthir ne nyauta svikar kar liya, yadyapi vidur ne unhen cheta diya tha. yudhishthir apne parivar ke saath hastinapur pahunch ge. nagar ke paas hi unke liye ek sundar vishram grih bana tha. vahan thaharkar unhonne aram kiya. agle din subah nha dhokar sabha manDap mein ja pahunche.
kushal samachar puchhne ke baad shakuni ne kaha—“yudhishthir, khel ke liye chaupaD bichha hua hai. chaliye, do haath khel len. ”
yudhishthir bole—“rajan, ye khel theek nahin hai! bazi jeet lena sahas ka kaam nahin hai. jua khelna dhokha dene ke saman hai. aap to ye sab baten jante hi hain. ”
wo bola—“ap bhi kya kahte hain, maharaj! ye bhi koi dhokhe ki baat hai! haan, ye kahiye ki aapko haar jane ka Dar lag raha hai. ”
yudhishthir kuch garm hokar bole—“rajan! aisi baat nahin hai. agar mujhe khelne ko kaha gaya, to main na nahin karunga. aap kahte hain, to main taiyar hoon. mere saath khelega kaun?”
duryodhan turant bol utha—“meri jagah khelenge to mama shakuni kintu daanv lagane ke liye jo dhan ratnadi chahiye, wo main dunga. ”
yudhishthir bole—“meri raay ye hai ki kisi ek ki jagah dusre ko nahin khelna chahiye. ye khel ke sadharan niymon ke viruddh hai. ”
“achchha to ab dusra bahana bana liya. ” shakuni ne hanste hue kaha.
yudhishthir ne kaha—“thik hai. koi baat nahin, main khelunga. ” aur khel shuru hua. sara manDap darshkon se khachakhach bhara hua tha. dron, bheeshm, krip, vidur, dhritarashtr jaise vayovriddh bhi upasthit the. ve use rok nahin sake the. unke chehron par udasi chhai hui thi. anya kaurav rajakumar baDe chaav se khel ko dekh rahe the.
pahle ratnon ki bazi lagi, phir sone chandi ke khazanon ki. uske baad rathon aur ghoDon ki. tinon daanv yudhishthir haar ge. shakuni ka pasa mano uske isharon par chalta tha. khel mein yudhishthir bari bari se apni gayen, bheD, bakriyan, daas dasi, rath, ghoDe, sena, desh, desh ki praja sab kho baithe. bhaiyon ke shariron par jo abhushan aur vastra the, unko bhi bazi par laga diya aur haar ge.
“aur kuch baqi hai? shakuni ne puchha.
“yah sanvle rang ka sundar yuvak, mera bhai nakul khaDa hai. wo bhi mera hi dhan hai. iski bazi lagata hoon. chalo!” yudhishthir ne josh ke saath kaha.
shakuni ne kaha—“achchha to ye baat hai! to ye lijiye. aapka pyara rajakumar ab hamara ho gaya! kahte kahte shakuni ne pasa phenka aur bazi maar li.
yudhishthir ne kaha—“yah mera bhai sahdev, jisne sari vidyaon ka paar pa liya hai. iski bazi lagana uchit to nahin hai, phir bhi lagata hoon. chalo dekha jayega. ”
“yah chala aur wo jita” kahte hue shakuni ne pasa phenka. sahdev ko bhi yudhishthir ganva baithe.
ab duratma shakuni ko ashanka hui ki kahin yudhishthir khel band na kar den. bola—“yudhishthir shayad apaki nigah mein bhimasen aur arjun madri ke beton se jyada mulyavan hain. so unko baji par aap lagayenge nahin. ”
yudhishthir ne kaha—“murkh shakuni! tumhari chaal ye malum hoti hai ki hum bhaiyon mein aapas mein phoot paD jaye! so tum kya jano ki hum panchon bhaiyon ke sambandh kya hain? parakram mein jiska koi sani nahin hai, us apne bhai arjun ko main daanv par lagata hoon. chalo. ”
shakuni yahi to chahta tha. “to ye chala”, kahte hue pasa phenka aur arjun bhi haath se nikal gaya. asim durdaiv mano yudhishthir ko bebas kar raha tha aur unhen patan ki or balpurvak liye ja raha tha. wo bole—“rajan! sharirik bal mein sansarbhar mein jiska koi joDidar nahin hai, apne us bhai ko main daanv par lagata hoon. ” ye kahte kahte yudhishthir bhimasen se bhi haath dho baithe.
dushtatma shakuni ne tab bhi nahin chhoDa. puchha—“aur kuchh?”
yudhishthir ne kaha—“han! yadi is baar tum jeet ge, to main khud tumhare adhin ho jaunga. ”
“lo, ye jita!” kahte hue shakuni ne pasa phenka aur ye bazi bhi le gaya.
is par shakuni sabha ke beech uth khaDa hua aur panchon panDvon ko ek ek karke pukara aur ghoshna ki ki ve ab uske gulam ho chuke hain. shakuni ko daad denevalon ke harshanad se aur panDvon ki is durdasha par taras khanevalon ke hahakar se sara sabha manDap goonj utha. sabha mein is tarah khalbali machne ke baad shakuni ne yudhishthir se kaha—“ek aur cheez hai, jo tumne abhi hari nahin hai. uski bazi lagao, to tum apne aapko bhi chhuDa sakte ho. apni patni draupadi ko tum daanv par kyon nahin lagate?” aur jue ke nashe mein choor yudhishthir ke munh se nikal paDa “chalo apni patni draupadi ki bhi mainne bazi lagai!” unke munh se ye nikal to gaya, par uske parinam ko sochkar wo vikal ho uthe ki haay ye mainne kya kar Dala!’
yudhishthir ki is baat par sari sabha mein ekdam hahakar mach gaya. jahan vriddh log baithe the, udhar se dhikkar ki avazen aane lagin. log bole—“chhiः chhiः, kaisa ghor paap hai!” kuch ne ansu bahaye aur kuch log pareshani ke mare pasine se tar batar ho ge. duryodhan aur uske bhaiyon ne baDa shor machaya. par yuyutsu naam ka dhritarashtr ka ek beta shok santapt ho utha aur thanDi aah bharkar usne sir jhuka liya.
shakuni ne pasa phenkkar kaha—“yah lo, ye bazi bhi meri hi rahi. ”
bas, phir kya tha? duryodhan ne vidur ko adesh dete hue kaha—“ap abhi ranvas mein jayen aur draupadi ko yahan le ayen. usse kahen ki jaldi aaye. ”
vidur bole—“murkh! nahak kyon mrityu ko nyauta dene chala hai. apni visham paristhiti ka tumhein gyaan nahin hai. ”
duryodhan ko yon phatkarne ke baad vidur sabhasdon ki or dekhkar kaha “apne ko haar chukne ke baad yudhishthir ko koi adhikar nahin tha ki wo panchalraj ki beti ko daanv par lagaye. ”
vidur ki baton se duryodhan baukhla utha. apne sarthi pratikami ko bulakar kaha—“vidur to hamse jalte hain aur panDvon se Darte hain. ranvas mein jao aur draupadi ko bula lao. ”
aagya pakar pratikami ranvas mein gaya aur draupadi se bola—“drupadraj ki putri! chausar ke khel mein yudhishthir aapko daanv mein haar baithe hain. aap ab raja duryodhan ke adhin ho gai hain. raja ki aagya hai ki ab aapko dhritarashtr ke mahl mein dasi ka kaam karna hai. main aapko le jane ke liye aaya hoon. ”
sarthi ne jue ke khel mein jo kuch hua tha, uska sara haal kah sanaya.
wo pratikami se boli—“rathvan! jakar un harnevale jue ke khilaDi se puchho ki pahle wo apne ko hare the ya mujhe? sari sabha mein ye parashn unse karna aur jo uttar mile, wo mujhe aakar batao. uske baad mujhe le jana. ”
pratikami ne jakar bhari sabha ke samne yudhishthir se vahi parashn kiya, jo draupadi ne use bataya tha. is par duryodhan ne pratikami se kaha—“draupadi se jakar kah do ki wo svayan hi aakar apne pati se ye parashn kar le. ”
pratikami dobara ranvas mein gaya aur draupadi ke aage jhukkar baDi namrata se bola—“devi! duryodhan ki aagya hai ki aap sabha mein aakar svayan hi yudhishthir se parashn kar len. ”
draupadi ne kaha—“nahin, main vahan nahin jaungi. agar yudhishthir javab nahin dete, to sabha mein jo sajjan vidyaman hain, un sabko tum mera parashn jakar sunao aur uska uttar aakar mujhe batao. ”
pratikami lautkar phir sabha mein gaya aur sabhasdon ko draupadi ka parashn sunaya. ye sunkar duryodhan jhalla utha. apne bhai duःshasan se bola—“duःshasan, ye sarthi bhimasen se Darta malum hota hai. tumhin jakar us ghamanDi aurat ko le aao. ”
duratma duःshasan ke liye isse achchhi baat aur kya ho sakti thi. usne draupadi ke gunthe hue baal bikher Dale, gahne toD phoD diye aur uske baal pakaDkar balpurvak ghasitta hua sabha ki or le jane laga. draupadi vikal ho uthi. draupadi ki aisi deen avastha dekhkar dhritarashtr ke ek bete vikarn ko baDa dukh hua.
usse nahin raha gaya. wo bola—“upasthit viro! suniye, chausar ke khel ke liye yudhishthir ko dhokhe se bulava diya gaya tha. wo dhokha khakar is jaal mein phans ge aur apni stri tak ki bazi laga di. ye sara karya nyayochit nahin hai. dusri baat ye hai ki draupadi akele yudhishthir ki hi patni nahin hai, balki panchon panDvon ki patni hai. isliye usko daanv par lagane ka akele yudhishthir ko koi haq nahin tha. iske alava khaas baat ye hai ki ek baar jab yudhishthir khud ko hi daanv mein haar ge the, to unko draupadi ki bazi lagane ka adhikar hi kya tha? meri ek aur apatti ye hai ki shakuni ne draupadi ka naam lekar yudhishthir ko uski bazi lagane ke liye uksaya tha. logon ne chausar ke khel ke jo niyam bana rakhen hain, ye unke bilkul viruddh hai. in sab baton ke adhar par main is sare khel ko niyam viruddh thahrata hoon. meri raay mein draupadi niyampurvak nahin jiti gai hai. ”
yuvak vikarn ke bhashan se vahan upasthit logon ke vivek par se bhram ka parda hat gaya. sabha mein baDa kolahal mach gaya. ye sab dekhkar karn uth khaDa hua aur kruddh hokar bola—“vikarn, abhi tum bachche ho. sabha mein itne baDe buDhon ke hote hue tum kaise bol paDe! tumhein yahan bolne aur tark vitark karne ka koi adhikar nahin hain. ”
ye dekhkar duhshasan draupadi ke paas gaya aur uska vastra pakaDkar khinchnen laga. jyon jyon wo khinchta gaya tyon tyon vastra bhi baDhta gaya. ant mein khinchte khinchte ki donon bhujayen thak gai. hanphata hua wo thakan se choor hokar baith gaya. sabha ke logon mein kampkampi si phail gai aur dhime svar mein baten hone lagin. itne mein bhimasen utha. uske honth mare krodh ke phaDak rahe the. uunche svar mein usne ye bhayanak prtigya ki, “upasthit sajjno! main shapath khakar kahta hoon ki jab tak, bharat vansh par batta laganevale is duratma duःshasan ki chhati cheer na lunga, tab tak is sansar ko chhoDkar nahin jaunga. ” bhimasen ki is prtigya ko sunkar upasthit logon ke hriday bhay ke mare tharra uthe.
in sab lakshnon se dhritarashtr ne samajh liya ki ye sab theek nahin hua hai. unhonne anubhav kiya ki jo kuch ho chuka hai, uska parinam shubh nahin hoga. ye unke putron aur kul ke vinash ka karan ban jayega. unhonne paristhiti ko sanbhalane ke irade se draupadi ko baDe prem se apne paas bulaya aur shaant kiya tatha santvna di. uske baad wo yudhishthir ki or muDkar bole—“yudhishthir tum to ajatashatru ho. udaar hriday ke bhi ho. duryodhan ki is kuchal ko kshama karo aur in baton ko man se nikal do aur bhool jao apna rajya tatha sampatti aadi sab le jao aur indraprastha jakar sukhpurvak raho!”
dhritarashtr ki in mithi baton ko sunkar panDvon ke dil shaant ho ge aur yathochit abhivadnadi ke upraant draupadi aur kunti sahit sab panDav indraprastha ke liye vida ho ge. panDvon ke vida ho jane ke baad kaurvon mein baDi halchal mach gai. panDvon ke is prakar apne panje saaf nikal jane ke karan kaurav baDa krodh pradarshan karne lage aur duhshasan tatha shakuni ke uksane par ke uksane par duryodhan punः apne pita dhritarashtr ke sir par savar ho gaya aur panDvon ko khel ke liye ek baar aur bulane ko unko razi kar liya. yudhishthir ko khel ke liye bulane ko phir doot bheja gaya. pichhli ghatna ke karan dukhi hote hue bhi yudhishthir ko ye nimantran svikar karna paDa. yudhishthir hastinapur laute aur shani ke saath phir chaupaD khela. is baar khel mein ye shart thi ki hara hua dal apne bhaiyon ke saath barah varsh tak vanvas karega tatha uske upraant ek varsh agyatvas mein rahega. yadi is ek varsh mein unka pata chal jayega, to un sabko barah varsh ka vanvas phir se bhogna hoga. is baar bhi yudhishthir haar ge aur panDav apne kiye vade ke anusar van mein chale ge.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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