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मत्स्य जातक

matsya jatak

अज्ञात

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    इसी कोशल राज्य और श्रावस्ती नगर में, जहाँ इस समय जेतवन सरोवर है, वहाँ, किसी समय लताओं आदि से परिवृत एक और सरोवर था। बोधिसत्व मछली का जन्म ग्रहण करके उस सरोवर में रहा करते थे। इस समय की भाँति उस समय भी अनावृष्टि के कारण सरोवर और तड़ाग आदि सूखकर जलरहित हो गए थे और मछलियों तथा कछुओं आदि ने कीचड़ या दलदल में आश्रय लिया था। उस समय भी कौवे आदि पक्षी आकर उसी कीचड़ में से मछलियाँ पकड़ते थे और उन्हें चोंच से उठाकर खा जाया करते थे। जब बोधिसत्व ने देखा कि हमारे साथ की मछलियाँ आदि इस प्रकार नष्ट हो रही हैं, तब उन्होंने सोचा—इस विपत्ति से मेरे सिवा और कोई इन लोगों की रक्षा नहीं कर सकता। अतः मैं धर्म को साक्षी रखकर शपथ-पूर्वक वर्षा कराऊँगा जिससे इन लोगों का दुःख दूर हो। यह संकल्प करके वे उस कृष्ण वर्ण के कीचड़ में से निकले। उनका विशाल शरीर चंदन के काठ से बनी हुई और काजल पोती हुई पेटी के समान जान पड़ता था। वे दोनों आँखें खोलकर आकाश की ओर देखते हुए पर्जन्य देवता को सुनाकर कहने लगे—हे पर्जन्य! मैं अपने सजातियों की दुर्दशा देखकर बहुत ही दुःखी हूँ। मैं शीलवान् हूँ और अपने सजातियों की दुर्दशा से दुःखी हूँ, यह देखकर भी तुम वर्षा नहीं करते, यह बहुत आश्चर्य की बात है। मैंने जिस जाति में जन्म लिया है, उस जाति के जीव एक दूसरे का मांस खाकर अपना निर्वाह करते हैं। परंतु मैंने आज तक कभी चावल बराबर भी मछली का मांस नहीं खाया है और किसी जीव की प्राणहानि की है। यदि मेरा यह कथन सत्य हो, तो तुम इसी समय वर्षा करके मेरे सजातियों का दुःख दूर करो। स्वामी जिस प्रकार अपने सेवक को कोई आदेश देता है, उसी प्रकार बोधिसत्व ने पर्जन्य देव को आदेश देकर नीचे लिखे आशय की गाथा कही—

    हे पर्जन्य, आओ और गरजो, जिसमें कौवों की आशा पर पानी फिर जाए। तुम वर्षा करो, जिससे मेरे सजातियों की रक्षा हो।

    बोधिसत्व के इस प्रकार कहते ही यथेष्ट वृष्टि हुई और बहुत से प्राणी मरने से बच गए। समय पाकर बोधिसत्व के जीवन का अंत हुआ और वे अपने कर्मों के अनुसार फल भोगने के लिए दूसरे लोक में चले गए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 117)
    • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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