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महास्वप्न जातक

mahasvapn jatak

अज्ञात

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महास्वप्न जातक

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    प्राचीन काल में वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में बोधिसत्व ने उदीच्य ब्राह्मण कुल में जन्म ग्रहण किया था। वयस्क होने पर उन्होंने ऋषि-प्रवज्या ग्रहण करके अभिज्ञा और समापत्ति प्राप्त की और हिमालय में जाकर ध्यान का सुख भोगने लगे।

    राजा ब्रह्मदत्त ने एक दिन एक सोलह देखे थे और ब्राह्मणों को बुलाकर उनसे उनका फल पूछा था। ब्राह्मणों ने स्वस्त्ययन के लिए यज्ञ का अनुष्ठान किया। उन ब्राह्मणों में से एक तरुण और बुद्धिमान विद्यार्थी था। उसने आचार्य से कहा—आपने मुझे तीनों वेदों की शिक्षा दी है। क्या इस आशय का वेद का एक भी वाक्य आपको स्मरण नहीं है कि एक के प्राणों का नाश कर के दूसरे का मंगल करना असंभव है? आचार्य ने कहा—बेटा, इस यज्ञ में हम लोगों को बहुत सा धन मिलेगा। जान पड़ता है कि तुमको राजा का धन बचाने की चिंता हो रही है। शिष्य ने कहा—आचार्य, आपके जी में जो कुछ आवे, वह आप कीजिए। मेरे यहाँ रहने से कोई लाभ नहीं है। इतना कहकर वह वहाँ से उठकर राजा के उद्यान में चला गया।

    बोधिसत्व ने उसी दिन ध्यान की सहायता से ये सब बातें जान ली। उन्होंने सोचा कि यदि मैं इसी समय नगर में जाऊँ, तो बहुतेरे जीवों को बंधन से छुड़ा सकता हूँ। वे आकाश मार्ग से चलकर राजा के उद्यान में जा पहुँचे और एक शिला पर बैठ गए। वहाँ वे स्वर्ण की प्रतिमा के समान शोभा पा रहे थे। उस ब्रह्मचारी ब्राह्मण ने बोधिसत्व के पास आकर प्रणाम किया और एक ओर बैठ गया। दोनों में आलाप होने लगा। बोधिसत्व ने पूछा—क्यों जी, यहाँ के राजा धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते हैं? ब्राह्मण शिष्य ने उत्तर दिया—राजा स्वयं तो धार्मिक हैं, पर ब्राह्मण लोग उनको अनुचित मार्ग पर ले जाते हैं। राजा ने सोलह स्वप्न देखे थे और ब्राह्मणों से उनका फल पूछा था। इस पर ब्राह्मणों ने उनसे यज्ञ कराना आरंभ कर दिया है। यदि आप कृपा करके राजा को उन स्वप्नों का ठीक-ठीक फल बतला दें, तो बहुत से प्राणियों की रक्षा हो जाए। बोधिसत्व ने कहा—यह तो ठीक है। पर तो मैं राजा को ही जानता हूँ और राजा ही मुझे जानते हैं। हाँ, राजा यदि यहाँ आकर मुझसे स्वप्नों का फल पूछें, तो मैं उनको यथार्थ फल बतला सकता हूँ। शिष्य ने कहा—मैं अभी जाकर राजा को यहाँ ले आता हूँ। जब तक में लौटकर आऊँ, तब तक आप अनुग्रहपूर्वक यहीं ठहरे रहें। बोधिसत्व इस पर सहमत हो गए और उस शिष्य ने राजा के पास जाकर कहा—महाराज, एक व्योमचारी तपस्वी उद्यान में आकर ठहरे हुए हैं। वे आपके स्वप्न का फल बतलाना चाहते हैं। यदि आप कृपाकर वहाँ चलें, तो बहुत अच्छा हो।

    यह सुनकर राजा अपने बहुत से अनुचरों को साथ लेकर उसी समय उद्यान में जा पहुँचे और तपस्वी के चरण छूकर एक ओर बैठकर पूछने लगे भगवन्, क्या यह बात ठीक है कि आप मेरे स्वप्नों का फल बतला सकते हैं? बोधिसत्व ने उत्तर दिया—हाँ, बतला सकता हूँ। आप बतलाइए कि आपने क्या क्या स्वप्न देखे हैं। राजा ने अपने सोलहो स्वप्न कह सुनाए। सब स्वप्न सुनकर बोधिसत्व ने कहा—इन स्वप्नों से आपका किसी प्रकार का अमंगल नहीं हो सकता। जब राजा को इस प्रकार आश्वासन मिल गया, तब उन्होंने यज्ञ का विचार त्याग दिया और बलि के लिए जितने जीव बाँधे हुए थे, वे सब छोड़ दिए गए। इसके उपरांत बोधिसत्व आकाश में उठे और वहीं उधर में बैठकर उन्होंने राजा को बहुत से धर्मोपदेश दिए, जिसके कारण राजा ने पंचशील के पालन की प्रतिज्ञा की। अंत में बोधिसत्व ने कहा— महाराज, अब आप कभी ब्राह्मणों की बात में आकर पशुओं की हिंसा का आयोजन कीजिएगा। इसके उपरांत बोधिसत्व आकाश मार्ग से ही अपने निवास स्थान को चले गए। ब्रह्मदत्त उनके उपदेश के अनुसार चलने लगे और दान-पुण्य करते हुए अपने कर्मों का फल भोगने के लिए यथा समय शरीर त्यागकर दूसरे लोक को चले गए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 119)
    • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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