महाशील जातक
mahashil jatak
प्राचीन काल में वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में बोधिसत्व ने राजमहिषी के गर्भ में जन्म लिया था। नामकरण के समय उनका नाम शीलवान् कुमार रखा था। सोलह वर्ष की अवस्था में वे सत्र विद्याओं के पंडित हो गए थे और पिता की मृत्यु के उपरांत राजपद पर प्रतिष्ठित होकर धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे थे। उस समय वे महाशीलवान् राजा के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने नगर के चारों द्वारों पर चार, नगर के मध्य में एक और राजप्रासाद के पास एक दानशाला स्थापित की थी, जिसमें अनाथों और दरिद्रों को अन्न आदि वितरित किया जाता था। वे शीलपरायण और दया, क्षांति आदि गुणों से संपन्न थे, उपोसथ आदि व्रतों का पालन करते थे और अपत्य भाव से समस्त भूतों का परितोष किया करते थे।
राजा महाशील का एक अमात्य अन्तःपुर की एक स्त्री के साथ अनुचित संबंध रखता था। जब यह भेद सब लोगों पर प्रकट हो गया, तब होते-होते राजा के कानों तक भी यह बात पहुँची। अनुसंधान करने पर राजा को विदित हुआ कि अमात्य निस्संदेह अपराधी है। उन्होंने उसे बुलाकर कहा—मूढ़, तूने बहुत ही गर्हित कार्य किया है। अतः अब तुझे इस राज्य में रहने देना ठीक नहीं। तू अपनी धनसंपत्ति और परिवार के लोगों को लेकर और कहीं चला जा।
काशी से इस प्रकार निर्वासित होने पर वह अमात्य कोशल राज्य में चला गया और कुछ समय में वहाँ के राजा का परम विश्वासभाजन बन गया। एक दिन उसने कोशल के राजा से कहा—महाराज, काशी का राज्य ऐसे मधुचक्र के समान है जिसमें मधुमक्खियाँ नहीं हैं। वहाँ के राजा की प्रकृति बहुत ही कोमल है। बहुत ही सामान्य सेना की सहायता से भी उस राज्य पर सहज में अधिकार किया जा सकता है। उसकी यह बात सुनकर कोशल के राजा ने सोचा कि काशी एक बहुत ही विस्तृत राज्य है। पर यह कहता है कि बहुत ही थोड़ी सेना की सहायता से उस पर अधिकार किया जा सकता है। यह कोई गुप्तचर तो नहीं है। यह सोचकर उन्होंने उस निर्वासित अमात्य से कहा—जान पड़ता है कि तुम काशी के राजा के गुप्तचर हो। उसने उत्तर दिया—महाराज, मैं गुप्तचर नहीं हूँ। मैं जो कुछ कहता हूँ, वह नितांत सत्य है। यदि आप मेरी बातों का विश्वास न करें, तो परीक्षा के लिए काशी के किसी प्रत्यंत ग्राम के निवासियों की हत्या के लिए ही थोड़े से आदमी भेज देखें। वे सब लोग पकड़े जाकर काशी के राजा के समीप उपस्थित किए जाएँगे। उन्हें दंड देना तो दूर रहा, उलटे वह उनको धन-संपत्ति देकर बिदा करेगा।
कोशल के राजा ने देखा कि यह व्यक्ति बहुत ही दृढ़तापूर्वक बातें कर रहा है। उसने उसके परामर्श के अनुसार कार्य करने का संकल्प किया और कुछ लोगों को भेजकर काशी राज्य के एक प्रत्यंत ग्राम पर आक्रमण करा दिया। जब वे उपद्रवी पकड़े जाकर काशीराज के समक्ष उपस्थित किए गए, तब राजा ने उनसे पूछा—क्यों भाइयो, तुम लोगों ने ग्रामवासियों की हत्या क्यों की? उन लोगों ने उत्तर दिया देव, हम लोगों की जीविका के निर्वाह का और कोई उपाय नहीं है। राजा ने कहा—यदि यही बात है, तो तुम लोग पहले हमारे ही पास सीधे क्यों नहीं चले आए? अच्छा, अब यह धन लेकर अपने घर चले जाओ। अब आगे से ऐसा काम कभी मत करना। उन लोगों ने कोशल जाकर अपने राजा से यह सब वृत्तांत कह सुनाया। परंतु इस प्रकार का प्रमाण पाकर भी कोशल के राजा को काशी पर आक्रमण करने का साहस न हुआ। उसने काशी राज्य के मध्य के किसी गाँव पर अत्याचार करने के लिए फिर कुछ आदमी भेजे। जब वे लोग पकड़े जाकर काशी के राजा के सामने उपस्थित किए गए, तब उन लोगों के साथ भी वही सदय व्यवहार हुआ। परंतु इतने पर भी कोशल के राजा का संदेह बना रहा और उसने कुछ लोगों को वाराणसी नगरी के राजमार्गों पर लूटपाट करने के लिए भेजा। पर जब वे लोग पकड़े गए, तब उन्हें भी दंड के बदले में पुरस्कार ही मिला। उस समय कोशल के राजा को निश्चय हो गया कि काशी के राजा परम निरीह और धर्मपरायण हैं। उसने अपनी पूरी सेना साथ लेकर काशी पर आक्रमण करने के लिए प्रस्थान किया।
उस समय काशी के राजा के पास एक हज़ार महायोद्धा थे। उनमें से प्रत्येक असाधारण वीर्यवान् था। वे लोग मतवाले हाथी के सामने भी पीठ नहीं दिखलाते थे, सिर पर वज्रपात होने पर भी विचलित नहीं होते थे। यदि उनको शीलवान् महाराज की आज्ञा मिलती, तो वे जंबू द्वीप के समस्त राज्यों पर विजय प्राप्त कर सकते थे। जब उन वीर पुरुषों ने सुना कि कोशल का राजा काशी राज्य पर आक्रमण करने के लिए आ रहा है, तब उन्होंने महाराज शीलवान् के पास जाकर प्रार्थना की—महाराज, आप हम लोगों को आज्ञा दीजिए, तो हम लोग सीमा पर चले जाएँ; और ज्यों ही कोशल का राजा आपकी सीमा में पैर रखे, त्यों ही हम लोग उसे पकड़कर आपके समीप ले आवें। पर उन्होंने उन लोगों को रोकते हुए कहा— भाइयों, मैं यह नहीं चाहता कि मेरे लिए किसी दूसरे को कष्ट हो या किसी का कोई अनिष्ट हो। जिसे राज्य का लोभ हो, वह यदि चाहे तो हमारे राज्य पर अधिकार कर सकता है। उधर कोशल के राजा ने काशी राज्य की सीमा पार करके जनपद में प्रवेश किया। उस समय काशी के राजा के अमात्यों ने उनके पास जाकर युद्ध आरंभ करने की आज्ञा माँगी। पर राजा ने उनको भी लड़ने से रोक दिया। इसके उपरांत कोशल के राजा ने राजधानी के पास पहुँचकर अपने दूत के द्वारा काशी के राजा से कहलाया—या तो युद्ध करो और नहीं तो राज्य छोड़ दो। काशीराज ने उत्तर दिया—मैं युद्ध नहीं करूँगा। यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो तुम राज्य ले लो। अमात्यों ने उस समय भी उनसे कहा—महाराज, यदि आप आज्ञा दें तो हम लोग कोशल के राजा को राजधानी में प्रवेश न करने दें। राजधानी के बाहर जाकर उससे युद्ध करें और वहीं से उसको बंदी करके आपके सम्मुख ले आवें। परंतु महाराज महाशीलवान इस पर भी सम्मत न हुए। उन्होंने नगर के द्वार खुलवा दिए और आप अपने एक हज़ार अमात्यों को लेकर सिंहासन पर बैठ गए।
कोशल के राजा ने अपनी विशाल सेना के साथ नगर में प्रवेश किया। किसी ने उसके आगे बढ़ने में कोई अड़चन नहीं डाली। उसने राजभवन में पहुँचकर सभामंडप में प्रवेश किया और निरपराध काशीराज तथा उनके एक हज़ार अमात्यों को क़ैद करके आज्ञा दी इन लोगों की मुश्कें बाँध दो और आमक श्मशान में1 गड्ढे खोदकर इन सबको गले तक ज़मीन में गाड़ दो; और तब ऊपर से गड्ढे के चारों ओर की मिट्टी इस प्रकार पीट दो जिसमें ये हाथ तक न हिला सकें। रात के समय इन लोगों को गीदड़ और कुत्ते आदि नोच-नोचकर खा जाएँगे। कोशलराज के सेवकों ने अपने निष्ठुर राजा की आज्ञा शिरोधार्य की और काशीराज तथा उनके अमात्यों को मुश्कें बाँधकर वहाँ से ले गए।
इतना अत्याचार सहने पर भी काशीगज के मन में चोर-राज2 के प्रति किसी प्रकार के क्रोध का उद्रेक नहीं हुआ। उनके पार्श्ववर्ती आदि भी इतने विनीत थे कि मुश्कें कसी जाने पर उनमें से किसी ने भी अपने प्रभु की इच्छा के विरुद्ध चूँ तक न की। चोर-राज के सेवक उन लोगों को शमशान में ले गए। वहाँ गड्ढे खोदकर बीच में राजा को और उनके दोनों ओर अमात्यों को गले-गले तक गाड़ दिया गया और उनके चारों ओर की मिट्टी अच्छी तरह पीट दी गई जिससे वे लोग हाथ तक हिलाने में असमर्थ हो गए। इस अवस्था में भी शीलवान् राजा के मन में चोर-राज के प्रति किसी प्रकार का क्रोध न उत्पन्न हुआ। जब चोर-राज के सेवक चले गए, तब काशीराज ने अपने अमात्यों को संबोधन करके कहा—हृदय में मैत्री का भाव रखो; और किसी भाव को स्थान न दो।
रात के समय मनुष्यों का मांस खाने के लिए गीदड़ वहाँ आ पहुँचे। उनको देखकर राजा और उनके अमाlत्यों इतने ज़ोर से चिल्लाए कि वे सब डर के मारे भाग गए। पर जब उन गीदड़ों ने कुछ दूर जाकर पीछे मुड़कर देखा कि कोई हमारे पीछे नहीं आ रहा है, तब वे फिर औट आए। राजा और उनके मंत्री इस बार भी पहले की भाँति चिल्लाए। उनकी चिल्लाहट सुनकर गीदड़ फिर भागे, पर थोड़ी ही देर बाद फिर पहले की भाँति लौट आए। इस प्रकार तीन बार भागने पर भी जब गीदड़ों ने देखा कि कोई हमारा पीछा नहीं कर रहा है, तब उनका साहस बढ़ा और उन्होंने समझ लिया कि इन सब लोगों को प्राण-दंड की आज्ञा मिल चुकी है, ये सब हमारे भक्ष्य हैं, इसलिए चौथी बार वे नहीं भागे। झुंड का प्रधान गीदड़ राजा को और शेष गीदड़ अमात्यों को खाने के लिए आगे बढ़े।
चतुर काशीराज ने गीदड़ को आगे बढ़ते देखकर अपनी गर्दन और आगे कर दी। गीदड़ सोचने लगा कि यह तो और भी अच्छा हुआ। पर जब वह उनको काटने के लिए आगे बढ़ा, तब उन्होंने दाँतों से उसी की गर्दन पकड़ ली। उनके जबड़ों में यंत्र के समान और शरीर में हाथी के समान बल था; इसलिए गीदड़ उनकी पकड़ से किसी प्रकार छूट न सका और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा। उसकी चिल्लाहट सुनकर दूसरे गीदड़ों ने समझा कि हमारा सरदार पकड़ा गया है; इसलिए वे सब अमात्यों को छोड़कर प्राण लेकर भागे।
राजा ने जिस गीदड़ को दाँतों से पकड़ रखा था, उसने अपने आपको छुड़ाने के प्रयत्न में इधर-उधर उछल कूदकर राजा के आस-पास की बहुत सी मिट्टी खोदकर पोली कर दी। जब राजा ने देखा कि चारों ओर की मिट्टी पोली हो गई है, तब उन्होंने गीदड़ को छोड़ दिया और हाथी के समान इधर-उधर हिलकर अपने दोनों हाथ गड्ढे से बाहर निकाले। इसके उपरांत उन्होंने गड्डे से निकलकर अपने अमात्यों का उद्धार किया।
उस श्मशान में जो यक्ष रहा करते थे, उनमें से प्रत्येक के लिए भूमिका एक-एक अंश निर्धारित था। जिस दिन की यह बात है, उस दिन कुछ लोग दो यक्षों की सीमा पर एक शव फेंक गए थे। जब दोनों, यक्ष उस शव का विभाग न कर सके, तब उन्होंने सोचा कि चलो, इस शीलवान् राजा के पास चलें। यह परम धार्मिक है; शव का ठीक-ठीक विभाग कर देगा। यह सोचकर वे दोनों यक्ष उस शव का पैर पकड़कर उसे घसीटते हुए राजा के पास ले आए और उनसे उसके दो सम विभाग कर देने के लिए अनुरोध करने लगे। राजा ने कहा—मैं विभाग तो कर दूँगा, परंतु अभी मैं अशुचि अवस्था में हूँ। तुम लोग पहले मुझे स्नान कराओ। चोरराज के स्नान के लिए जो सुवासित जल रख हुआ था, यज्ञों ने वही जल लाकर राजा को स्नान कराया और चोरराज के लिए जो कपड़े रखे थे, वही कपड़े लाकर उनको पहना दिए। अनेक प्रकार के सुगंधित द्रव्य लाकर उन्होंने राजा के शरीर पर लेप किया, पुष्पों आदि से उन्हें भली भाँति सजाया और तब कहा—महाराज, और कुछ आज्ञा दीजिए। राजा ने कहा—मुझे भूख लगी है। चोरराज के लिए जो अच्छे-अच्छे भोजन बनाकर रखे हुए थे, यक्ष वही भोजन उठाकर ले आए। राजा ने आनंदपूर्वक उत्कृष्ट भोजन किया। चोरराज के पीने के लिए सोने की झारी में जो सुगंधित जल रखा हुआ था, झारी समेत वह जल भी वहाँ आ गया था। काशीराज ने जल पीकर कुल्ला किया, हाथ धोए और चोरराज के लिए बने हुए सुगंधित पान खाए। यक्षों ने कहा—महाराज, और कुछ आज्ञा कीजिए। काशीराज ने कहा—कोशलराज के तकिये के नीचे मेरा मंगल खंग रखा है, वह उठा लाओ। वे यक्ष क्षण भर में वह खंग भी उठा लाए।
राजा ने खंग हाथ में लेकर शव को खड़ा कराया और उसके मस्तक पर आघात करके उसे ऊपर से नीचे तक दो समान भागों में चीर दिया और एक-एक भाग उन दोनों को देकर अपना खंग धोकर कोप में, रख लिया। दोनों यक्ष मनुष्य का मांस खाकर बहुत तृप्त हुए और बोले—महाराज, अब और बतलाइए, क्या आज्ञा है। राजा ने कहा—मुझे तुम ले चलकर चोरराज के शयनागार में पहुँचा दो; और इन अमात्यों को इनके घर पहुँचा आओ। उन्होंने सिर झुकाकर राजा की इस आज्ञा का भी तुरंत पालन कर दिया।
कोशल का राजा विचित्र शयनागार में विचित्र शय्या पर सो रहा था। काशीराजा ने अपने खंग की मूठ से उसके पेट पर आघात किया। वह डरकर जाग उठा। दीपक के प्रकाश में उसने देखा कि पास ही राजा शीलवान् खड़े हैं। उन्हें पहचानकर वह साहस करके खड़ा हुआ और पूछने लगा—महाराज, इतनी रात के समय, चारों ओर पहरेदारों के रहते हुए, इन बंद द्वार से होकर कोई मनुष्य मेरे शयनागार में प्रवेश नहीं कर सकता। ऐसी दशा में आप किस प्रकार मेरे ये सब वस्त्र पहनकर और अपना खंग हाथ में लेकर यहाँ तक आ पहुँचे?” काशीराज ने आदि से अंत तक सविस्तर सारा वृत्तांत कह सुनाया। उनकी बातें सुनकर कोशलराज को बहुत अनुताप हुआ। उन्होंने कहा—रक्त मांस खाने वाले भीषण और निष्ठुर राक्षस तक आपका माहात्म्य जानते हैं; और मैं मनुष्य होकर भी आपका माहात्म्य न जान सका। आज से मैं कभी आपके समान शीलसंपन्न व्यक्ति के साथ इस प्रकार का व्यवहार न करूँगा। इसके उपरांत उसने खंग छूकर शपथ की, काशीराज से क्षमा माँगी, उन्हें उनकी शय्या पर सुलाया और आप एक साधारण शय्या पर सोया रहा।
रात बीत गई और प्रभात का समय हुआ। कोशलराज ने भेरी बजवाकर अपने समस्त सैनिकों, अमात्यों, ब्राह्मणों और गृहपतियों को एकत्र करके उन सबके सामने शीलवान् राजा का गुणगान किया और उस सभा में फिर उनसे क्षमा माँगी और उनका राज्य उन्हें देकर कहा—महाराज, आज से आपके राज्य के विद्रोहियों के दमन का भार मैंने अपने ऊपर लिया। आज से मैं आपके राज्य की रक्षा करूँगा और आप केवल प्रजापालन किया कीजिएगा। इसके उपरांत उसने उस विश्वासघातक अमात्य को दंड दिया और आप अपनी सेना तथा सामंतों को साथ लेकर अपने राज्य को चला गया।
राजा शीलवान् अपने सोने के सिंहासन पर बैठे। उनके मस्तक पर श्वेत छत्र रखा गया। अपनी महिमा का स्मरण करके वे सोचगे लगे—यदि मैं निरुत्साह हो जाता, तो यह ऐश्वर्य न प्राप्त कर सकता और न मेरी अथवा मेरे अमात्यों की ही जान बचती। केवल उत्साह के बल से ही मुझे फिर से राज पद मिला है। सब लोगों को सदा आशा रखकर उत्साहशील होना चाहिए। इसके उपरांत उन्होंने हृदय के आवेग में नीचे लिखे आशय की गाथा कही—कभी आशा मत छोड़ो और निरंतर चेष्टा करते चलो। अदम्य वीर्य के बल से सारी कामनाएँ पूरी होंगी। देखो, इसी उत्साह के बल से मैंने समस्त दुःख दूर करके अपनी सारी इच्छाएँ पूरी कर ली हैं।
इस प्रकार उत्साह का महत्व बतलाते हुए काशीराज ने कहा—शील का पालन कभी व्यर्थ नहीं जाता। इसके उपरांत बोधिसत्व जब तक जीवित रहे, तब तक पुण्य कृत्य करते रहे और मरने पर अपने कर्मों के अनुसार फल भोगने के लिए दूसरे लोक में चले गए।
- पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 83)
- प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय
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