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कुहक जातक

kuhak jatak

अज्ञात

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और अधिकअज्ञात

    प्राचीन काल में वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में किसी गाँव में एक जटाधारी धूर्त तपस्वी रहा करता था। उस गाँव के एक ज़मींदार ने उसके रहने के लिए वन में एक पर्णशाला बनवा दी थी और उसके भोजन के लिए वह अपने घर से नित्य अच्छे-अच्छे पदार्थ भेजा करता था। वह ज़मींदार इस धोखे में था कि यह तपस्वी बहुत ही शीलवान् है; इसलिए उसने डाकुओं के भय ने अपनी एक सौ स्वर्ण मुद्राएँ उसी पर्णशाला में गाड़ दीं और तपस्वी से कहा—प्रभु, आप ज़रा इसका भी ध्यान रखिएगा। तपस्वी ने कहा—बेटा, हम प्रव्राजक हैं। हम से इस प्रकार की बातें कहने की क्या आवश्यकता है। पराए द्रव्य के लिए हम लोग कभी लोभ नहीं करते। ज़मींदार ने उम तपस्वी की बात पर विश्वास कर लिया और उसे साधुवाद देकर वह अपने घर चला गया।

    अब वह धूर्त तपस्वी अपने मन में सोचने लगा कि इतनी स्वर्ण मुद्राओं से तो एक आदमी भली भाँति जन्म भर खा पहन सकता है। इसके कुछ दिनों के उपरांत एक दिन उसने वे मुद्राएँ वहाँ से निकाल ली और मार्ग में एक ओर एक जगह गाड़ दीं और फिर अपनी पर्णशाला में आकर पहले की भाँति रहने लगा। दूसरे दिन जब वह तपस्वी उस ज़मीदार के यहाँ भोजन करने गया, तब उससे कहने लगा—पुत्र, मैंने बहुत दिनों तक तुम्हारा अन्न खाया है। एक स्थान पर बहुत दिनों तक रहने से मनुष्यों से संसर्ग हो जाता है; और मनुष्यों का संसर्ग प्रव्राजक के लिए निषिद्ध है। इसलिए अब मैं कहीं और जाना चाहता हूँ। वह ज़मींदार उससे रहने के लिए बहुत अनुरोध करने लगा, पर किसी प्रकार उसका संकल्प बदल सका। अंत में उसने कहा—प्रभु, यदि आपकी और कहीं जाने की नितांत इच्छा हो, तो आप जा सकते हैं। इसके उपरांत वह ज़मींदार गाँव के किनारे तक आकर उसे पहुँचा गया।

    कुछ दूर जाने पर तपस्वी ने सोचा कि अब ज़मींदार को कुछ ठगते भी चलो। वह अपनी जटा में कुछ तृण रखकर लौटा और फिर उस ज़मींदार के घर गया। ज़मींदार ने पूछा—महाराज, आप लौट क्यों आए? उसने उत्तर दिया—तुम्हारी छाजन का एक तिनका मेरी जटा में लगकर मेरे साथ चला गया था। प्रव्राजकों के लिए अदत्त दान लेना निषिद्ध है; इसीलिए मैं वह तिनका तुमको देने आया हूँ। ज़मींदार ने कहा—आप वह तिनका फेंक दीजिए और चले जाइाए। इसके उपरांत वह ज़मींदार मन ही मन सोचने लगा—वाह, इन महात्मा को धर्म का कितना सूक्ष्म ज्ञान है! ये बिना दिए पराया तिनका तक स्पर्श नहीं करते। तपस्वी के चरित्र पर मुग्ध होकर उसने उन्हें प्रणाम करते हुए विदा किया।

    उसी अवसर पर बोधिसत्व कहीं से माल लेकर लौट रहे थे और उस गाँव में पहुँचे थे। तपस्वी की बात सुनकर उनको संदेह हुआ कि यह धूर्त है और अवश्य ही ज़मींदार को ठग रहा है। उन्होंने ज़मींदार से पूछा—क्यों जी, तुमने इस तपस्वी को कभी कुछ धन रखने के लिए दिया था? ज़मींदार ने कहा—हाँ, इनके पास मेरी एक सौ स्वर्ण मुद्राएँ थीं। बोधिसत्व ने कहा—तो फिर अभी जाकर तुम वे मुद्राएँ ले आओ। ज़मींदार ने उस पर्णशाला में जाकर देखा कि मुद्राएँ वहाँ नहीं हैं। वह दौड़ा हुआ बोधिसत्व के पास आया और बोला—वहाँ तो मुद्राएँ नहीं मिलीं। बोधिसत्व ने कहा—तुम्हारा धन और कोई नहीं ले गया है, वह धूर्त तपस्वी ही ले गया है। चलो, उसे ढूँढ़कर पकड़ें। दोनों आदमी दौड़े हुए गए और थोड़ी दूर जाने पर उन्होंने उसे पकड़ लिया और उससे वह धन ले लिया। वह धन देखकर बोधिसत्व ने कहा—सौ स्वर्ण मुद्राएँ तो पचा लीं और तिनका लेने में पाप होता है! इसके उपरांत उन्होंने उसे भर्त्सना करते हुए नीचे लिखे आशय की गाथा कही—

    तुमने कैसी विश्वास के योग्य बात कही थी कि अदत्त दान लेना प्रवाजक का धर्म नहीं है! पाप के भय से तुम तृण तक स्पर्श करते थे; तब तुमने इस प्रकार छल से सौ मुद्राएँ क्यों ले लीं?

    इस प्रकार भर्त्सना करके बोधिसत्व ने उस भंड तपस्वी से कहा—सावधान! अब कभी किसी के साथ इस प्रकार धूर्त्तता करना। इसके उपरांत बोधिसत्व यथा समय अपने कर्मों का फल भोगने के लिए इहलोक त्यागकर परलोक चले गए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जातक कथा-माला पहला भाग (पृष्ठ 137)
    • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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