खदिरांगार जातक
khadirangar jatak
प्राचीन काल में सम्यक्सबुंद्ध काश्यप के समय में किसी गाँव में एक शीलवान्, धर्मपरायण और तत्वदर्शी स्थविर रहा करता था। उस गाँव के स्वामी ने उसके भरण पोषण का भार अपने ऊपर ले लिया था। उसी समय एक और अहन् वहाँ आ पहुँचे जो अपने संघ के सभी भिक्षुओं के साथ बहुत ही सम भाव से व्यवहार किया करते थे और कभी यह नहीं सोचते थे कि मैं सब में प्रधान हूँ। ये महात्मा उक्त गाँव के स्वामी के घर पहुँचे। इससे पहले वे कभी उस गाँव में नहीं आए थे। उनका आकार प्रकार देखकर वह ज़मींदार उन पर इतना मुग्ध हुआ कि सम्मान-पुर्वक उनके हाथ से भिक्षापात्र लेकर वह उन्हें अंदर ले गया और उनसे भोजन करने के लिए अनुरोध करने लगा। थोड़ी देर तक उन महात्मा से कुछ धर्मोपदेश सुनकर ज़मींदार ने कहा—प्रभु, यहाँ पास ही मेरा एक विहार है। आप कृपया वहीं चलकर विश्राम करें। फिर तीसरे पहर में आपकी सेवा में उपस्थित होऊँगा। तदनुसार अर्हन् उस विहार में चले गए और वहाँ के स्थविर को बहुत ही आदरपूर्वक अभिवादन करके एक आसन पर बैठ गए। उस स्थविर ने भी बहुत आदरपूर्वक उनकी अभ्यर्थना की और पूछा—आपने अभी तक भोजन किया है या नहीं? अर्हन् ने उत्तर दिया—हाँ, मैं भोजन कर चुका हूँ। स्थविर ने पूछा—आपने कहाँ भोजन किया है? अर्हन् ने उत्तर दिया—इसी गाँव में, गाँव के स्वामी के यहाँ। इसके उपरांत आगंतुक अर्हन् को एक कोठरी मिल गई। उसी में उन्होंने अपना भिक्षापात्र और चीवर रख दिया और एक आसन पर बैठकर ध्यानमग्न होकर वे परम आनंद का अनुभव करने लगे।
तीसरे पहर के समय गाँव का स्वामी अपने सेवकों के हाथ गंध, मालाएँ और तेल से भरा दीपक लेकर उस विहार में रहने वाले स्थविर को प्रणाम करके पूछने लगा—आज यहाँ एक अर्हन् अतिथि रूप में आने को थे। क्या वे आ गए हैं? स्थविर ने कहा—हाँ, वे आए हैं। पूछा—वे कहाँ है? उत्तर मिला—उस कोठरी में। यह सुनकर ज़मीदार उस अर्हन् के पास गया और उन्हें प्रणाम करके एक और बैठकर उनसे धर्मोपदेश सुनने लगा। संध्या के उपरांत जब कुछ ठंडा हुआ, तब उस ज़मींदार ने चैत्य और बोधिसत्व की पूजा की, प्रदीप जलाया और अर्हन् तथा स्थविर दोनों को दूसरे दिन अपने यहाँ भोजन करने का निमंत्रण देकर वहाँ से अपने घर चला गया।
विहार में रहने वाले स्थविर ने सोचा कि यह ज़मीदार मेरे हाथ से निकलना चाहता है। यदि यह अर्हन् यहाँ टिक गया, तो फिर मेरा कहीं ठिकाना न लगेगा। वह सोचने लगा कि कोइ ऐसा उपाय करना चाहिए जिसमें यह अर्हन् यहाँ अधिक समय तक न ठहर सके, जल्दी ही यहाँ से चलता हो। जब उपस्थान के समय अर्हन् ने आकर उसको अभिवादन किया, तब उस स्थविर ने उससे बात तक न की। अर्हन् ने उसके मन का भाव समझ लिया। उन्होंने जान लिया कि यह स्थविर यह समझकर घबरा रहा है कि कहीं मेरे कारण इसका यहाँ का रंग फीका न पड़ जाए। वे चुपचाप फिर अपनी कोठरी में चले गए और ध्यानस्थ होकर अंतर्दष्टि का स्वर्गीय सुख भोगने लगे।
दूसरे दिन प्रभात होने पर स्थविर ने एक चाल चली। उसे विहार के सब भिक्षुओं को यथा समय जगाने के लिए ज़ोर-ज़ोर से घंटा बजाना चाहिए था और द्वार-द्वार पर जाकर ज़ोर से खटखटाना चाहिए था। पर उस दिन उसने बहुत धीरे से घंटा बजाया और केवल नाख़ून से बहुत ही धीरे से द्वार खटखटाया; और अकेला ही ज़मींदार के घर चला गया। ज़मींदार ने उसके हाथ से भिक्षापात्र ले लिया और पूछा—वे आगंतुक कहाँ हैं? स्थविर ने उत्तर दिया—मैं अपने मित्र का कोई समाचार नहीं जानता। मैंने घंटा बजाया, द्वार खटखटाया, पर वे किसी प्रकार जागे ही नहीं। जान पड़ता है कि कल उन्होंने यहाँ जो अच्छा और अधिक भोजन किया था, वह अभी तक पचा नहीं; इसीलिए वे अभी तक सो रहे हैं।
उधर उन अर्हन् ने पहले तो भिक्षाचर्या के समय तक प्रतीक्षा की और तब स्नान करने के उपरांत वेश-परिवर्तित करके और भिक्षापात्र तथा चीवर लेकर वे आकाश मार्ग से कहीं और चले गए।
भूस्वामी ने विहार वाले स्थविर को घृत, मधु, शक्कर और परमान्न भोजन कराया और सुगंधित चूर्ण द्वारा उसका पात्र साफ़ कराकर फिर उसे पायस से भरकर कहा—महाशय, जान पड़ता है कि अर्हन् मार्ग के श्रम के कारण थके हुए हैं। आप उनके लिए यह पायस लेते जाइए। स्थविर ने बिना किसी प्रकार की आपत्ति किए वह पात्र हाथ में ले लिया और चलते समय सोचने लगा कि यदि यह अर्हन् एक बार भी इस प्रकार का परमान्न खा लेगा, तो फिर धक्के और झाड़ू खाने पर भी यहाँ से न टलेगा। और यदि यह पायस मैं किसी दूसरे को दे देता हूँ, तो बात खुल जाएगी। यदि मैं इसे जल में फेक दूँ, तो इसका घी पानी पर उतर आएँगा। यदि ज़मीन पर फेंक देता हैं, तो गाँव भर के कौवे आकर एकत्र हो जाएँगे। इसी प्रकार बहुत कुछ ऊहापोह करने के उपरांत उसने एक स्थान पर आग जलती हुई देखी। उसने तुरंत एक कोने में कुछ अँगारे सरकाकर उन पर वह पायस गिरा दिया और उसके उपर कुछ और अँगारे छोड़कर वह अपने विहार में चला गया। वहाँ पहुँचने पर जब उसने अर्हन् को न पाया, तो उसका वह भाव बदल गया और उसने सोचा कि ये महात्मा और सज्जन थे, मेरे मन का भाव समझकर कहीं और चले गए।
अब उसे मन ही मन इस बात का पश्चात्ताप होने लगा कि देखो, इस पेट के लिए मैंने कैसा पाप किया! इस अनुताप के कारण थोड़े ही दिनों में वह सूखकर प्रेत के समान हो गया और मरने के उपरांत निरय में जाकर लाख वर्ष तक दुःख भोगता रहा। इसके उपरांत इस पाप के कारण उसे पाँच सौ बार यक्ष की योनि में जन्म लेना पड़ा। इन सब जन्मों में उसने प्रत्येक जन्म में केवल एक ही एक बार भर पेट गभमल खाया था; और कभी उसे भर पेट भोजन न मिला था। इसके उपरांत उसे फिर पाँच सौ बार कुत्ते का जन्म धारण करना पड़ा था। इन जन्मों में भी उसे केवल एक बार वमन किया हुआ अन्न भर पेट मिला था; और नहीं तो कभी उसका पेट नहीं भरा था। कुत्तेवाले जन्मों का अंत हो जाने पर उसने फिर मनुष्य का शरीर धारण किया और काशी में एक भिक्षुक के घर जन्म ग्रहण किया। उस समय उसका नाम मित्रविंदक था। उसके दुर्भाग्य के कारण उसके परिवार की दुर्गति सौगुनी बढ़ गई। इसलिए उसे निर्वाह के हेतु काँजी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं मिलता था; और वह काँजी भी इतनी थोड़ी होती थी कि पेट में जाने पर नाभी तक ही रह जाती थी, उससे ऊपर पहुँचती ही न थी। जब उसके माता-पिता भूखों मरने लगे, तब उन्होंने भी उसे यह कहकर घर से निकाल दिया कि—दूर हो, कालकर्णी!
उस समय बोधिसत्व वाराणसी में एक बहुत ही प्रसिद्ध अध्यापक थे। पाँच सौ शिष्य उनमें शिल्प की शिक्षा पाते थे। उन दिनों वाराणसी के निवासियों में यह प्रथा थी कि वे दरिद्र बालकों के भरण-पोपण तथा शिक्षा-दीक्षा आदि की व्यवस्था कर दिया करते थे। घर से निकाला हुआ मित्रविंदक जब घूमता-फिरता वाराणसी में पहुँचा, तब वह इसी प्रथा के प्रसाद से बोधिसत्व के पास पहुँचकर उनके पुण्यशिष्य1 के के रूप में शिक्षा पाने लगा। परंतु मित्रविंदक बहुत ही परुष प्रकृति का तथा उद्दंड था। वह सदा अपने सहपाठियों के साथ मार-पीट किया करता था; और उसे जो कुछ भर्त्सना की जाती थी या दंड दिया जाता था, उसका उस पर कोई प्रभाव नहीं होता था। ऐसे छात्र के रहने के कारण बोधिसत्व की पाठशाला की निंदा होने लगी और उनकी आय भी घट चली। उधर मित्रविंदक भी एक दिन अपने सहपाठियों से लड़ झगड़कर और गुरु के उपदेश की उपेक्षा करके वहाँ से भाग गया और अनेक स्थानों में घूमता-फिरता राज्य के एक प्रत्यंत ग्राम2 में पहुँचा। वहाँ वह मेहनत मज़दूरी करके अपना पेट पालने लगा। वहीं एक दरिद्र स्त्री के साथ उसका पाणिग्रहण हो गया और उसके गर्भ से उसे दो संतानें भी उत्पन्न हुई।
इसके उपरांत उस ग्राम के निवासियों ने मित्रविंदक को इस बात को व्याख्या करने के लिए शिक्षक नियुक्त किया कि सुशासन या सुधर्म किसे कहते हैं और दुःशासन या कुधर्म किसे कहते हैं। उसके निर्वाह के लिए कुछ वेतन निश्चित कर दिया गया और रहने के लिए गाँव के द्वार पर एक कुटी बनवा दी गई। पर मित्रविंदक के केवल वहाँ निवास करने के कारण ही उस ग्राम के निवासी शीघ्र ही राजा के कोपभाजन हो गए और उन्हें एक दो बार नही, सात-सात बार दंड भोगना पड़ा। उनके घर-बार भी सात बार जलकर राख हो गए और उनके तालों आदि का पानी भी सात बार सूख गया।
अब वे लोग सोचने लगे कि मित्रविंदक के आने के पहले तो हम लोग बहुत सुखी थे; पर जब से वह आया है, तब से हम लोगों पर नित्य नई विपत्तियाँ आती हैं। इसलिए उन लोगों ने उसे लाठियों से मार-मारकर गाँव से बाहर निकाल दिया। मित्रविंदक अपने परिवार को साथ लेकर घूमता फिरता एक ऐसे वन में पहुँचा, जिसमें राक्षस रहा करते थे। वहाँ उन राक्षसो ने उसकी श्री और दोनों पुत्रों को मार डाला। उसने किसी प्रकार वहाँ से भागकर अपने प्राण बचाए और अनेक स्थानों में भटकता हुआ अंत में समुद्र तट के गंभीरा नामक बंदर में पहुँचा। उस बंदर से एक जहाज़ कहीं जाने को था। मित्रविंदक ने उसी जहाज़ पर नौकरी कर ली और उसके साथ चल पड़ा। बंदर से चलने पर एक सप्ताह तक तो जहाज़ ठीक चलता रहा, पर एक सप्ताह के उपरांत वह समुद्र में बिल्कुल निश्चल होकर खड़ा हो गया। जान पड़ने लगा कि मानों वह समुद्र में डूबे हुए किसी पहाड़ में अटक गया हो। जहाज़ पर के लोगों ने यह जानने के लिए गोटी डाली कि किस कालकर्णी के अभाग्य के कारण जहाज़ इस प्रकार रुका है। सात बार गोटी डाली गई और हर बार मित्रविंदक का ही नाम निकला। इसलिए उन लोगों ने मित्रविंदक को बाँस के एक बेड़े पर बैठाकर समुद्र में उतार दिया। मित्रविंदक के उतरते ही जहाज़ फिर अच्छी तरह चलने लगा।
मित्रविंदक बड़े कष्ट में बाँस के उस बेड़े पर बैठा और तरंगों के साथ-साथ इधर उधर बहने लगा। सम्यक्संबुद्ध काश्यप के समय में शील आदि का पालन करके उसने जो पुण्य संचित किया था, इस समय उसी के प्रभाव से उसे समुद्र में स्फटिक का एक विमान मिला। उस विमान पर प्रेत भाव से आपन्न और मायाविनी चार देवकन्याएँ थीं। उन्हीं देवकन्याओं के साथ एक सप्ताह तक उसने सुखपूर्वक विहार किया। विमान पर रहने वाले प्रेत एक सप्ताह तक सुख और एक सप्ताह तक दुःख भोगा करते हैं। अतः जब सुखवाला सप्ताह समाप्त हो गया, तब से देवकन्याएँ दुःख भोगने के लिए कहीं और चली गई। चलते समय उन्होंने मित्रविंदक से कह दिया था कि जब तक हम लोग लौटकर न आएँ, तब तक तुम यहीं रहना। पर उन देवकन्याओं के जाते ही मित्रविंदक अपने बेड़े पर बैठकर चाँदी के एक विमान के पास जा पहुँचा। उस विमान पर उसे आठ देवकन्याएँ दिखाई दीं। वहाँ से आगे चलकर उसने एक मणिमय विमान पर सोलह देवकन्याएँ और फिर एक और विमान पर, जो सोने का था, चौबीस देवकन्याएँ देखीं। पर उसने उनमें से किसी से बात तक नहीं की और अपना बेड़ा चलाता-चलाता द्वीप पुंज की एक यक्षपुरी में जा पहुँचा। वहाँ एक यक्षिणी बकरी का रूप धारण करके घूम रही थी। मित्रविंदक ने उसे मारकर उसका मांस खाना चाहा और इसीलिए उसका पैर पकड़ लिया। इस पर उस यक्षिणी ने ऐसे ज़ोर से उसे उछाला कि वह समुद्र पार करके आकाश मार्ग से उड़ता हुआ वाराणसी की काँटों से भरी हुई एक परिखा में जा गिरा।
उसी परिखा के पास राजा की बकरियों चरा करती थी। चार लोग जब अवसर पाते थे, तब उनमें से एक दो बकरियाँ चुरा ले जाया करते थे। उन चोरों को पकड़ने के लिए बकरियों के दो चार रक्षक उस समय वहाँ छिपे हुए बैठे थे। मित्रविंदक खड़ा होकर उन बकरियों को देखने लगा। उसने मन में सोचा कि एक बार द्वीप में मैने उस बकरी का पैर पकड़ा था, जिसने मुझे उठाकर यहाँ फेंक दिया। यदि अब मैं इनमें से किसी बकरी का पैर पकड़ूँ, तो संभव है कि वह मुझे उठाकर फिर समुद्र में देव-कन्याओं के विमानों के पास फेंक दे। यह सोचकर उसने तुरंत एक बकरी का पैर पकड़ा, जिससे बकरी मिमियाने लगी। उसका मिमियाना सुनते ही बकरियों के रक्षक वहाँ आ पहुँचे और बोले—तू राजा की बहुत सी बकरियाँ चुराकर खा गया है। यह कहकर वे लोग उसे मारते-मारते राजा के पास ले चले।
ठीक उसी समय बोधिसत्व अपने पाँच सौ शिष्यों को साथ लेकर स्नान करने के लिए नगर के बाहर निकल रहे थे। मित्रविंदक को देखते ही उन्होंने पहचान लिया और वे बवकरियों के रक्षकों से बोले—यह तो मेरा शिष्य है। तुम लोगों ने इसे क्यों पकड़ा है? उन्होंने उत्तर दिया— महाराज, यह चोर है। यह बकरी चुराकर भागना चाहता था; इसी बीच में हम लोगों ने इसे पकड़ लिया। बोधिसत्व ने कहा—तुम लोग इसे मेरे सपुर्द कर दो। यह मेरा दास होकर रहेगा। उन लोगों ने कहा—अच्छी बात है। और मित्रविंदक को बोधिसत्व के हाथ सौंपकर वे लोग चले गए। उस समय बोधिसत्व ने उससे पूछा—तुम इतने दिनों तक कहाँ थे? उसने आदि से अंत तक अपना सारा वृत्तांत कह सुनाया। सब समाचार सुनकर बोधिसत्व ने कहा—जो अपने हितैषियों की बात नहीं सुनता, उसकी इसी प्रकार दुर्दशा होती है।
इसके उपरांत बोधिसत्व और मित्रविंदक दोनों ही अपने-अपने कर्मों का फल भोगने के लिए दूसरे लोकों में चले गए।
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