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इल्लीस जातक

illis jatak

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इल्लीस जातक

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    वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में इल्लीस नामक एक श्रेष्ठी था, जिसके पास अस्सी करोड़ स्वर्णमुद्राएँ थीं। मनुष्य में जितने दोष हो सकते हैं, उनमें से कदाचित ही कोई दोष ऐसा हो जो इल्लीस के शरीर या चरित्र में हो। वह लँगड़ा, कुबड़ा और भेंगा था; धर्म पर उसकी तनिक भी श्रद्धा थी; और वह किसी बात से कभी संतुष्ट होता था। वह इतना बड़ा कृपण था कि दूसरों को कुछ देना तो दूर रहा, आप भी एक कौड़ी का भोग करता था। इसी कारण लोग उसके घर से उतना ही दूर रहते थे, जितना राक्षसों वाले सरोवर से रहते हैं। सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि उससे पिता, पितामह आदि सात पीढ़ियों में तो सदा से बहुत अधिक दान-पुण्य होता आया था; पर जब से इल्लीस श्रेष्ठी पद पर आया, तब से उसने मानों अपने कुलाचार का नाश कर दिया था। उसने दानशाला जलवा दी थी और याचकों को पिटवाकर निकलवा दिया था। धन संचय करने के अतिरिक्त उसे और कोई काम ही था।

    एक दिन इल्लीस राजा से भेंट करके घर लौट रहा था। इतने में उसने मार्ग में देखा कि एक थका हुआ व्यक्ति बैठा मद्य पी रहा है और बीच-बीच में दुर्गंधयुक्त सूखी मछली खाकर बहुत तृप्त हो रहा है। यह घृणित दृश्य देखकर इल्लीस के मन में भी मद्य पीने की इच्छा हुई। पर उसने सोचा कि यदि मैं मद्य पीऊँगा, तो घर के और लोगों को भी मद्य देना पड़ेगा...जिससे धन का नाश होगा। इसलिए वह अपनी इच्छा को मन ही मन दबाकर वहाँ से चला गया।

    पर इल्लीस की मद्य पीने की इच्छा अधिक समय तक रुक सकी। उसका शरीर पुरानी रूई की तरह पोला पड़ गया और नसें दिखाई पड़ने लगीं। वह अपने शयनागार में जाकर मंच पर लेट गया। उसकी स्त्री ने उसे उस अवस्था में देखकर हाथ से उसकी पीठ सहलाते हुए पूछा— क्या आज आपका शरीर अच्छा नहीं है? इल्लीस ने कहा—आज मेरी मद्य पीने की इच्छा है। पर यदि मैं मद्य पीऊँगा, तो घर के और लोगों को भी मद्य देना पड़ेगा। इसीलिए मैं चिंतित हूँ। उसकी स्त्री ने कहा—यदि आप कहें, तो मैं घर में उतना ही मद्य बना दूँ जितना केवल आप पी सकते हों। इल्लीस ने कहा—यदि तुम घर में मद्य बनाओगी, तो लोग देख लेंगे। किसी दूसरे स्थान में यहाँ मद्य लाकर पीना भी असंभव है। अंत में बहुत कुछ सोच विचारकर उसने एक रुपया निकाला और बाज़ार से मद्य मँगवाया और एक दास के कंधे पर बैठकर नगर के बाहर चला गया। वहाँ वह नदी के तट पर एक झाड़ी के पास जा बैठा। वहाँ पहुँचकर उस दास को वहाँ से विदा कर दिया और आप वहीं बैठकर मद्य पीने लगा।

    इल्लीस के पिता ने अपने दान-पुण्य आदि के फल से देवकोक में शक्र के रूप में जन्म ग्रहण किया था। इल्लीस जब मद्य-पान करने लगा, तब शक्र ने सोचा कि ज़रा देखना चाहिए कि नरलोक में मैं दान व्रत का जिस प्रकार पालन करता था, उसका पालन इस समय भी होता है या नहीं। वहीं बैठे-बैठे उन्होंने जान लिया कि मेरे कुलांगार पुत्र ने कुलाचार का नाश करके दानशाला जलवा दी है, याचकों को पिटवाकर निकलवा दिया है और वह इतना कृपण हो गया है कि दूसरों को भी कुछ अंश देने के भय से एक झाड़ी के नीचे अकेला बैठकर मद्यपान कर रहा है। इस पर शक्र को बहुत ही दुःख हुआ और उन्होंने संकल्प किया कि मैं अभी भूतल पर जाऊँगा और वहाँ जाकर ऐसा प्रयत्न करूँगा, जिसमें मेरे पुत्र की मति पलट जाए, वह समझ जाए कि कैसे कर्मों का क्या फल होता है, और पुण्य कृत्य करके देवत्व प्राप्त करने का अधिकारी हो जाए।

    उसी समय शक्र भूतल पर उतर आए और मनुष्य बनकर उन्होंने बिल्कुल इल्लीस का रूप धारण किया। वे उसी प्रकार लँगड़े, उसी प्रकार कुबड़े और उसी प्रकार भेंगे बने। यहाँ तक कि इल्लीस में और उनमें आकार-प्रकार का कोई अंतर रह गया। उन्होंने उसी वेश से वाराणसी में प्रवेश किया और राजद्वार पर पहुँचकर गजा के पास अपने आने का समाचार भेजा। राजा की अनुमति पाकर वे राजमंड में पहुँचे और राजा को अभिवादन करके उनके सामने खड़े हो गए।

    उन्हें देखकर राजा ने पूछा—सेठ जी, आप इस असमय में कैसे आए? श्रेष्टी रूपी शक्र ने कहा—महाराज, मेरे पास अस्सी करोड़ स्वर्णमुद्राएँ हैं। वे सब आप कृपया मँगाकर अपने भांडार में रख लें। राजा ने कहा—मैं वह धन क्यों मँगवा लूँ? मेरे पास तो उसकी अपेक्षा बहुत अधिक धन है। शक्र ने कहा—यदि आप वह धन लेना चाहते हों, तो मुझे आज्ञा दीजिए; मैं जिस प्रकार चाहूँगा, उस प्रकार उसे दान करूँगा। राजा ने कहा—हाँ हाँ, अवश्य कीजिए। शक्र जो आज्ञा कहकर और राजा को प्रणाम करके इल्लीस के घर पहुँचे। उन्हें देखकर चारों ओर से सेवक दौड़ आए। उनके इल्लीस होने के संबंध में किसी को कोई संदेह हुआ। उन्होंने दहलीज़ पर रुककर दरबान को बुलाया और कहा—देखो, मेरे ही रूप रंग का यदि और कोई व्यक्ति आवे और यह कहकर घर में घुसना चाहे कि यह घर मेरा है, तो उसे घर में घुसने देना और धक्के देकर निकाल देना। इसके उपरांत शक्र उस प्रासाद में जाकर शयनागार में एक आसन पर जा बैठे और इल्लीस की स्त्री को बुलाकर हँसते हुए कहने लगे—आओ आज से हम लोग दानशील हो जाएँ।”

    शक्र की यह बात सुनकर इल्लीस की स्त्री पुत्र, कन्या, दास, दासी सभी ने सोचा कि आज तक तो कभी इसकी इच्छा एक कौड़ी भी दान करने की हुई। जान पड़ता है कि आज मद्य पीने के कारण इसका जी खुल गया है। इसीलिए आज यह कुछ दान-पुण्य करना चाहता है। इल्लीस की स्त्री ने उत्तर दिया—प्रभु, यह धन आपका ही है। इसमें से आप जितना चाहें, उतना दान कर सकते हैं। शक्र ने कहा—तुरंत एक भेरीवादक को बुलाकर कह दो कि वह सारे शहर में जाकर इस बात की घोषणा कर आवे कि जो लोग सोना, चाँदी, हीरा, मोती आदि लेना चाहते हों, वे तुरंत इल्लीस श्रेष्ठी के घर पर आवें। इल्लीस की स्त्री ने तुरंत इस बात की व्यवस्था कर दी और थोड़ी ही देर में हज़ारों आदमी आकर इल्लीस के द्वार पर खड़े हो गए। उस समय शक्र ने अपना वह भांडार खोल दिया जिसमें सातों प्रकार के रत्न थे; और जो लोग आए थे, उनसे कहा—मैंने यह धन तुम लोगों को दान कर दिया। इसमें से जिसके जी में जितना आवे, वह उतना उठा ले जाए। यह बात सुनते ही सब लोग यथा शक्ति उठा उठाकर आँगन में रत्नों का ढेर लगाने लगे और तब सब लोग रत्नों से अपने-अपने पात्र भरकर वहाँ से चले गए।

    जो लोग वहाँ रत्न लेने आए थे, उनमें से एक ने इल्लीस का एक रथ निकालकर बाहर खड़ा कर लिया था और उस पर उसने रत्न आदि लाद लिए थे। गोशाला से एक बैल लाकर उसने उसी रथ में जोता और उसे हाँकता हुआ नगर से निकलकर वह राजपथ पर से होकर चलने लगा। इल्लीस जिस झाड़ी में बैठा हुआ मद्यपान कर रहा था, जब वह व्यक्ति उस झाड़ी के पास पहुँचा, तब इस प्रकार इल्लीस का गुण-कीर्तन कर रहा था—ईश्वर करे, हमारे इल्लीस सेठ को सौ वर्षों की आयु हो। आज उसने मुझे जितना दान दिया है उतने में तो मैं आजन्म सुख से बैठकर खा सकूँगा। यह बैल भी उसी का है, यह रथ भी उसी का है और इस पर लदे हुए ये रत्न आदि भी उसी के हैं। तो मेरी माता ने ही यह धन मुझे दिया है और मेरे पिता ने ही।

    उस व्यक्ति की बातें सुनकर इल्लीस मन में बहुत डरा। वह सोचने लगा कि यह बात क्या है। यह मनुष्य मेरा नाम ले लेकर इतनी बातें कह गया। क्या राजा ने आज मेरी सारी सम्पत्ति प्रजा में लुटवा दी? वह तुरंत उस झाड़ी से बाहर निकल आया। बाहर आकर उसने देखा कि सचमुच रथ भी मेरा ही है और बैल भी मेरा ही। उसने झपटकर बैल का रस्सा पकड़ लिया और बिगड़कर उस व्यक्ति से कहा—क्यों रे धूर्त, तू मेरा रथ और बैल कहाँ लिए जाता है? वह व्यक्ति भी रथ पर से कूद पड़ा और बोला—तू स्वयं धूर्त है जो ऐसी बातें करता है! हमारा इल्लीस श्रेष्ठी सारे नगरनिवासियों को दान दे रहा है। इस बीच में बोलने वाला तू कौन है! इतना कहकर उसने इल्लीस के मस्तक पर तानकर एक मुक्का मारा और अपना रथ हाँक ले चला। मुक्के के आघात से इल्लीस गिर पड़ा था। उसके चले जाने पर वह काँपता हुआ उठा और शरीर की धूल पोंछता हुआ फिर उस रथ के पीछे दौड़ा। थोड़ी दूर जाने पर उसने रथ पकड़ लिय। वह व्यक्ति फिर रथ पर से उतर पड़ा और इल्लीस के सिर के बाल पकड़कर और उसे भूमि पर पटककर ख़ूब मारने लगा; और अच्छी तरह मार पीटकर फिर रथ पर चढ़कर चलता हुआ।

    मार खाने से इल्लीस का दशा हरन हो गया। वह काँपता हुआ घर की ओर चला। मार्ग में उसे बहुत से लोग मिलते थे जो उसका धन लिए जाते थे। वह एक-एक को रोककर उनसे पूछता था—क्यों भाई, यह क्या बात है! क्या आज राजा ने आज्ञा दी है कि सब लोग मेरा भांडार लूट लें? पर वह जिससे पूछता था, वही उसे धक्का देकर गिरा देता था और आप अपना रास्ता लेता था। जगह-जगह मार खाने के कारण उसका सारा शरीर लहू-लुहान हो गया था। जब वह अपने घर पहुँचकर अंदर जाने लगा, तब द्वारपाल ने उसे झिड़ककर कहा—कहाँ जाता है वे धूर्त? और उसे धक्का देकर बाहर निकाल दिया। इल्लीस की समझ में ही आता था कि यह क्या हो गया। उसने सोचा कि अब राजा की शरण में जाने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। यह सोचकर वह राजद्वार पर जा पहुँचा और ज़ोर से यह कह-कहकर चिल्लाने लगा—दुहाई महाराज को! मैंने आपका क्या अपराध किया है जो आपने लोगों को मेरा सर्वस्व लेने की आज्ञा दी है।

    राजा ने कहा—महाश्रेष्ठी! मैं तुम्हारा सर्वस्व लूटने की आज्ञा क्यों देने लगा! अभी तो तुम्हीं ने आकर मुझसे कहा था कि मेरा सब धन अपने भांडार में रखवा लीजिए। पर जब मैंने तुम्हारी बात नहीं मानी, तब तुमने कहा कि अब में उसे जैसे चाहूँगा, वैसे दान करूँगा। इसके उपरांत तुम्हीं ने भेरी बजवाकर घोषणा कराई और उसी के अनुसार नगर निवासी तुम्हारे घर जाकर रत्न आदि ले आए। इल्लीस ने कहा—महाराज, मैंने तो कभी आपके समीप आकर यह प्रार्थना नहीं की। मैं जैसा कृपण हूँ, वह तो आपको विदित ही है। मैं तो कभी तिनके की नोक से भी कभी कोई चीज़ दान नहीं करता। जो मेरा धन इस प्रकार लुटा रहा है, आप कृपाकर इसी समय उसे बुलावें और उसका विचार करें।

    राजा ने श्रेष्ठी रूपी शक्र को बुलाया। उनके आने पर सब लोगों ने देखा कि आकार प्रकार आदि में इल्लीस में और उनमें तनिक भी अंतर नहीं है। इसलिए राजा या उनके मंत्रियों में से कोई यह स्थिर कर सका कि इनमें से वास्तविक इल्लीस कौन है। इल्लीस कहता था—महाराज, मैं ही इल्लीस हूँ। राजा ने कहा—मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आता। क्या और कोई निश्चयपूर्वक यह बतला सकता है कि तुम दोनों में वास्तविक इल्लीस कौन है? इल्लीस ने कहा—मेरी भार्या ही इसका निर्णय कर सकती है। पर उसकी भार्या ने शक्र को ही अपना पति बतलाया और वह उसी के पास जाकर खड़ी हो गई। इसके उपरांत इल्लीस के पुत्र, कन्या, दास, दासियों आदि ने भी वही प्रश्न किया गया और सब ने एक स्वर से शक्र को ही श्रेष्ठी बतलाया। तब इल्लीस ने मन में सोचा कि मेरे सिर में बालों के अंदर एक मसा है, जिसे मेरे नापित के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता। इसलिए अब उसी नापित को बुलवाकर इस बात का निर्णय कराना चाहिए। यह सोचकर उसने राजा से नापित को बुलवाने की प्रार्थना की।

    उस समय बोधिसत्व ही इल्लीस के नापित थे। राजा की आज्ञा से वे भी बुलवाए गए। उनसे पूछा गया—क्या तुम बतला सकते हो कि इन दोनों में से वास्तविक इल्लीस कौन है? बोधिसत्व ने उत्तर दिया—महाराज, मैं इन दोनों के सिर देखकर यह बात बतला सकता हूँ। इसपर शक्र ने तुरंत अपने सिर में उसी स्थान पर एक मसा उत्पन्न कर लिया। बोधिसत्व ने दोनों के सिर देखकर कहा—महाराज, इन दोनों के सिर में एक ही प्रकार का मसा है। इस कारण मैं भी यह नहीं कह सकता कि इनमें से वास्तविक श्रेष्ठी कौन है और छद्मवेशी कौन है।

    बोधिसत्व की बात सुनते ही इल्लीस धन के शोक के कारण काँपता हुआ गिर पड़ा और मूर्च्छित हो गया। उस समय शक्र ने आकाश में उठकर कहा—महाराज, मैं इल्लीस नहीं हूँ। इधर लोगों ने इल्लीस के मुँह और शरीर पर पानी के छींटे देकर उसे सचेत किया। होश आने पर वह उठकर खड़ा हुआ और उसने देवराज शक्र को प्रणाम किया। उस समय शक्र ने उससे कहा—सुनो इल्लीस, यह सारा वैभव मेरा था, तुम्हारा नहीं था। मैं तुम्हारा पिता हूँ और तुम मेरे पुत्र हो। मैंने जीवन काल में जो दान-पुण्य किया था, उसके कारण इस समय मुझे शक्रत्व प्राप्त हुआ है। परंतु तुमने अपने कुलाचार का नाश कर दिया; यह जाना ही नहीं कि दान, पुण्य और धर्म किसे कहते हैं। तुमने केवल कृपणता सीखी; दानशाला बंद करा दी; याचकों को पिटवाकर निकाल दिया और सत्र काम छोड़कर केवल धन संचित करना आरंभ किया। अब तो तुम इस धन का भोग कर सकते हो और दूसरा कोई कर सकता है। अब इसका एक कण भी कोई स्पर्श नहीं कर सकता। यदि तुम इस बात की प्रतिज्ञा करो कि तुम दानशाला फिर बनवा दोगे और दीन दुःखियों का पोषण करते रहोगे, तो तुम्हारी इन सब बातों की गिनती सत्कार्यों में होगी। नहीं तो तुम्हारा यह सारा धन अंतर्हित हो जाएगा, तुम्हारे ऊपर वज्रपात होगा और तुम मर जाओगे।

    प्राणभय से इल्लीस बोल उठा—मैं आज से ही दानशील होता हूँ। शक्र ने उसकी बात मानकर आकाश में ही बैठे-बैठे उसे धर्मोपदेश दिया और शील आदि की शिक्षा देकर वे अपने स्थान को चले गए। इसके उपरांत इल्लीस जब तक जीता रहा, तब तक बराबर दान-पुण्य करता रहा और मरने पर देवलोक को गया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 122)
    • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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