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एकपर्ण जातक

ekparn jatak

अज्ञात

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    प्राचीन काल में वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में बोधिसत्व ने एक उदीच्य ब्राह्मण कुल में जन्म लिया था। बड़े होने पर उन्होंने तक्षशिला में तीनों वेदों और समस्त शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त करके कुछ दिनों तक अपने घर में निवास किया था और तब वे ऋषि-प्रव्रज्या ग्रहण करके हिमालय चले गए थे; और वहीं ध्यान आदि में अपना समय बिताया करते थे।

    हिमालय में बहुत दिनों तक रहने के उपरांत एक बार वे नमक, खटाई आदि का अभाव होने के कारण वाराणसी आए थे और राजा के उद्यान में ठहरे थे। वाराणसी में आने के दूसरे ही दिन वे तापसों के योग्य वेश धारण करके भिक्षा के लिए राजद्वार पर पहुँचे। राजा ने वातायन में से उन्हें देखा और उनकी चाल-ढाल पर प्रसन्न होकर वे सोचने लगे—इन तापस महात्मा की सब इंद्रियों कैसी शांत हैं! इनके मन मैं भी कैसी अपूर्व शांति है! ये जिस प्रकार सिंह के समान और सतर्क होकर चल रहे हैं, उससे जान पड़ता है कि जहाँ-जहाँ ये पैर रखते हैं, वहाँ-वहाँ मानों हज़ार रुपए की एक-एक थैली रखते आते हैं। यह सोचकर राजा ने पास बैठे हुए एक अमात्य की ओर देखा। अमात्य ने पूछा—महाराज, क्या आज्ञा है? राजा ने कहा—इन तपस्वी को यहाँ ले आओ। अमात्य जो आज्ञा कह‌कर वहाँ से उठा और बोधिसत्व के पास पहुँचा। उसने उन्हें प्रणाम करके उनके हाथ से भिक्षापात्र ले लिया। बोधिसत्व ने पूछा— धार्मिकवर, आप क्या चाहते हैं? अमात्य ने उत्तर दिया—महाराज आपके दर्शन करना चाहते हैं। बोधिसत्व ने कहा—मैं तो हिमालय का रहनेवाला हूँ। राजभवन में तो मैं कभी आया गया नहीं।

    अमात्य ने जाकर ये बातें राजा से कहीं। राजा ने कहा—हमारे यहाँ कोई ऐसा तापस नहीं है, जो नित्य आकर हमारे यहाँ भिक्षा ग्रहण करे और हम लोगों को उपदेश दिया करे। तुम इस तापस को ले आओ। मैं इन्हें अपने कुल का पूज्य बनाकर रखूँगा। तदनुसार अमात्य ने फिर तापस के पास जाकर उन्हें प्रणाम किया और राजा का निवेदन उन्हें कह सुनाया और उन्हें राजभवन में ले गया।

    राजा ने बहुत ही सम्मानपूर्वक बोधिसत्व को अभिवादन किया उन्हें श्वेत छत्रवाले सोने के सिंहासन पर बैठाया और अपने लिए जो भोजन प्रस्तुत हुआ था, वह उनके सामने रखा। जब बोधिसत्व कुछ विश्राम कर चुके, तब राजा ने उनसे पूछा—आपका आश्रम कहाँ है? बोधिसत्व ने कहा—महाराज, मैं हिमालय में रहता हूँ। राजा ने पूछा—अब आपका कहाँ जाने का विचार है? बोधिसत्व ने कहा—इस समय मैं वर्षा ऋतु में निवास करने के योग्य स्थान ढूँढ़ रहा हूँ। राजा ने कहा—तो फिर आप कृपाकर मेरे उद्यान में ही ठहरें। जब बोधिसत्व ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकृत कर ली, तब राजा ने भोजन किया और उन्हें अपने साथ उद्यान में ले गए। वहाँ उन्होंने बोधिसत्व के लिए एक सुंदर पर्णशाला बनवा दी। उस पर्णशाला का एक अंश तो ऐसा था जो दिन के समय रहने योग्य था; और दूसरा ऐसा था जो रात के समय रहने योग्य था। तापसों को जिन जिन चीज़ों की आवश्यकता होती है, राजा ने उन सब चीज़ों की भी वहाँ व्यवस्था कर दी और उद्यानपाल को बोधिसत्व की देखभाल का भार सौंपकर वे अपने प्रासाद को चले गए। तब से बोधिसत्व उसी उद्यान में रहने लगे। राजा नित्य दिन में दो बार उनके दर्शन के लिए उद्यान में आया करते थे।

    राजा का एक पुत्र था जो बहुत ही क्रोधी, उग्र, निष्ठुर और दुष्ट स्वभाव का था। तो राजा ही उसका दमन कर सकते थे और राजपरिवार के और किसी से वह दबता था। सब अमात्यों, ब्राह्मणों और गृहपतियों आदि ने एक बार एकत्र होकर क्रोधपूर्वक कुमार से कह दिया था—आप इस प्रकार का अनुचित व्यवहार किया कीजिए। आपका यह आचरण बहुत ही गर्हित है। परंतु इसका भी कोई फल नहीं हुआ। जब बोधिसत्व आए, तब राजा ने सोचा कि इन परम पूज्य शीलसंपन्न तपस्वी के बिना और कोई मेरे पुत्र की मति परिवर्तित नहीं कर सकता; इसलिए अपने पुत्र के उद्धार का भार इन्हीं पर देना चाहिए। यह निश्चय करके एक दिन वे कुमार को अपने साथ लेकर बोधिसत्व के पास पहुँचे और बोले—महाराज. मेरा यह पुत्र बहुत ही निष्ठुर और उग्र स्वभाव का है। मैं किसी प्रकार इसका दमन नहीं कर सकता। आप ही इसे ठीक मार्ग पर लाने का कोई उपाय कीजिए। यह कहकर उन्होंने कुमार को बोधिसत्व के हाथ सौंप दिया और आप प्रासाद को चले गए। बोधिसत्व कुमार को अपने साथ लेकर उद्यान में टहलने लगे। इतने में उन्होंने देखा कि एक स्थान पर नीम का एक कल्ला निकल रहा है, जिसमें दोनों ओर दो छोटी पत्तियाँ लगी हैं।

    बोधिसत्व ने कहा—कुमार, ज़रा इसमें से एक पत्ती तोड़कर खाओं और देखो कि इसका स्वाद कैसा है। कुमार ने उसे खाते ही छी-छी करते हुए थूक दिया। बोधिसत्व ने पूछा—क्यों कुमार, क्या हुआ?” कुमार ने कहा—महाराज, यह छोटा सा वृक्ष तो अभी से हलाहल है। जब यह बढ़कर बड़ा होगा, तब जाने इसके कारण कितने मनुष्यों के प्राण जाएँगे। यह कहकर उसने नीम का वह कल्ला उखाड़ लिया और उसे हाथ से मलकर फेंकते हुए नीचे लिखे आशय की गाथा कही—

    जिस वृक्ष का अंकुर ही विष के समान है, वह जब बढ़ेगा, तब उसका फल खाकर सैंकड़ों आदमी मरेंगे।

    यह सुनकर बोधिसत्व ने कहा—कुमार, तुमने यह सोचकर नीम का यह वृक्ष उखाड़ डाला कि जब यह अभी से इतना तीता है, तब बढ़ने पर जाने इसकी और क्या दशा होगी। इस कल्ले के साथ तुमने जो कुछ किया है, इस राज्य के निवासी भी तुम्हारे साथ वही करेंगे। वे सोचेंगे कि कुमार इस बाल्यावस्था में ही जब इतने उग्र और दुष्ट स्वभाव के हैं, तब बड़े होने और राजपद पाने पर तो इनकी प्रकृति और भी भीषण हो जाएगी। वे सोचेंगे कि इनके द्वारा हमारी कुछ भी उन्नति या उपकार होगा; इसलिए वे लोग तुम्हें राज्य देंगे और इस नीम के कल्ले के समान उखाड़कर राज्य से दूरकर देंगे। इसलिए मैं तुमको समझा देता हूँ। इस नीम के कल्ले का उदाहरण देखकर ही तुम सम्भल जाओ और शिक्षा ग्रहण करो। आज से तुम अपना स्वभाव शांत करो और सब लोगों के साथ सज्जनता पूर्ण व्यवहार किया करो।

    बोधिसत्व का यह उपदेश सुनकर कुमार की बुद्धि ठिकाने गई। तब से वे बहुत ही शांत स्वभाव के हो गए और सब लोगों के साथ बहुत ही सज्जनता का व्यवहार करने लगे। जब उनके पिता की मृत्यु हो गई और उन्होंने राजपद पाया, तब दान आदि पुण्य कृत्यों का अनुष्ठान करते हुए वे अपने कर्मों के अनुरूप फल भोगने के लिए परलोक को चले गए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 181)
    • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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