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नन्दिविलास जातक

nandivilas jatak

अज्ञात

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नन्दिविलास जातक

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    प्राचीन काल में तत्क्षशिला में गांधार लोग राज्य करते थे। उस समय बोधिसत्व ने बछड़े का जन्म धारण किया था। जिस समय वे नज मे थे, उसी समय एक ब्राह्मण ने किसी दाता से उन्हें प्राप्त किया था। ब्राह्मण ने उनका नाम नन्दिविलास रखा था। वह उन्हें अच्छे-अच्छे पदार्थ और अन्न आदि भोजन के लिए दिया करता था और पुत्र की भोंति उनका पालन पोषण किया करना था। बड़े होने पर बोधिसत्व सोचने लगे कि इस बाह्मण ने बड़े कष्ट से मुझे पाला है। सारे जंबू द्वीप में ऐसा कोई बैल नहीं है जो मेरे जितना बोझ खींच सकता हो। इसलिए अपने बल का परिचय देकर ही इसके लालन-पालन का बदला चुकाना चाहिए। एक दिन उन्होंने ब्राह्मण से कहा—महाराज, आप किसी ऐसे महाजन के पास जाएँ जिसके पास बहुत से बैल आदि हों और उससे यह कह‌कर एक हज़ार रुपए का पण लगाएँ कि मेरा बैल एक सौ लदी हुई गाड़ियाँ खींच सकता है।

    तदनुसार ब्राह्मण ने एक महाजन के पास जाकर यह प्रसंग छेड़ा कि नगर में किसका बैल सबसे अधिक बोझ खींच सकता है। महाजन ने कहा—अमुक का बैल जितना बोझ खींचता है, उतना और किसी का बैल नहीं खींच सकता। ब्राह्मण ने कहा—एक बैल मेरे पास है जो एक साथ ही सौ लदी हुई गाड़ियाँ खींच सकता है। महाजन ने हँसते हुए कहा—भला ऐसा भी बैल कहीं होता है! ब्राह्मण ने कहा—मेरे ही पास है। महाजन बोला—अच्छा तो फिर पण लगा लो। ब्राह्मण ने एक हज़ार रुपए का पण लगाया। एक सौ गाड़ियों पर कंकड़ पत्थर आदि लदवा दिए गए और उन गाड़ियों को एक पंक्ति में खड़ा करके एक साथ बाँध दिया गया। तब उसने नन्दिविलास को स्नान कराके, माला पहनाकर और उँगलियों से गंध आदि के छाप लगाकर सबसे आगे की गाड़ी में जोत दिया और आप गाड़ी पर बैठकर चाबुक हिलाता हुआ कहने लगा— 'चल रे दुष्ट! जल्दी चल रे दुष्ट!

    बोधिसत्व ने सोचा कि मैंने तो आज तक कभी कोई दुष्टता नहीं की, फिर भी यह आज मुझे दुष्ट, दुष्ट कह रहा है। इसलिए वे अपने चारों पैरों को खंभे की तरह अड़ाकर खड़े हो गए और एक पग भी आगे बढ़े।

    महाजन ने तुरंत उस ब्राह्मण से पण के एक हज़ार रुपए ले लिए। हज़ार रुपए दंड देकर ब्राह्मण नन्दिविलास को खोलकर घर ले आया और बहुत उदास होकर चुपचाप सो रहा। बैल-रूपी बोधिसत्व जब बाहर में चरकर संध्या समय घर आए, तब उन्होंने देखा कि ब्राह्मण अभी तक उदास पड़ा हुआ है। बोधिसत्व ने पूछा—क्या आप सोने जा रहे हैं? ब्राह्मण ने कहा—जिसके एक हज़ार रुपए इस प्रकार व्यर्थ पानी में मिल जाएँ, उसे भला नींद सकती है! बोधिसत्व ने कहा—महाराज, मैं बहुत दिनों तक आपके पास रहा हूँ। इस बीच में क्या मैंने आज तक आपकी कभी कोई हानि की है? तो आज तक मैंने कभी किसी को मारा, आपका एक बर्तन तक तोड़ा, अपने निश्चित स्थान को छोड़कर और किसी स्थान पर मल मूत्र का त्याग किया। ब्राह्मण ने कहा—नहीं, आज तक तुमने मेरा कोई अनिष्ट नहीं किया। बोधिसत्व ने पूछा—तो फिर आज आपने मुझे दुष्ट क्यों कहा? अतः आज आपकी जो हानि हुई है, वह आपके ही दोष के कारण हुई है, मेरे कारण नहीं। अब आप फिर उसी महाजन के पास जाएँ और इस बार दो हज़ार रुपयों की बाज़ी लगाएँ। पर एक बात का ध्यान रखिएगा। आज से मुझे कभी दुष्ट कहिएगा। बोधिसत्व की यह बात सुनकर ब्राह्मण फिर उसी महाजन के पास गया और उससे दो हज़ार रुपए की शर्त लगाई। फिर पहले की ही भाँति गाड़ियों लादकर एक पंक्ति में बाँधी गई और नन्दिविलास को ख़ूब सजाकर आगे की गाड़ी में जोत दिया गया। ब्राह्मण ने नन्दिविलास की पीठ पर हाथ फेरते हुए और उसे प्रेमपूर्वक चुमकारते हुए कहा—हाँ भइया, ज़रा खींचो तो। ब्राह्मण के मधुर वाक्य सुनते ही बोधिसत्व उन गाड़ियों को खींचते हुए चल पड़े। पहले जिस स्थान पर पहली गाड़ी थी, क्षण भर में उसी स्थान पर अंतिम गाड़ी पहुँची। महाजन पण में हार गया और उसने ब्राह्मण को तुरंत दो हज़ार रुपए दे दिए। जिन लोगों ने यह व्यापार देखा था, उन्होंने भी बहुत प्रसन्न होकर नन्दिविलास को बहुत कुछ दिया। वह सब धन भी ब्राह्राण को ही मिला। इस प्रकार बोधिसत्व की कृपा से ब्राह्मण को बहुत सा धन मिल गया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 32)
    • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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