कुलायक जातक
kulayak jatak
बहुत दिनों की बात है, मगध के राजा लोग राजगृह नगर में रहा करते थे। उस समय बोधिसत्व ने मगध के मचल नामक ग्राम में उच्च कुल के एक ब्राह्मण के घर में जन्म लिया था। नामकरण के समय उनका नाम मघकुमार रखा गया था। पर जब वे बड़े हुए तब लोग उन्हें मधमाणवक1 उनके माता-पिता ने अच्छे कुल की एक विवाह कर दिया था। अब बोधिसत्व को नाम से पुकारने लगे। कन्या के साथ उनका बाल बच्चे हो गए और वे दान-पुण्य आदि सत्कार्य करते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगे।
मचल ग्राम में केवल तीस घर थे। एक दिन गाँव के सब लोग किसी काम के लिए एक स्थान पर एकत्र हुए। बोधिसत्व जहाँ खड़े थे, वहाँ की धूल उन्होंने पैर से हटा दी और वह स्थान स्वच्छ कर लिया। इतन में एक और आदमी वहाँ आ बड़ा हुआ। बोधिसत्व ने वह स्थान उसके लिए छोड़ दिया और आप कुछ दूर हटकर एक और स्थान साफ़ कर लिया। इतने में एक और आदमी फिर उस स्थान पर आ खड़ा हुआ। इस प्रकार उन्होंने धीरे-धीरे सभी उपस्थित लोगों के लिए स्थान साफ़ कर दिया था।
और एक बार की बात है, बोधिसत्व ने लोगों के सुभीते के लिए पहले एक मंडप बनवाया था और फिर उसे तोड़कर उसके स्थान पर एक धर्मशाला बनवाई थी। वहाँ लोगों के बैठने के लिए आसन और पीने के लिए जल के पात्र रखे रहते थे। बोधिसत्व के प्रयत्न से उस ग्राम के सभी निवासी उन्हीं के समान परोपकारी और धर्मात्मा हो गए थे। वे भी पंचशील-संपन्न होकर बोधिसत्व के साथ मिलकर अनेक प्रकार के सत्कार्य किया करते थे। वे प्रभात के समय शय्या छोड़कर उठ बैठते थे; कुल्हाड़ी और मुद्गर आदि हाथ में लेकर घर से निकल पड़ते थे; रास्ते में पड़े हुए ईंट-पत्थर आदि हटाकर उसे साफ़ कर देते थे; यदि कोई ऐसा पेड़ होता था जिसकी डालियों में गाड़ियों के पहिए यदि अटकते थे, तो उन डालियों या पेड़ों आदि को काट देते थे; ऊबड़-खाबड़ ज़मीन को साफ़ और सम कर देते थे; नालों आदि पर पुल बाँध देते थे; छोटे-छोटे तालाब आदि खोदा करते थे; धर्मशालाएँ बनाते थे; दान-पुण्य आदि शुभ कर्म करते थे और बोधिसत्व के उपदेश के अनुसार शील व्रत का पालन करते थे।
एक दिन मचल आम का प्रधान अधिकारी सोचने लगा—यदि ये सब लोग मद्य आदि पीकर आपस में मारपीट किया करते, तो मद्य के कर तथा लोगों के अर्थ-दंड से मुझे अच्छी आय हो जाया करती। पर यह मघ माणवक इन लोगों को शील व्रत की शिक्षा देता है जिससे नर-हत्या आदि अपराध यहाँ से बिल्कुल उठ ही गए हैं। यह सोचते-सोचते उसे क्रोध आ गया और उसने बिगड़कर मन ही मन कहा—अच्छा, मैं इन लोगों को शीलव्रत का मज़ा चखाता हूँ।
इसके उपरांत गाँव के उस प्रधान ने राजा के पास जाकर कहा—महाराज, गाँव में डाकुओं का एक दल आया है जो लूट पाट और उपद्रव करता फिरता है। राजा ने कहा—उन लोगों को पकड़ लाओ। इस पर वह बोधिसत्व और उनके अनुयायियों को पकड़कर राजा के पास ले गया। राजा ने बिना कुछ पूछे या समझे ही आज्ञा दे दी कि इन लोगों को हाथी के पैरों तले कुचलवा दो।
राजा के सेबक लोग बोधिसत्व और उनके साथियों को पकड़कर गजप्रासाद के आँगन में ले गए और हाथ पैर बाँधकर उन्हें ज़मीन पर रख दिया। हाथी लाने के लिए आदमी भेजा गया। उस समय बोधिसत्व ने अपने साथियों से कहा—भाइयो, शीलव्रत कभी न छोड़ना। सदा इस बात का ध्यान रखना कि यह चुग़ली खानेवाला अधिकारी, दंड देने वाला राजा और हम लोगों को कुचलनेवाला हाथी सभी हमारे लिए समान रूप से प्रेमपात्र हैं।
इतने में हाथी भी वहाँ आ गया। पर महावत बहुत कुछ चेष्टा करने पर भी हाथी को उन लोगों पर न ले जा सका। उन लोगों को देखते ही हाथी चिल्लाकर पीछे भागा। तब कई दूसरे हाथी लाए गए। वे सब भी उसी प्रकार चिल्लाकर पीछे हट गए। राजा ने सोचा कि इन लोगों के पास कोई ऐसा औषध है जिसकी गंध के कारण हाथी इन लोगों के पास नहीं जाते। पर सबकी तलाशी लेने पर भी किसी के पास कोई औषध आदि न निकला। तब राजा ने सोचा कि कदाचित् ये लोग कोई मंत्र जानते हैं। उसने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि इन लोगों से पूछो कि इनमें से कोई मंत्र आदि भी जानता है या नहीं। राजा के सेवकों के पूछने पर बोधिसत्व ने उत्तर दिया—हाँ, हम लोग मंत्र अवश्य जानते हैं। जब सेवकों ने यह बात राजा से कही, तब राजा ने उन लोगों को अपने पास बुलवाकर कहा—अच्छा, बतलाओ वह कौन सा मंत्र है।
बोधिसत्व ने कहा—महाराज, हम लोग कभी किसी प्राणी की हत्या नहीं करते; जब तक हमें कोई द्रव्य नहीं देता, तब तक हम उसे ग्रहण नहीं करते; कभी कुमार्ग में नहीं चलते; झूठ नहीं बोलते और न मद्य पान करते हैं; हम सबके साथ दया और मित्रता का व्यवहार करते हैं; ऊबड़-खाबड़ मार्गों को सम करते हैं तालाब आदि खोदते हैं और धर्मशालाएँ बनाते हैं। यही लोगों का मंत्र है, यही कवच है और यही बल है।
बोधिसत्व की यह बात सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उस चुग़ली खानेवाले प्रधान की मारी संपत्ति छीनकर बोधिसत्व और उनके साथियों में बाँट दी और उस प्रधान को इन लोगों की सेवा में रख दिया। इन लोगों को कुचलने के लिए पहले जो हाथी लाया गया था, वह हाथी, और जिस गाँव में ये लोग रहते थे, वह गाँव भी राजा की आज्ञा से इन लोगों को मिल गया। अब ये सब लोग और भी अच्छी तरह से अनेक प्रकार के शुभ कर्म करने लगे। राज मज़दूर आदि बुलाकर एक चौराहे पर ये लोग एक बड़ी धर्मशाला बनवाने लगे। पर स्त्रियों से ये लोग कुछ बिरक्त रहते थे, इसलिए इस पुण्यकार्य में इन लोगों ने ग्राम की स्त्रियों को अपने साथ सम्मिलित नहीं किया था।
बोधिसत्व के घर में चार स्त्रियाँ थी। उनमें से एक का नाम था सुधर्मा, दूसरी का चित्रा, तीसरी का नंदा और चौथी का सुजाता। एक दिन सुधर्मा ने एक राज को एकांत में पाकर उसे कुछ धन दिया और कहा भाई, तुम कोई ऐसा उपाय करो, जिससे इस धर्मशाला बनवाने के काम में मैं सबसे अधिक पुण्य की भागिनी हो जाऊँ।
राज ने उत्तर दिया—यह कोई बड़ी बात नहीं है। तुम इसके लिए कोई चिंता न करो। इसके उपरांत वह राज एक अच्छी लकड़ी ले आया। जब वह लकड़ी भली भाँति सूख गई, तब उसे छील और रँदकर उसने एक सुंदर शिखर बनाया और एक कपड़े में लपेटकर वह शिखर सुधर्मा के घर में रख दिया। जब धर्मशाला बनकर तैयार हो गई और शिखर बैठाने का ममय आया, तब उम राज ने कहा—एक काम तो रह ही गया। लोगों ने पूछा—बह क्या? उसने उत्तर दिया—इसमें शिखर तो है ही नहीं। बिना शिखर के धर्मशाला किस काम की। लोगों ने कहा—तो फिर एक शिखर भी गढ़ डालो। राज ने कहा—कच्ची लकड़ी का तो शिखर बन ही नहीं सकता। उसके लिए तो पहले से ही लकड़ी की व्यवस्था कर रखनी चाहिए थी। लोगों ने पूछा—तो फिर अब क्या होगा? राजा ने कहा—पता लगाओ, यदि किसी के घर में बना बनाया शिखर मिल जाए, तो वही लेकर काम चलाओ।
अब सब लोग शिखर ढूँढ़ने निकले। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते सुधर्मा के घर में शिखर निकल आया। पर सुधर्मा वह शिखर बेचने के लिए किसी प्रकार राज़ी ही नहीं होती थी। वह कहती थी—यदि तुम लोग मुझे भी इसके पुण्य की भागिनी बनाओ, तो मैं बिना मूल्य लिए ही यह शिखर दे सकती हूँ। लोगों ने कहा—यह तो किसी प्रकार हो ही नहीं सकता। हम लोग स्त्रियों को पुण्य का भाग देते ही नहीं। इस पर उस राजा ने कहा—भला आप लोग यह कैसी बात कहते हैं! इस ब्रह्मांड में एक ब्रह्मलोक को छोड़कर और भी कोई ऐसा स्थान है जहाँ स्त्रियाँ न हों? आप लोग यह शिखर लेकर अपना काम चलाइए। अंत में विवश होकर उन लोगों ने वह शिखर ले लिया और धर्मशाला बनकर तैयार हो गई। उसमें बैठने के लिए फलकासन और पीने के लिए जल में भरे हुए पात्र आदि रखे गए और ऐसी व्यवस्था कर दी गई जिसमें पथिकों को सदा अन्न आदि मिला करें। धर्मशाला के चारों और एक प्राचीर बना और उसमें एक और एक द्वार रखा गया। प्राचीर के अंदर की मारी भूमि में बालू बिछा दिया गया और उसके बाहर ताल के वृक्ष लगा दिए गए। चित्रा ने वहाँ एक उद्यान बनवा दिया जिसमें अनेक प्रकार के पुष्पों और फलों के वृक्ष लग गए। नंदा ने भी वहाँ एक जलाशय खुदवा दिया। उसमें पाँचों वणों के पद्म लग गए जिनसे उसकी शोभा और भी बढ़ गई। एक सुजाता ही ऐसी बच गई जिसने वहाँ कुछ भी न बनाया था।
अब बोधिसत्त्व सप्तविध व्रत का पालन करने लग गए। वे माता-पिता की सेवा करते, बड़े-बूढ़ों का आदर सत्कार करते, सदा सत्य बोलते, कभी किसी को कोई कठोर वचन न कहते, किसी के साथ व्यर्थ बाद विवाद न करते और न किसी से ईर्ष्या द्वेष रखते थे। इस प्रकार सबके प्रशंसा-भाजन बनकर बोधिसत्व ने यथा समय प्राण त्याग दिए और त्रिदशालय में जन्म ग्रहण करके इंद्रत्व प्राप्त किया। उनके साथियों तथा अनुयायियों ने भी इहलोक का परित्याग करके देव जन्म धारण किया।
उस समय त्रिदशालय में असुर लोग निवास किया करते थे। एक दिन देवराज इंद्र ने सोचा कि जिस राज्य में अपना अनन्य और एकांत शासन न हो, वह ठीक नहीं। उन्होंने असुरों को देवसुरा पिलाई और जब वे मत्त हो गए, तब उनमें से एक-एक का पैर पकड़कर सुमेरु पर्वत के नीचे फेंक दिया। वहाँ पहुँचकर असुरों ने सोचा कि वृद्ध इंद्र ने हम लोगों को मत्त करके रसातल में फेंक दिया है और आप समस्त देवलोक का अधिकारी बन गया है। चलो, हम लोग उसके साथ युद्ध करें और फिर से देवनगर पर अपना अधिकार जमावें। अब जिस प्रकार चींटियाँ खंभे पर चढ़ती हैं, उसी प्रकार असुर लोग सुमेरु पर्वत पर चढ़ने लगे।
जब इंद्र ने सुना कि असुर लोग देवनगर पर आक्रमण करने के लिए आ रहे हैं, तब उन्होंने आगे बढ़कर रसातल में ही युद्ध किया। पर युद्ध में वे पराजित होकर पीछे भागे। देवताओं का डेढ़ सौ योजन लंबा वैजयंत रथ दक्षिण समुद्र पर से होता हुआ चलने लगा। उस पर चलते-चलते देवताओं को शाल्मली वन मिला। रथ के धक्के से शाल्मली के वृक्ष उखड़ उखड़कर समुद्र में गिरने लगे और उन वृक्षों पर के पक्षियों के बच्चे समुद्र में गिरकर चिल्लाने लगे। उनकी चिल्लाहट सुनकर इंद्र ने अपने सारथी मातलि से पूछा—क्यों भाई, यह करुण स्वर किसका है? मातलि ने उत्तर दिया—देवराज, आपके रथ के वेग से शाल्मली के वृक्ष टूटकर गिर रहे हैं। इसीलिए उन पर के पक्षियों के बच्चे प्राण के भय से चिल्ला रहे हैं। इंद्र ने यह सुनकर कहा—ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिए इतने प्राणियों को इस प्रकार कष्ट देना उचित नहीं। ऐश्वर्य के लोभ में पड़कर हमें जीव-हिंसा नहीं करनी चाहिए। इसकी अपेक्षा यदि असुर लोग हमको मार ही डालें तो भी अच्छा है। अब तुम यहाँ से रथ लौटाओ।
सारथी ने रथ घुमाकर दूसरे मार्ग से देवनगर की ओर चलना आरंभ किया। असुरों ने जब रथ को घूमते हुए देखा, तब मन में सोचा कि और ब्रह्मांडों से भी इंद्र लोग इनकी सहायता करने के लिए आ रहे हैं। इसीलिए इन्होंने अपना रथ लौटाया है। यह सोचते ही वे लोग भागे और असुर लोक में जाकर शरण ली। इंद्र ने भी देवनगर में प्रवेश किया। वहाँ देवलोक तथा ब्रह्मलोक के निवासी उन्हें चारों ओर से घेरकर खड़े हो गए। उस समय पृथ्वी में से हज़ार योजन ऊँचा एक प्रासाद निकला। वह प्रासाद विजय के समय निकला था, इसलिए उसका नाम रखा गया—वैजयंत। इसके उपरांत इंद्र ने असुरों का आक्रमण रोकने के लिए सुमेरु पवत पर पाँच स्थानों में अपनी सेनाएँ रखीं।
अब इंद्र बड़े आनंद से सब प्रकार के सुख और संपत्ति का भोग करने लगे। उस समय सुधर्मा ने भी मानव शरीर त्यागकर दूसरा जन्म धारण किया। इस दूसरे जन्म में वह इंद्र की पादचारिका हुई। उसने धर्मशाला के लिए शिखर दान करके जो पुण्य संचित किया था, उसके बल से उसके रहने के लिए पृथ्वी में से सुधर्मा नामक पाँच सौ योजन ऊँचा एक दिव्य और अपूर्व प्रासाद निकला। वहाँ इंद्र सोने के पलंग पर दिव्य छत्र के नीचे बैठकर देवलोक और नरलोक का शासन करने लगे।
कुछ दिनों में चित्रा भी इहलोक त्यागकर दूसरे जन्म में इंद्र की पादचारिका बनी। पहले जन्म में उसने उद्यान उत्सर्ग किया था, अतः उसके लिए चित्रलता वन नाम का एक बहुत सुंदर और रमणीय उद्यान पृथ्वी में से निकल आया। सब के अंत में नंदा भी मरने के उपरांत इंद्र की पादचारिका हुई। उसने सरोवर बनवाया था, अतः उसके लिए नंदा नामक एक मनोहर सरोवर भी वहाँ बन गया। पर सुजाता ने कोई सत्कार्य नहीं किया था, इसलिए मृत्यु के उपरांत वह वक का जन्म धारण करके किसी वन की कंदरा में रहने लगी। एक दिन इंद्र सोचने लगे कि वह सुजाता कहाँ गई और उसने कौनसा जन्म धारण किया, ज़रा इसका भी पता लगाना चाहिए। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वक के रूप में सुजाता मिल गई और वे उसे अपने साथ देवलोक में ले आए और उसे देवपुरी की सारी शोभा, सुधर्मा सभा, चित्रलता वन, नंदा सरोवर आदि दिखाकर कहने लगे—देखो, सुधर्मा, चित्रा और नंदा ने जो शुभ कर्म किए थे, उनके फलस्वरूप वे मेरी पादचारिकाएँ हुई हैं। पर तुमने कोई ऐसा शुभ कर्म नहीं किया, इसलिए तुम्हें तिर्यग् जन्म धारण करना पड़ा। अब तुम फिर से भूलोक में जाकर शीतव्रत का पालन करो। इतना कहकर वे सुजाता को ले जाकर फिर उसी जंगल में रख आए।
तब से सुजाता शीलव्रत का पालन करने लगी। कुछ दिनों के उपरांत उसकी परीक्षा करने के लिए इन्द्र एक मछली का रूप धारण करके उसके सामने पहुँचे। सुजाता ने मछली को मृत समझकर उसका मुँह पकड़कर उठाया, जिस पर मछली ने दुम हिलाई। तब सुजाता ने उसे जीवित समझकर छोड़ दिया। इंद्र भी यह कहकर अंतर्धान हो गए कि धन्य सुजाता, तू शीलव्रत का पालन कर सकेगी।
वक-जन्म के उपरांत सुजाता ने दूसरे जन्म में वाराणसी के एक कुंभकार के घर में जन्म लिया। अब फिर इंद्र को उसका स्मरण हुआ। वे एक बुड्ढे गाड़ीवान का रूप धरकर और एक बैल गाड़ी पर सोने के बहुत से ख़रगोश रखकर वाराणसी पहुँचे और ख़रगोश लो, ख़रगोश चिल्लाते हुए उस कुम्हार के मकान के पास पहुँचे। कुछ लोग ख़रगोश लेने के लिए उनके पास आ पहुँचे। पर उन्होंने कहा—ये ख़रगोश हर किसी को नहीं मिलते। जो शीलव्रत का पालन करता है, वही ये ख़रगोश पा सकता है। उन लोगों ने कहा—हम लोग तुम्हारा शीलव्रत नहीं जानते। हम तो मूल्य देंगे और ख़रगोश लेंगे। इंद्र ने उत्तर दिया—मैं मूल्य लेकर ख़रगोश नहीं देता। जो शीलव्रत का पालन करता है, उसे मैं बिना मूल्य लिए ही देता हूँ। इस पर सब लोग इंद्र को भली बुरी बातें कहते हुए चले गए। जब यह बात सुजाता ने सुनी, तब उसने मन में सोचा कि संभव है, ये ख़रगोश मेरे ही लिए आए हों। उसने गाड़ीवान के पास पहुँचकर कुछ ख़रगोश माँगे। गाड़ीवान ने पूछा—तुम शीलव्रत का पालन करती हो? सुजाता ने उत्तर दिया—हाँ, करती हूँ। गाड़ीवान ने कहा—तो फिर ये ख़रगोश मैं तुम्हारे ही लिए लाया हूँ। इतना कहकर इंद्र ने सब ख़रगोश उसके द्वार पर रख दिए और आप वहाँ से चल पड़े।
इतनी अधिक संपत्ति पाकर सुजाता ने बहुत दिनों तक शीलव्रत का पालन किया और मरने पर असुरों के राजा विप्रचित्त के घर उसकी कन्या के रूप में जन्म लिया। पूर्व जन्म के सत्कार्यों के कारण इस जन्म में वह बहुत सुंदरी हुई। जब वह सयानी हुई, तब उसने अपने पिता से अपने स्वयंवर का आयोजन करने के लिए कहा। इंद्र ने पहले ही पता लगा लिया था कि सुजाता ने विप्रचित्त के घर जन्म लिया है। वे असुर का रूप धारण कर के स्वयंवर सभा में पहुँचे। उन्होंने समझ लिया था कि सुजाता मुझे ही वरमाल पहनावेगी।
समय होने पर सुजाता सभा में लाई गई। उसके बड़ो ने कहा—बेटी, अपने इच्छानुसार पति वरण कर लो। सुजाता ने चारों ओर देखा और इंद्र को पहचानकर प्रेमपूर्वक उन्हीं को वरण किया। इंद्र उसे लेकर देवलोक को चले गए और वहाँ उन्होंने उसे ढाई करोड़ नत्तकियों की अधिनेत्री बनाया। इसके उपरांत आयु पूर्ण होने पर इंद्र ने अपने कर्मानुसार फल भोगने के लिए दूसरा जन्म धारण किया।
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