बाल महाभारत : पांडवों की रक्षा

baal mahabharat panDvon ki raksha

चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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बाल महाभारत : पांडवों की रक्षा

चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

और अधिकचक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

    नोट

    प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।

    पाँचों पांडव माता कुंती के साथ वारणावत के लिए चल पड़े। उनके हस्तिनापुर छोड़कर वारणावत जाने की ख़बर पाकर नगर के लोग उनके साथ हो लिए। बहुत दूर जाने के बाद युधिष्ठिर का कहा मानकर नगरवासियों को लौट जाना पड़ा। दुर्योधन के षड्यंत्र और उससे बचने का उपाय विदुर ने युधिष्ठिर को इस तरह गूढ़ भाषा में सिखा दिया था कि जिससे दूसरे लोग समझ सकें। वारणावत के लोग पांडवों के आगमन की ख़बर पाकर बड़े ख़ुश हुए और उनके वहाँ पहुँचने पर उन्होंने बड़े ठाठ से उनका स्वागत किया। जब तक लाख का भवन बनकर तैयार हुआ, पांडव दूसरे घरों में रहते रहे, जहाँ पुरोचन ने पहले से ही उनके ठहरने का प्रबंध कर रखा था। लाख का भवन बनकर तैयार हो गया, तो पुरोचन उन्हें उसमें ले गया। भवन में प्रवेश करते ही युधिष्ठिर ने उसे ख़ूब ध्यान से देखा। विदुर की बातें उन्हें याद थीं। ध्यान से देखने पर युधिष्ठिर को पता चल गया कि यह घर जल्दी आग लगने वाली चीज़ों से बना हुआ है। युधिष्ठिर ने भीम को भी यह भेद बता दिया; पर साथ ही उसे सावधान करते हुए कहा—“यद्यपि यह साफ़ मालूम हो गया है कि यह स्थान ख़तरनाक है, फिर भी हमें विचलित नहीं होना चाहिए। पुरोचन को इस बात का ज़रा भी पता लगे कि उसके षड्यंत्र का भेद हम पर खुल गया है। मौक़ा पाकर हमें यहाँ से निकल भागना होगा। पर अभी हमें जल्दी से ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे शत्रु के मन में ज़रा भी संदेह पैदा होने की संभावना हो।

    युधिष्ठिर की इस सलाह को भीमसेन सहित सब भाइयों तथा कुंती ने मान लिया। वे उसी लाख के भवन में रहने लगे। इतने में विदुर का भेजा हुआ एक सुरंग बनाने वाला कारीगर वारणावत नगर में पहुँचा। उसने एक दिन पांडवों को अकेले में पाकर उन्हें अपना परिचय देते हुए कहा—“आप लोगों की भलाई के लिए हस्तिनापुर से रवाना होते समय विदुर ने युधिष्ठिर से सांकेतिक भाषा में जो कुछ कहा था, वह बात मैं जानता हूँ। यही मेरे सच्चे मित्र होने का सबूत है। आप मुझ पर भरोसा रखें। मैं आप लोगों की रक्षा का प्रबंध करने के लिए आया हूँ।

    इसके बाद वह कारीगर महल में पहुँच गया और गुप्त रूप से कुछ दिनों में ही उसमें एक सुरंग बना दी इस रास्ते से पांडव महल के अंदर से नीचे-ही-नीचे चहारदीवारी और गहरी खाई को लाँघकर सुरक्षित बेखटके बाहर निकल सकते थे। यह काम इतने गुप्त रूप से और इस ख़ूबी से हुआ कि पुरोचन को अंत तक इस बात की ख़बर होने पाई। पुरोचन ने लाख के भवन के द्वार पर ही अपने रहने के लिए स्थान बनवा लिया था। इस कारण पांडवों को भी सारी रात हथियार लेकर चौकन्ने रहना पड़ता था।

    एक दिन पुरोचन ने सोचा कि अब पांडवों का काम तमाम करने का समय गया है। समझदार युधिष्ठिर उसके रंग-ढंग से ताड़ गए कि वह क्या सोच रहा है। युधिष्ठिर की सलाह से माता कुंती ने उसी रात को एक बड़े भोज का प्रबंध किया। नगर के सभी लोगों को भोजन कराया गया। बड़ी धूमधाम रही, मानो कोई बड़ा उत्सव हो। ख़ूब खा-पीकर भवन के सब कर्मचारी गहरी नींद में सो गए। पुरोचन भी सो गया। आधी रात के समय भीमसेन ने भवन में कई जगह आग लगा दी और फिर पाँचों भाई माता कुंती के साथ सुरंग के रास्ते अँधेरे में रास्ता टटोलते टटोलते बाहर निकल गए। भवन से बाहर वे निकले ही थे कि आग ने सारे भवन को अपनी लपटों में ले लिया। पुरोचन के रहने के मकान में भी आग लग गई। सारे नगर के लोग इकट्ठे हो गए और पांडवों के भवन को भयंकर आग की भेंट होते, देखकर हाहाकार मचाने लगे। कौरवों के अत्याचार से जनता क्षुब्ध हो उठी और तरह-तरह से कौरवों की निंदा करने लगी। लोग क्रोध में अनाप-शनाप बकने लगे, हाय-तौबा मचाने लगे और उनके देखते-देखते सारा भवन जलकर राख हो गया। पुरोचन का मकान और स्वयं पुरोचन भी आग की भेंट हो गया।

    वारणावत के लोगों ने तुरंत ही हस्तिनापुर में ख़बर पहुँचा दी कि पांडव जिस भवन में ठहराए गए थे, वह जलकर राख हो गया है और भवन में कोई भी जीता नहीं बचा।धृतराष्ट्र और उनके बेटों ने पांडवों की मृत्यु पर बड़ा शोक मनाया। वे गंगा किनारे गए और पांडवों तथा कुंती को जलांजलि दी। फिर सब मिलकर बड़े ज़ोर-ज़ोर से रोते और विलाप करते हुए घर लौटे। परंतु दार्शनिक विदुर ने शोक को मन ही में दवा लिया। अधिक शोक-प्रदर्शन किया। इसके अलावा विदुर को यह भी पक्का विश्वास था कि पांडव लाख के भवन से बचकर निकल गए होंगे। पितामह भीष्म तो मानो शोक के सागर ही में थे, पर उनको विदुर ने धीरज बँधाया और पांडवों के बचाव के लिए किए गए अपने सारे प्रबंध का हाल बताकर उन्हें चिंतामुक्त कर दिया।

    लाख के घर को जलता हुआ छोड़कर पाँचों भाई माता कुंती के साथ बच निकले और जंगल में पहुँच गए। जंगल पहुँचने पर भीमसेन ने देखा कि रातभर जगे होने तथा चिंता और भय से पीड़ित होने के कारण चारों भाई बहुत थके हुए हैं। माता कुंती की दशा तो बड़ी ही दयनीय थी। बेचारी थककर चूर हो गई थी। सो महाबली भीम ने माता को उठाकर अपने कंधे पर बैठा लिया और नकुल एवं सहदेव को कमर पर ले लिया। युधिष्ठिर और अर्जुन को दोनों हाथों से पकड़ लिया और वह उस जंगली रास्ते में उन्मत्त हाथी के समान झाड़-झंखाड़ और पेड़-पौधों को इधर-उधर हटाता रौंदता हुआ तेज़ी से चलने लगा। जब वे सब गंगा के किनारे पहुँचे, तो वहाँ विदुर की भेजी हुई एक नाव मिली। युधिष्ठिर ने मल्लाह से सांकेतिक प्रश्न करके जाँच लिया कि वह मित्र है। वे लोग अगले दिन शाम होने तक चलते ही रहे, ताकि किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँच जाएँ।

    सूरज डूब गया और रात हो चली थी। चारों तरफ़ अँधेरा छा गया। कुंती और पांडव एक तो थकावट के मारे चूर हो रहे थे, ऊपर से प्यास और नींद भी उन्हें सताने लगी चक्कर-सा आने लगा। एक पग भी आगे बढ़ना असंभव हो गया। भीम के सिवाए और सब भाई वहीं ज़मीन पर लगती थीं। बैठ गए। कुंती से तो बैठा भी नहीं गया। वह दीनभाव से बोली—“मैं तो प्यास से मरी जा रही हूँ। अब मुझसे बिलकुल चला नहीं जाता। धृतराष्ट्र के बेटे चाहें तो भले ही मुझे यहाँ से उठा ले जाएँ, मैं तो यहीं पड़ी रहूँगी। यह कहकर कुंती वहीं ज़मीन पर गिरकर बेहोश हो गई।

    माता और भाइयों का यह हाल देखकर क्षोभ के मारे भीमसेन का हृदय दग्ध हो उठा। वह उस भयानक जंगल में बेधड़क घुस गया और इधर-उधर घूम-घामकर उसने एक जलाशय का पता लगा ही लिया। उसने पानी लाकर माता भाइयों की प्यास बुझाई। पानी पीकर चारों भाई और माता कुंती ऐसे सोए कि उन्हें अपनी सुध-बुध तक रही। अकेला भीमसेन मन-ही-मन कुछ सोचता हुआ चिंतित भाव से बैठा रहा। पाँचों भाई माता कुंती को लिए अनेक विघ्न-बाधाओं का सामना करते और बड़ी मुसीबतें झेलते हुए उस जंगली हो जाते। रास्ते में आगे बढ़ते ही चले गए। वे कभी माता को उठाकर तेज़ चलते, कभी थके-माँदे बैठ जाते। कभी एक-दूसरे से होड़ लगाकर रास्ता पार करते। वे ब्राह्मण ब्रह्मचारियों का वेश धरकर एकचक्रा नगरी में जाकर एक ब्राह्मण के घर में रहने लगे।

    माता कुंती के साथ पाँचों पांडव एकचक्रा नगरी में भिक्षा माँगकर अपनी गुज़र करके दिन बिताने लगे। भिक्षा के लिए जब पाँचों भाई निकल जाते, तो कुंती का जी बड़ा बेचैन हो उठता था। वह बड़ी चिंता से उनकी बाट जोहती रहती। उनके लौटने में ज़रा भी देर हो जाती तो कुंती के मन में तरह-तरह की आशंकाएँ उठने लगती थीं।

    पाँचों भाई भिक्षा में जितना भोजन लाते, कुंती उसके दो हिस्से कर देती। एक हिस्सा भीमसेन को दे देती और बाक़ी आधे में से पाँच हिस्से करके चारों बेटे और ख़ुद खा लेती थी। तिसपर भी भीमसेन की भूख नहीं मिटती थी। हमेशा ही भूखा रहने के कारण वह दिन-पर-दिन दुबला होने लगा। भीमसेन का यह हाल देखकर कुंती और युधिष्ठिर बड़े चिंतित रहने लगे। थोड़े से भोजन से पेट भरता था, सो भीमसेन ने एक कुम्हार से दोस्ती कर ली। उसने मिट्टी आदि खोदने में मदद करके उसको ख़ुश कर दिया। कुम्हार भीम से बड़ा ख़ुश हुआ और एक बड़ी भारी हाँडी बनाकर उसको दी। भीम उसी हाँडी को लेकर भिक्षा के लिए निकलने लगा। उसका विशाल शरीर और उसकी वह विलक्षण हाँडी देखकर बच्चे तो हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते।

    एक दिन चारों भाई भिक्षा के लिए गए। अकेला भीमसेन ही माता कुंती के साथ घर पर रहा। इतने में ब्राह्मण के घर के भीतर से बिलख-बिलखकर रोने की आवाज़ आई। अंदर जाकर देखा कि ब्राह्मण और उसकी पत्नी आँखों में आँसू भरे सिसकियाँ लेते हुए एक-दूसरे बातें कर रहे हैं।

    ब्राह्मण बड़े दुखी हृदय से अपनी पत्नी से कह रहा था—“कितनी ही बार मैंने तुम्हें समझाया कि इस अँधेर नगरी को छोड़कर कहीं और चले जाएँ, पर तुम नहीं मानीं यही हठ करती रहीं कि यह मेरे बाप-दादा का गाँव है, यहीं रहूँगी। बोलो, अब क्या कहती हो? अपनी बेटी की भी बलि कैसे चढ़ा दूँ और पुत्र को कैसे काल कवलित होने दूँ? यदि मैं शरीर त्यागता हूँ, तो फिर इन अनाथ बच्चों का भरण-पोषण कौन करेगा? हाय! मैं अब क्या करूँ? और कुछ करने से तो अच्छा उपाय यह है कि सभी एक साथ मौत को गले लगा लें। यही अच्छा होगा।” कहते-कहते ब्राह्मण सिसक-सिसककर रो पड़ा।

    ब्राह्मण की पत्नी रोती-रोती बोली—“प्राणनाथ! मुझे मरने का कोई दुख नहीं है मेरी मृत्यु के बाद आप चाहें तो दूसरी पत्नी ला सकते हैं। अब मुझे प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दें, ताकि मैं राक्षस का भोजन बनूँ।”

    पत्नी की ये व्यथाभरी बातें सुनकर ब्राह्मण से रहा गया। वह बोला—“प्रिये! मुझसे बड़ा दुरात्मा और पापी कौन होगा, जो तुम्हें राक्षस की बलि चढ़ा दे और ख़ुद जीवित रहे?”

    माता-पिता को इस तरह बातें करते देख ब्राह्मण की बेटी से रहा गया। उसने करुण स्वर में कहा—“पिताजी, अच्छा तो यह है कि राक्षस के पास आप मुझे भेज दें। सबको इस तरह रोते देखकर ब्राह्मण का नन्हा सा बालक पास में पड़ी हुई सूखी लकड़ी हाथ में लेकर घुमाता हुआ बोला—“उस राक्षस को तो मैं ही इस लकड़ी से इस तरह ज़ोर से मार डालूँगा।”

    कुंती खड़ी-खड़ी यह सब देख रही थी। अपनी बात कहने का उसने ठीक मौक़ा देखा। वह बोली—“हे ब्राह्मण, क्या आप कृपा करके मुझे बता सकते हैं कि आप लोगों के इस असमय दुख का कारण क्या है?”

    ब्राह्मण ने कहा—“देवी! सुनिए, इस नगरी के समीप एक गुफ़ा है, जिसमें बक नामक एक बड़ा अत्याचारी राक्षस रहता है। पिछले तेरह वर्षों से इस नगरी के लोगों पर वह बड़े ज़ुल्म ढा रहा है। इस देश का राजा, जो वेत्रकीय नाम के महल में रहता है, इतना निकम्मा है कि प्रजा को राक्षस के अत्याचार से बचा नहीं रहा है। इससे घबराकर नगर के लोगों ने मिलकर उससे बड़ी अनुनय-विनय की कि कोई-न-कोई नियम बना ले। बकासुर ने लोगों की यह बात मान ली और तब से इस समझौते के अनुसार यह नियम बना हुआ है कि लोग बारी-बारी से एक-एक आदमी और खाने की चीज़ें हर सप्ताह उसे पहुँचा दिया करते हैं। इस सप्ताह में उस राक्षस के खाने के लिए आदमी और भोजन भेजने की हमारी बारी है। अब तो मैंने यही सोचा है कि सबको साथ लेकर ही राक्षस के पास चला जाऊँगा। आपने पूछा सो आपको बता दिया। इस कष्ट को दूर करना तो आपके बस में भी नहीं है।”

    ब्राह्मण की बात का कोई उत्तर देने से पहले कुंती ने भीमसेन से सलाह की। उसने लौटकर कहा—“विप्रवर, आप इस बात की चिंता छोड़ दें। मेरे पाँच बेटे हैं, उनमें से एक आज राक्षस के पास भोजन लेकर चला जाएगा।”

    सुनकर ब्राह्मण चौंक पड़ा और बोला—“आप भी कैसी बात कहती हैं! आप हमारी अतिथि हैं। हमारे घर में आश्रय लिए हुए हैं। आपके बेटे को मौत के मुँह में मैं भेजूँ, यह कहाँ का न्याय है? मुझसे यह नहीं हो सकता।”

    कुंती को डर था कि यदि यह बात फैल गई, तो दुर्योधन और उनके साथियों को पता लग जाएगा कि पांडव एकचक्रा नगरी में छिपे हुए हैं। इसीलिए उसने ब्राह्मण से इस बात को गुप्त रखने का आग्रह किया था। कुंती ने जब भीमसेन को बताया कि उसे बकासुर के पास भोजन-सामग्री लेकर जाना होगा, तो युधिष्ठिर खीझ उठे और बोले—“यह तुम कैसा दुस्साहस आगे करने चली हो माँ!”

    युधिष्ठिर की इन कड़ी बातों का उत्तर देते हुए कुंती बोली—“बेटा युधिष्ठिर! इस ब्राह्मण के घर में हमने कई दिन आराम से बिताए हैं। जब इन पर विपदा पड़ी है, तो मनुष्य होने के नाते हमें उसका बदला चुकाना ही चाहिए। मैं बेटा भीम की शक्ति और बल से अच्छी तरह परिचित हूँ। तुम इस बात की चिंता मत करो। जो हमें वारणावत से यहाँ तक उठा लाया, जिसने हिडिंब का वध किया, उस भीम के बारे में मुझे तो कोई डर है, चिंता भीम को बकासुर के पास भेजना हमारा कर्तव्य है।”

    इसके बाद नियम के अनुसार नगर के लोग खाने-पीने की चीज़ें गाड़ी में रखकर ले आए। भीमसेन उछलकर गाड़ी में बैठ गया। शहर के लोग भी बाजे बजाते हुए कुछ दूर तक उसके पीछे-पीछे चले। एक निश्चित स्थान पर लोग रुक गए और अकेला भीम गाड़ी दौड़ाता हुआ आगे गया।

    उधर राक्षस मारे भूख के तड़प रहा था। जब बहुत देर हो गई, तो बड़े क्रोध के साथ वह गुफ़ा के बाहर आया। देखता क्या है कि एक मोटा सा मनुष्य बड़े आराम से बैठा हुआ भोजन कर रहा है। यह देखकर बकासुर की आँखें क्रोध से एकदम लाल हो उठीं। इतने में भीमसेन की भी निगाह उस पर पड़ी। उसने हँसते हुए उसका नाम लेकर पुकारा। भीमसेन की यह ढिठाई देखकर राक्षस ग़ुस्से में भर गया और तेज़ी से भीमसेन पर झपटा। भीमसेन ने बकासुर को अपनी ओर आते देखा, तो उसने उसकी तरफ़ पीठ फेर ली और कुछ भी परवाह करके खाने में ही लगा रहा। ख़ाली हाथों काम बनते देखकर राक्षस ने एक बड़ा सा पेड़ जड़ से उखाड़ लिया और उसे भीमसेन पर दे मारा, परंतु भीमसेन ने बाएँ हाथ पर उसे रोक लिया। दोनों में भयानक मुठभेड़ हो गई। भीमसेन ने बकासुर को ठोकरें मारकर गिरा दिया और कहा—“दुष्ट राक्षस! जरा विश्राम तो करने दे।”

    थोड़ी देर सुस्ताकर भीम ने फिर कहा—“अच्छा! अब उठो!” बकासुर उठकर भीम के साथ लड़ने लगा। भीमसेन ने उसको ठोकरें लगाकर फिर गिरा दिया। इस तरह बार-बार पछाड़ खाने पर भी राक्षस उठकर भिड़ जाता था। आख़िर भीम ने उसे मुँह के बल गिरा दिया और उसकी पीठ पर घुटनों की मार देकर उसकी रीढ़ तोड़ डाली। राक्षस पीड़ा के मारे चीख़ उठा और उसके प्राण पखेरू उड़ गए। भीमसेन उसकी लाश को घसीट लाया और उसे नगर के फाटक पर जाकर पटक दिया। फिर उसने घर आकर माँ को सारा हाल बताया।

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    स्रोत :
    • पुस्तक : बाल महाभारत कथा (पृष्ठ 21)
    • रचनाकार : चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
    • प्रकाशन : एनसीईआरटी
    • संस्करण : 2022

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