षड्ऋतु वर्णन (वसंत)
shaDritu warnan (wasant)
प्रथम बसंत नवल रितु आई। सुरितु चैत बैसाख सोहाई॥
चंदन चीर पहिरि धनि अंगा। सेंदुर दीन्ह बिहँसि भरि मंगा॥
कुसुम हार औ परिमल बासू। मलयागिरि छिरिका कबिलासू॥
सौर सुपेती फुलन्ह डासी। धनि औ कंत मिले सुखबासी॥
पिउ सँजोग धनि जोबन बारी। भँवर पुहुप सँग करहिं धमारी।
होइ फागु भलि चाँचरि जोरी। बिरह जराइ दीन्ह जसि होरी॥
धनि ससि सियरि तपै पिउ सुरू। नखत सिंगार होहिं सब चूरू॥
जेहि घर कंता रितु भनी आउ बसंता नित्तु।
सुख बहरावहि देवहरै दुक्ख न जानहिं कित्तु॥
सबसे पहले नवल वसंत ऋतु आई। चैत बैसाख में वह मौसम सुहावना लग रहा था। उस युवती ने अंग में चंदन चीर पहनकर, प्रसन्न हो माँग में सिंदूर भरा। पुष्पहार पहनकर परिमल गंध लगाई। धवलगृह के सातवें खंड के अपने निवास में मलयागिरि चंदन छिड़का। सेज पर फूलों का बिछावन बिछाया गया। धनि और कंत दोनों शयनगृह में मिले। इधर नव-युवती की यौवन रूपी वाटिका में प्रिय का संयोग हुआ, उधर भौंरे फूलों के साथ धमाचौकड़ी करने लगे। फाग होने लगा और सुंदर चाँचर एकत्र हुई। इस उत्सव में विरह के दुःख की जैसे होली जला दी गई। प्रिया चाँद-सी शीतल थी और प्रिय सूर्य सा तपता था। सूर्य के समीप आने से शशि का नक्षत्र रूपी सब शृंगार चूर हो गया।
- पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 333)
- रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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