नागमती वियोग (तेरह)
nagamti wiyog (terah)
भा बैसाख तपनि अति लागी। चोला चीर चँदन भौ आगी॥
सूरुज जरत हिवंचल ताका। बिरह बजागि सौहँ रथ हाँका॥
जरत बजागिनि होउ पिय छाँहाँ। आइ बुझाउ अँगारन्ह माहाँ॥
तोहि दरसन होइ सीतल नारी। आइ आगि सो करु फुलवारी॥
लागिउँ जरे जरे जस भारू। बहुरि जो भूँ जसि तजौं न बारू॥
सरवर हिया घटत निति जाई। टूक टूक होइ होइ बिहराई॥
बिहरत हिया करहु पिय टेका। दिस्टि दवँगरा मेरवहु एका॥
कँवल जो बिगसा मानसर छारहिं मिलै सुखाइ।
अबहुँ बेलि फिरि पलुहै जौं पिय सींचहु आइ॥
बैसाख का महीना आया और अत्यंत तपन लगने लगी। चंदनी चीर का चोला आग हो गया। सूर्य जलता हुआ हिमालय की ओर जाना चाहता था। वहाँ तो वह न गया विरह की वज्राग्नि में तपती हुई मेरी ओर ही उसने रथ हाँक दिया। मैं और तपने लगी। हे प्रिय, वज्राग्नि जल रही है, तुम छाँह करो। अंगारों में मुझे आकर बुझाओ। तुम्हारे दर्शन से यह बाला शीतल होगी। हे प्रिय, आओ और अंगारों के स्थान पर फुलवारी कर दो। जैसे भाड़ जलता है वैसे ही जलने लगी हूँ। तुम यदि फिर-फिर भूनो तो भी तुम्हारा द्वार न छोड़ेंगी। सरोवर की तरह मेरा हृदय प्रतिदिन घटता जाता है। एक दिन वह टुकड़े-टुकड़े होकर फट जाएगा। हृदय फट रहा है। हे प्रिय, उसे सहारा दो और अपनी कृपा-दृष्टि रूपी दवँगरे से उसे फटने से बचाओ।
- पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 353)
- रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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